कविता : पतझड़ में मुस्कुराती

रेखा भाटिया
ओ सिहरते खिले गुलाबी फूलों
हो इतने शर्मीले धूप से शर्मा रहे
टहनियों के पीछे हो छिप कर बैठे
जैसे कोमलांगी दुल्हन घूंघट में !
 
मैंने कभी न देखा था तुम्हें पहले
बगिया में खिलते गर्मी में हरी झाड़ी पर
खिली बगिया में हरी झाड़ी सूनी थी
चटक धूप में वीरान कोने में अकेली !
 
कभी दया आती, कभी मन करता
उसे उखाड़ फेंकूं बिना फूलों की झाड़ी
जैसे अरमान दबा औरत समझौता करे
दिखावा करे बगिया के लिए बन हरीभरी !
 
अब जब पतझड़ आ चुका, रंग बेरंग
सूनी टहनियां, पत्ते गिरे सुख रहे जमीन
ठिठुर बहार चल पड़ी दूर परदेस
सूरज की धूप भी कंबल ओढ़ सुस्ताती !
 
हरी झाड़ी देखो कैसे तुम्हें छिपाएं है बैठी
जैसे मां अपने लाडलों को नजर से बचाती  
पतझड़ में भी हिम्मत से अटल-अडिग
खड़ी है अपने बल अपने अस्तित्व संग !
 
उकसा रहे हो मुझे तुम गुलाबी फूलों
रिझा रहे हो मैं भी बन जाऊं ऐसी ही
तुम्हारे और हरी झाड़ी के रिश्ते जैसी
पतझड़ में भी मुस्कुराती दुनिया से निराली !

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