बिहार की राजनीति में एक बार फिर बाहुबली आनंद मोहन सिंह सुर्खियों में है। बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह जो साल 1994 में गोपालगंज के कलेक्टर जी कृष्णैया की हत्या के मामले में दोषी पाए गए थे और उम्रकैद की सजा काट रहे थे, उनकी रिहाई के फैसले को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विरोधियों के निशाने पर है।
पिछले कुछ दिनों से 2024 लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता की मुहिम चलाने वाले नीतीश कुमार की बाहुबली आनंद मोहन सिंह ने नजदीकियां किसी से छिपी नहीं है। 2010 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कलेक्टर की हत्या के मामले में जेल में बंद आनंद मोहन सिंह के घर जाकर उनकी मां का आशीर्वाद लिया था और आनंद मोहन सिंह पेरोल पर रिहाई के दौरान अक्सर नीतीश कुमार के साथ नजर भी आते रहे।
बाहुबली दोस्त के लिए बदला नियम!-बाहुबली आनंद मोहन सिंह से दोस्ती का फर्ज निभाते हुए पिछले दिनों सुशासन बाबू की छवि वाले नीतीश कुमार ने अपनी ही सरकार के 12 साल पहले के नियम में अचानक बदलाव कर देते हैं और आनंद मोहन की जेल से रिहाई का रास्ता साफ हो जाता है। नीतीश सरकार ने बिहार जेल नियमावली, 2012 के नियम 481(1) क में संशोधन कर 'काम पर तैनात सरकारी सेवक की हत्या' इस वाक्यांश को ही नियम से हटा दिया। जिसका सीधा फायदा कलेक्टर की हत्या में उम्रकैद की सजा काट रहे आनंद मोहन सिंह को मिला और उनकी जेल से रिहाई का रास्ता साफ हो गया।
सुशासन बाबू की छवि रखने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने इस फैसले से अचानक से विवादों के घेरे में आ गए है। बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य सरकार ने पूर्व सांसद आनंद मोहन के बहाने अन्य 26 ऐसे दुर्दांत अपराधियों को भी रिहा करने का फैसला किया, जो एम-वाई समीकरण में फिट बैठते हैं और जिनके बाहुबल का दुरुपयोग चुनावों में किया जा सकता है। गंभीर मामलों में दोषसिद्ध अपराधियों की रिहाई का फैसला असंवैधानिक और अनाश्यक है।
सुशील मोदी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को घेरते हुए कहा कि 2016 में नीतीश सरकार ने ही जेल मैन्युअल में संशोधन कर बलात्कर, आतंकी घटना में हत्या, बलात्कार के दौरान हत्या और ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी की हत्या को ऐसे जघन्य अपराध की श्रेणी में रखा था, जिसमें कोई छूट या नरमी नहीं दी जाएगी। वहीं ऐसी क्या मजबूरी है कि एससी-एसटी समुदाय के सरकारी अधिकारी की हत्या के मामले में सजायाफ्ता बंदी को भी रिहा किया जा रहा है?
वहीं आनंद मोहन सिंह की रिहाई पर बिहार भाजपा में दो फाड़ भी नजर आ रहे है। बिहार भाजपा के कई दिग्गज नेताओं ने आनंद मोहन सिंह से हमदर्दी भी जताई है। इनमें एक नाम बिहार के दिग्गज नेता और मोदी सरकार में मंत्री गिरिराज सिंह का भी है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा 'वो बेचारे तो बलि के बकरा हैं। वो तो इतनी सजा भोगे हैं आनंद मोहन की रिहाई को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं लेकिन आनंद मोहन के आड़ में जो काम किया है इस सरकार ने, उसे समाज कभी माफ नहीं करेगा।'
बाहुबली आनंद मोहन सिंह पर मेहरबानी क्यों?-दिनदहाड़े कलेक्टर की हत्या जैसे जघन्य अपराध में दोषी ठहराए गए आनंद मोहन सिंह अब सियासी दलों की मेहरबानी क्यों है, इसको समझने के लिए दरअसल बिहार की राजनीति को समझना होगा जिसमें आज भी आनंद मोहन सिंह की एक ब्रांड वैल्यू है। गोपालगंज कलेक्टर जी कृष्णैया की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का बेटा चेतन आनंद वर्तमान में शिवहर से सत्ताधारी पार्टी आरजेडी का विधायक है और पत्नी लवली आनंद पूर्व सांसद रह चुकी है। वहीं आनंद मोहन की रिहाई के बीच इस बात की अटकलें लगाई जा रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में आनंद मोहन सिंह लोकसभा चुनाव लड़ सकते है। खुद आनंद मोहन सिंह ने भी इसके संकेत दिए है।
बाहुबली से राजनेता बनने तक का सफर-देश के इतिहास में फांसी की सजा पाने वाले पहले राजनेता का तमगा (लांछन) हासिल करने वाले आनंद मोहन सिंह की जीवन की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है। बिहार में जातीय संघर्ष की आग में तप कर निकलने बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह अस्सी के दशक में राजपूतों के मसीहा बनकर उभरे और आज भी उनकी बिहार की राजनीति में तूती बोलती है।
1980 बिहार में शुरु हुए जातीय संघर्ष के सहारे रानजीति की सीढ़ियां चढ़ने वाले आनंद मोहन सिंह राजपूतों के बड़े नेता थे। सियासत में आने से पहले ही आनंद मोहन सिंह अपनी दबंगई के लिए मिथिलाचंल में बड़ा नाम बन गए थे। बिहार का कोसी का इलाका करीबी तीन दशक तक जातीय संघर्ष के खून से लाल होता रहा है। अस्सी के दशक में बिहार में अगड़ों-पिछड़ों के जातीय संघर्ष ने बिहार की राजनीति में कई बाहुबली नेताओं की एंट्री का रास्ता भी बना।
नब्बे के दशक में बाहुबली आनंद मोहन सिंह बिहार की सियासत में एंट्री करते है। बिहार में आरक्षण विरोध की सियासत करने वाले आनंद मोहन सिंह 1990 में मंडल कमीशन का खुलकर विरोध करते हैं और 1993 में अपनी अलग पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी का गठन कर लेते हैं।
जाति की राजनीति के सहारे अपनी सियासी पारी का आगाज करने वाले आनंद मोहन नब्बे के दशक में देखते ही देखते राजनीति के बड़े चेहरे हो गए, लोग उनको लालू यादव के विकल्प के रूप में भी देखने लगे थे। 1996 और 1998 में आनंद मोहन सिंह शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव में उतरते हैं और बड़े अंतर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच जाते हैं।
समाजवादी क्रांति सेना बनाने वाले आनंद मोहन सिंह के खौफ के आगे पुलिस नतमस्तक थी। कोसी के कछार में आनंद मोहन सिंह की प्राइवेट आर्मी और बाहुबली पप्पू यादव की सेना की भिड़ंत से 'गृहयुद्ध' जैसे बने हालात को काबू में करने के लिए लालू सरकार को बीएसएफ का सहारा लेना पड़ा था।
1994 में बिहार में गोपालगंज के कलेक्टर दलित आईएएस अधिकारी जी कृष्णैया की हत्या कर दी जाती है। हत्या का आरोप आनंद मोहन सिंह पर लगता हैं और 2007 में कोर्ट आनंद सिंह मोहन को फांसी की सजा सुनाती है हालांकि बाद में फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया जाता है और अब नीतीश सरकार ने नियमों में बदलाव कर आनंद मोहन सिंह की रिहाई का रास्ता साफ कर दिया है।