गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ फार्मेसी कराड के एक SC/ST जाति के स्टोर कीपर की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उनके सीनियर ने विपरीत टिप्पणी दर्ज की। स्टोर कीपर ने उनके विरुद्ध SC/ST एट्रोसिटी एक्ट के तहत FIR पुलिस में दर्ज कर दी। पुलिस ने उन अधिकारियों को गिरफ्तार करने हेतु डायरेक्टर ऑफ टेक्निकल एजुकेशन से अनुमति मांगी जिसे मंजूर नहीं किया गया। इसके करीब 5 साल बाद उक्त स्टोर कीपर ने डायरेक्टर टेक्निकल एजुकेशन के विरुद्ध FIR दर्ज करवा दी। डायरेक्टर ने अग्रिम जमानत हेतु न्यायालय में याचिका पेश की जिस पर केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
एट्रोसिटी एक्ट में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के नागरिकों के विरुद्ध होने वाले कृत्यों को अपराध माना गया हैI जैसे, उनका सामाजिक बहिष्कार करना, जान बूझकर उन्हे सार्वजनिक रूप से अपमानित या प्रताड़ित करना इत्यादि। विवाद का विषय यह है कि इस एक्ट के सेक्शन 18 के अनुसार, यदि इस एक्ट के अंतर्गत यदि किसी की विरुद्ध FIR की जाती है तो उसे अग्रिम जमानत नहीं मिल सकती।
इसका यह भी अर्थ निकाला गया कि यदि कोई कंपलेंट करे तो उसे FIR दर्ज़ कर गिरफ्तार करना है भले ही बाद में कोर्ट में केस झूठा सिद्ध हो पर उसे पहले जेल जाना होगा। विडम्बना ये है कि लूट, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे आरोपों में भी अग्रिम जमानत मिल सकती है पर एट्रोसिटी एक्ट के तहत नहीं। (फैसले का पृष्ठ 15 एवं 24)। इस एक्ट का दुरुपयोग करते हुए बड़ी संख्या में केस विशेष रूप से शासकीय एवं अर्धशासकीय सेवकों के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वार्थवश फाइल किए गए हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो, मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर्स के डाटा (क्राइम इन इंडिया 2016- सांख्यिकी) के अनुसार वर्ष 2016 में SC केसेस में 5347 केस एवं ST के 912 केस झूठे पाए गए। वर्ष 2015 में 15638 में से 11024 केसेस में आरोप मुक्त कर दिए गए, 495 केस वापस ले लिए गए (पृष्ठ 30)। वर्ष 2015 में कोर्ट द्वारा निष्पादित केस में से 75 % से अधिक केस में या तो आरोप सिद्ध नहीं हुए या केस वापस ले लिए गए (पृष्ठ 33)। कोर्ट ने कहा कि सामाजिक न्याय के लिए बने इस एक्ट का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
इसे व्यक्तिगत शत्रुता के कारण बदला लेने या ब्लैकमेल करने का हथियार बनने नहीं देना चाहिए। (पृष्ट 25)। कानून निरपराध को बचाने एवं दोषी को दंड दिलाने के लिए है। अतः यदि प्रथम दृष्टया किसी ने अपराध नहीं किया है तो सिर्फ किसी के आरोप लगा देने मात्र से सेक्शन 18 के तहत अग्रिम ज़मानत न देना उचित नहीं है। इस तरह स्वतंत्रता के मूल संवैधानिक अधिकार का हनन होगा।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो शासकीय सेवकों का कार्य निष्पादन कठिन होगा। सामान्य नागरिक को भी इस एक्ट के तहत गलत केस में फंसा देने की धमकी देकर ब्लैकमेल किया जा सकता है। (पृष्ठ 67)। अंततः कोर्ट ने कहा की एट्रोसिटी एक्ट के केस में अग्रिम ज़मानत देने पर कोई रोक नहीं है अगर प्रथम दृष्टया केस दुर्भावनावश फ़ाइल किया गया हो।
निरपराध नागरिकों को गलत आरोपों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए डीएसपी द्वारा समयबद्ध प्राथमिक जांच की जानी चाहिए एवं केस रजिस्टर होने के बाद भी गिरफ़्तारी आवश्यक नहीं है। इस एक्ट के हो रहे दुरुपयोग के मद्देनज़र शासकीय सेवकों को बिना नियुक्तिकर्ता अधिकारी की अनुमति के गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। गैर शासकीय सेवकों के केस में जिले की वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट की अनुमति आवश्यक होगी। (पृष्ठ 86 87)।