राजौरी-पुंछ सेक्टरों से (जम्मू कश्मीर)। पाकिस्तानी गोलाबारी से जीना मुहाल हुआ है। अब जब दुआ के लिए हाथ उठते हैं तो वे सुख-चैन या अपने लिए व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं मांगते। अगर वे कुछ मांगते भी हैं तो उस पार से होने वाली गोलीबारी से राहत ही मांगते हैं, जिसने सीजफायर के बावजूद पिछले कई सालों से उनकी नींदें खराब कर रखी हैं और उन्हें घरों से बेघर कर दिया है।
1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद से सुख-चैन के दिन काटने वाले जम्मू कश्मीर सीमा के लाखों नागरिकों के लिए स्थिति अब यह है कि न उन्हें दिन का पता है और न ही रात की खबर है। कब पाक तोपें आग उगलने लगेंगी कोई नहीं जानता। जिंदगी थम सी गई है उनके लिए। सभी प्रकार के विकास कार्य रुक गए हैं। बच्चों का जीवन नष्ट होने लगा है क्योंकि जिस दिनचर्या में पढ़ाई-लिखाई कामकाज के बतौर शामिल था अब वह बदल गई है और उसमें शामिल हो गया है पाक गोलाबारी से बचाव का कार्य।
इतना ही नहीं पांच वक्त की नमाज अदा करने वालों की दुआएं भी बदल गई हैं। पहले जहां वे अपनी दुआओं में खुदा से कुछ मांगा करते थे, सुख-चैन और अपनी तरक्की मगर अब इन दुआओं में मांगा जा रहा है कि पाक गोलाबारी से राहत दे दी जाए जो बिना किसी उकसावे के तो है ही बिना घोषणा के जम्मू कश्मीर की सीमा पर युद्ध की परिस्थितियां बनाए हुए है।
इन सीमावर्ती गांवों की स्थिति यह है कि जहां कभी दिन में लोग कामकाज में लिप्त रहते थे और रात को चैन की नींद सोते थे अब वहीं दिन में पेट भरने के लिए अनाज की तलाश होती है तो रातभर आसमान ताका जाता है। आसमान में वे उन चमकने वाले गोलों की तलाश करते हैं जो पाक सेना तोप के गोले दागने से पूर्व इसलिए छोड़ती है क्योंकि वह टारगेटों को स्पष्ट देख लेना चाहती है।
ऐसा भी नहीं है कि 814 किमी लम्बी जम्मू कश्मीर की एलओसी से सटे क्षेत्रों में रहने वाले सीमावासी अपने घरों में रह रहे हों। वे जितना पाक गोलाबारी से घबरा कर खुले आसमान के नीचे मौत का शिकार होने को मजबूर हैं उतनी ही परेशानी उन्हें भारतीय पक्ष की जवाबी कार्रवाई से है। भारतीय पक्ष की जवाबी कार्रवाई से उन्हें परेशानी यह है कि जब वे बोफोर्स जैसी तोपों का इस्तेमाल करते हैं तो उनके मकानों में दरारें पड़ जाती हैं जो कभी कभी खतरनाक भी साबित होती हैं।
पाक तोपों का शिकार होने वालों के लिए सबसे बड़ी परेशानी यह है कि सरकार की ओर से उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं पहुंचाई जा रही है उस गोलाबारी से बचने के लिए जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद सबसे अधिक भयानक व खतरनाक है। वैसे प्रशासन की ओर से उन्हें राहत पहुंचाने के लम्बे-चौड़े दावे अवश्य किए जा रहे हैं मगर इन दावों की सच्चाई यह है कि खाने को अनाज नहीं बल्कि इन लोगों को पाकिस्तानी गोलियां व गोले अवश्य मिल रहे हैं।
स्थिति यह है कि ये हजारों लोग न घर के हैं और न ही घाट के। पाक तोपों के भय के कारण वे घरों में नहीं जा पाते तो मौसम उन्हें मजबूर करता है कि वे खतरा बन चुके घरों में लौट जाएं। आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति बन गई है इन लोगों के लिए जो खुदा से पाक गोलाबारी से राहत की दुआ और भीख तो मांग रहे हैं मगर वह उन्हें मिल नहीं पा रही है।
हालांकि सेना ने अपनी ओर से कुछ राहत पहुंचानी आरंभ की है इन हजारों लोगों को। लेकिन उसकी भी कुछ सीमाएं हैं। वह पहले से ही तिहरे मोर्चे पर जूझ रही है जिस कारण इनकी ओर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही है। उसके लिए मजबूरी यह है कि उसे भी सीमा पर अघोषित युद्ध से निपटना पड़ रहा है जिसका जवाब वह युद्ध के समान नहीं दे सकती है।