क्या है एक राष्ट्र, एक चुनाव और क्या यह भारत में संभव है?

Webdunia
बुधवार, 19 जून 2019 (00:18 IST)
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार की वापसी के बाद एक बार फिर भारत 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' (One Nation One Election) बहस छिड़ गई है। जहां समर्थक इसके फायदे गिना रहे हैं, वहीं विरोधियों का मानना है कि इससे नुकसान ही होगा। वर्ष 2003 में भी लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है। उस समय भी केन्द्र में भाजपा की ही सरकार थी। हालांकि विपक्ष के रुख देखते हुए नहीं लगता कि इस मसले पर सर्वसम्मति बन पाएगी।
 
क्या है एक देश, एक चुनाव : एक देश, एक चुनाव की नीति के तहत देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाए जाने का प्रस्ताव है। इसके तहत पूरे देश में 5 साल में एक बार ही चुनाव होगा। सरकार का इस संबंध में तर्क है इससे न सिर्फ समय की बचत होगी, बल्कि देश को बार-बार पड़ने वाले आर्थिक बोझ से भी मुक्ति मिलेगी। हालांकि पूरी बहस लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए हो रही है। नगरीय निकाय चुनावों के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा है। जहां तक धन की बात है तो आजकल छात्रसंघ चुनावों में भी लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। 
 
एक साथ चुनाव के फायदे : 
 
1. आर्थिक बचत : लोकसभा और विधानसभा चुनाव 5 साल में एक बार कराए जाने से सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा। एक जानकारी के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में 1100 करोड़ और 2014 के लोकसभा चुनाव में 4000 करोड़ रुपए खर्च हुआ था। 
 
2019 में भी प्रति मतदाता खर्च 72 रुपए बताया जा रहा है। इसके अतिरिक्त यदि उम्मीदवारों के खर्च की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 30 हजार करोड़ का खर्च हुआ था, जो 2019 में बढ़कर करीब 60 हजार करोड़ हो गया। 
 
2. सीमित आचार संहिता : एकसाथ चुनाव से दूसरा सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि राज्यों को बार-बार आचार संहिता का सामना नहीं करना पड़ेगा। इससे सरकारी कामकाज में भी रुकावट नहीं आएगी। बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के कामकाज भी प्रभावित होते हैं। ऐसे शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले नुकसान से भी मुक्ति मिलेगी। 
 
3. कालेधन के प्रवाह पर रोक : लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, इनमें कालेधन का उपयोग बड़ी मात्रा में होता है। यदि एकसाथ चुनाव होंगे तो निश्चित रूप से इस पर अंकुश लगेगा। देखने में भी आता है कि उम्मीदवार अपनी तय सीमा से काफी ज्यादा राशि खर्च करते हैं, हालांकि रिकॉर्ड नहीं होने से उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं हो पाती। 
 
4. बढ़ेगा सौहार्द : आमतौर पर चुनाव के दौरान देखा जाता है कि धर्म और जाति जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठाए जाते हैं। इस तरह के मुद्दों से होने वाला ध्रुवीकरण लोगों के बीच में दूरियां ही पैदा करता है। यदि चुनाव बार-बार नहीं होंगे तो इस तरह के मुद्दे भी बार-बार नहीं उठेंगे, इससे लोगों के बीच दूरियां कम होंगी। 
  
5. आम आदमी को परेशानी से मुक्ति : इसके साथ ही बार-बार चुनाव होने से चुनावी शोरशराबा, रैली, आमसभाएं, वीआईपी के आगमन के चलते आम आदमी को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है। इस तरह एक चुनाव के बाद उन्हें फिर से यह मुश्किल नहीं झेलनी पड़ेगी। चूंकि एक ही बार वोट डालना है, अत: मतदान के दौरान बाहर रहने वाले लोग भी वोटिंग के लिए अपने मूल स्थानों पर आ सकेंगे। 
 
क्या हो सकते हैं नुकसान : 
1. क्षेत्रीय पार्टियों पर संकट : यदि देश में एकसाथ चुनाव होते हैं सबसे बड़ा नुकसान क्षेत्रीय पार्टियों को होगा। जहां क्षेत्रीय पार्टियां सीमित संसाधनों के साथ चुनाव लड़ेंगी, वहीं राष्ट्रीय पार्टियों इस मामले में उनसे कई गुना आगे होंगी। ऐसे वे राष्ट्रीय पार्टियों का मुकाबला नहीं कर पाएंगी। 
 
2. खत्म हो जाएंगे क्षेत्रीय मुद्दे : जब लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव भी होंगे तो क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। चुनावी सभाओं में क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दों की चर्चा होगी। इसकी झलक 2019 के चुनाव देखने को मिली, जहां पाकिस्तान में एयर स्ट्राइक जैसा मुद्दा ही पूरे समय छाया रहा। उम्मीदवार इस चुनाव में गौण हो गए थे, पूरे समय मोदी की ही चर्चा रही। ऐसी भी आशंका है कि चुनाव मुद्दों पर न होकर व्यक्ति केन्द्रित हो सकते हैं। 
 
3. चुनाव परिणाम में देरी : एक आशंका यह भी जताई जा रही है कि एकसाथ चुनाव होने की स्थिति में चुनाव परिणाम विलंब से प्राप्त होंगे। मतगणना के दौरान सीमित सरकारी मशीनरी के चलते रिजल्ट देरी से मिलेंगे। इसके लिए सुरक्षा व्यवस्था भी चाक-चौबंद करनी होगी। 
पहले भी हुए हैं एकसाथ चुनाव : यदि 'एक देश, एक चुनाव' के फैसले को हरी झंडी मिलती है तो यह पहला मौका नहीं होगा जब भारत में ऐसा होगा। इससे पहले भी हिन्दुस्तान में कई बार एकसाथ चुनाव हो चुके हैं। इससे पहले 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं।
 
करना होगा संवैधानिक संशोधन : इस संबंध पूर्व निर्वाचन आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति का मानना है कि यह विचार आकर्षक है, लेकिन विधायिकाओं का कार्यकाल निर्धारित करने के लिए संविधान में संशोधन किए बगैर इसे अमल में नहीं लाया जा सकता है। उनका मानना है कि जब तक आप सदन के लिए कार्यकाल निर्धारित नहीं करेंगे, यह संभव नहीं है।
 
इस मसले पर लॉ कमीशन पहले ही कह चुका है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के आगामी चुनाव एक साथ कराए जाने के लिए नए ईवीएम और पेपर ट्रेल मशीनों को खरीदने के लिए 4500 करोड़ रुपए से अधिक की जरूरत होगी। 
 
मुश्किलें और भी हैं : मान भी लिया जाए कि एक साथ चुनाव शुरू करवा दिया जाए, जो कि चार चुनावों में पहले हो भी चुका है। लेकिन, क्षेत्रीय दलों के दौर में यह विचार दूर की कौड़ी ही दिखाई देता है। यदि एक साथ चुनाव करवाए जाने के बाद भी कुछ राज्यों में किसी भी दल को बहुमत मिलने की स्थिति नहीं बनती और वहां सरकार समय से पहले गिर जाती है तो ऐसी स्थिति में क्या होगा? क्या वहां शेष समय के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा या फिर अल्पमत सरकारों को ही शासन चलाने दिया जाएगा? ऐसा करने से पहले इस तरह के सवालों का जवाब भी ढूंढना होगा। 
 
विपक्ष के ज्यादातर नेता इस विचार को ही संविधान की मूल भावना के खिलाफ मानते हैं। एनडीए में सहयोगी जेडीयू का कहना है कि वह एक देश, एक चुनाव के पक्ष में है, लेकिन ऐसा करना आसान नहीं होगा। 
 
इसी साल इंडोनेशिया में हुए साथ-साथ चुनाव : वर्ष 2019 में इंडोनेशिया में भी राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके लिए 17 हजार द्वीपों पर 8 लाख से ज्यादा पोलिंग स्टेशन बनाए गए थे।

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