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Ground Report : अबकी बार बंगाल में मोदी बनाम ममता की लड़ाई

कोलकाता से मीडिया प्राध्यापक डॉ. ललित कुमार की स्पेशल रिपोर्ट

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डॉ. ललित कुमार

, बुधवार, 3 मार्च 2021 (14:15 IST)
चुनाव आयोग की ओर से पश्चिमी बंगाल में चुनाव की तारीखों के एलान के साथ सियासी रणभेरी बज चुकी है। बंगाल विधानसभा चुनाव इस बार देखने लायक होगा, क्योंकि इस चुनाव के लिए सियासी ज़मीन बहुत पहले से ही तैयार की जा चुकी है। जीत की दावेदारी तो सभी करते है, लेकिन असली विजेता वहीं होता है, जो अपने दम पर जीत हासिल करे। इसमें कोई शक नहीं कि बंगाल का चुनाव इस बार सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच होने जा रहा है। 
 
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बंगाल की 42 सीटों में से 18 सीटें जीतकर अपनी ताकत को यहां और मजबूत किया है। बीजेपी के पास इस वक़्त ऐसा सुनहरा अवसर है, जिसे वह किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहेगी, क्योंकि बिहार चुनाव जीतने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। बिहार और झारखंड से सटा हुआ होने के कारण पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को इसका सीधा लाभ हो सकता है। यही वजह है कि बंगाल के इस चुनावी दंगल में ‘मोदी बनाम ममता’ के तौर पर दोनों मुख्य पार्टी मैदान में अपनी ताकत दिखाना चाहती हैं। चुनाव की तारीखों के एलान के बाद अब पीएम मोदी बंगाल में 20 चुनावी सभा करने जा रहे है।   
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कांग्रेस और माकपा के लिए यह चुनाव एक वैक्यूम पैदा कर सकता है, क्योंकि कांग्रेस और माकपा का राजनैतिक जनाधार या तो अब लगभग खत्म हो चुका है या फिर राजनीतिक ज़मीन दोनों के ही हाथों से दूर होती जा रही है। बीजेपी और टीएमसी की टकराहट के बीच कांग्रेस और वामपंथी कुनबे में आत्मविश्वास का संकट गहराया हुआ है। 
 
बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीधी टक्कर उस ममता बनर्जी से जिन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत महज 21 साल में की थी और राजनीति में तमाम मुकाम अपने दम पर हासिल किए। ममता बनर्जी ने वर्ष 1976 में महिला कांग्रेस महासचिव के पद से पहली बार सक्रिय राजनीति में कदम रखा। वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर अपनी संसदीय पारी की शुरुआत की। 
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ममता ने अपने राजनीतिक जीवन का एक बड़ा अहम फैसला तब लिया, जब उन्होंने कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने के कई बड़े गंभीर आरोप लगाए और अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन 01 जनवरी 1998 को किया। इस पार्टी ने राज्य में एक मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर कांग्रेस और माकपा के खेमे में खलबली मचा दी थीं। 
ममता का सियासी सफरनामा वर्ष 2011 में जाकर तब सफल हुआ, जब उन्होंने राज्य में पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार बनाई। साथ ही मात्र 13 सालों में ममता ने 34 वर्षों के माकपा शासन को उखाड़ फेंका। यही से ममता का दबदबा राज्य में लगातार बढ़ता चला गया और देखते ही देखते ममता बनर्जी को राज्य में एक ‘आयरन लेडी’ के तौर पर देखा जाने लगा। 
 
पिछले 10 सालों से बंगाल की सत्ता पर काबिज ‘आयरन लेडी’ का टॉप आर्डर लगातार बिखरता जा रहा है। सबसे पहले टीएमसी के कद्दावर नेता रहे मुकुल राय का बीजेपी में शामिल होना और उसके बाद परिवहन मंत्री शुभेंदु अधिकारी का टीएमसी छोड़कर बीजेपी में जाना, ममता की परेशानी को और बढ़ा सकता है। हाल ही में पिछले महीने लक्ष्मी रतन शुक्ला (खेल मंत्री), राजीव बनर्जी (वन एवं सिचाई मंत्री), वैशाली डालमिया (विधायक), प्रबीर घोषाल (विधायक), पार्थसारथी चटर्जी (पूर्व विधायक) और रथीन चक्रवर्ती (पूर्व मेयर) ने टीएमसी से इस्तीफा देकर बीजेपी का दामन थाम लिया है।
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इसी तरह ममता के ज्यादातर कद्दावर नेता अब एक के बाद एक बीजेपी में शामिल होते जा रहे है। इसलिए ममता का कुनबा अब लगातार सिकुड़ता चला जा रहा है, यानी जो हश्र कभी बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का हुआ, वहीं हश्र अब तृणमूल कांग्रेस पार्टी का होता दिख रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी का पार्टी में बढ़ता एकाधिकार और उसकी मनमानी की वजह से नेताओं में अंदरखाने टीएमसी के प्रति भारी नाराजगी है।    
 
दूसरी ओर बंगाल में पहली बार भगवा झंडा लहराने के लिए हिंदुत्व से लेकर बांग्ला अस्मिता को जो दांव बीजेपी खेल रही है। अगर वह उसमें सफल होती है तो बंगाल का परिदृश्य कुछ और होगा, यानी आरआरएस चाहता है कि पूर्वी भारत के ज्यादातर राज्यों में उसका दबदबा बना रहे। इसलिए बीजेपी बंगाल पर ज्यादा से ज्यादा दमखम भरने की कोशिश में लगी है। इसलिए बीजेपी NRC, CAA और NPR को आधार बनाकर चुनावी मैदान में उतरी है। बीजेपी को इन तीन कानूनों का फ़ायदा बंगाल में कितना मिलेगा, यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा। लेकिन बंगाल के जो हालात वर्तमान में हैं, बीजेपी उससे काफी उत्साहित होती हुई दिख रही है। 
बंगाल में बीजेपी पूरी तैयारी के साथ अपने सभी कैबिनेट मंत्रियों और बीजेपी शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्रियों एवं उपमुख्यमंत्रियों को चुनावी अभियान में उतार चुकी है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह का लगातार होता बंगाल दौरा बीजेपी के लिए एक अच्छे संकेत हैं। इन दोनों नेताओं के चुनावी अभियान के कारण बीजेपी बंगाल में एक मजबूत स्थिति में आती हुई दिख रही है। अमित शाह ने जब बोलपुर शांतिनिकेतन में जाकर रोड शो किया था, तभी वाम और टीएमसी के कई नेता बीजेपी में शामिल हुए। अगर देखा जाए तो वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता की लहर जब राज्य में बन रही थी, तब इसी प्रकार वामदल के ज्यादातर नेता टीएमसी में आकर शामिल हो रहे थे।
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बंगाल विधानसभा चुनाव के सियासी परिदृश्य पर हावड़ा पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. आनंद पांडेय का मानना है कि 80 के दशक में जिस तरीके का माकपा का रवैया हिंसात्मक था, ठीक उसी की तर्ज पर टीएमसी भी हिंसात्मक रूख अपनाई हुई है। वे आगे बताते हैं कि ममता बनर्जी अपने शासनकाल में कभी भी विरोधी दलों को जगह नहीं देती है,यानी वर्ष 2013 के हावड़ा कॉर्पोरेशन के चुनाव में टीएमसी को 50 सीटों में से 43 सीट, माकपा-2 सीट, बीजेपी-2 सीट और 3 सीट कांग्रेस के खाते में गई, यानी टीएमसी पार्टी का राजनीतिक एजेंडा माकपा से एकदम भिन्न रहा है।
 
माकपा के राज में जब भी किसी नेता की हत्या होती थी तो वह अख़बारों में बड़ी सुर्खियों के साथ छपती थी, कारण विरोधी पार्टी को कहने का मौका देना, ताकि वह उसे मुद्दा बना सकें, लेकिन वहीं ममता बनर्जी के राज में अगर कोई बड़ी घटना होती है, तो वह अखबारों की सुर्खियां ही नहीं बनती, कारण विपक्ष को कभी भी कहने का मौका ही नहीं देना। 
 
ममता की यही सोच एक तानाशाही रवैया की ओर संकेत करती है। इसलिए मीडिया ममता के शासन पर हमेशा से तमाम तरह के सवाल खड़े करते रहा है। वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में राज्य का विपक्ष इतना कमजोर रहा कि ममता बनर्जी वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर फिर से सत्ता में आईं। लेकिन ममता को इस बार कांग्रेस और माकपा से चुनौती नहीं अपितु चार सीटें जीतकर बंगाल में अपनी सियासी ज़मीन तैयार करने वाली भारतीय जनता पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टियों को किनारे लगाकर, पिछले 5 सालों से ममता को सीधे तौर पर चुनौती देती हुई दिख रही है। इसलिए टीएमसी अपनी साख बचाने के लिए ऐड़ी से चोटी का जोर लगाए हुए है। 
 

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