नई दिल्ली, दूध अपने पौष्टिक गुणों के कारण दैनिक जीवन के उपभोग से जुड़ा एक अहम उत्पाद माना जाता है। इसीलिए, दूध की शुद्धता एवं प्रामाणिकता सुनिश्चित करने और दूध को खराब होने से बचाने के लिए इसमें होने वाली मिलावट को रोका जाना जरूरी है।
एक नये अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने दूध की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए उसमें पाये जाने वाले घटक राइबोफ्लेविन पर आधारित एक नई पद्धति विकसित की है।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक आंतरिक बायोमार्कर के रूप में दूध के घटक राइबोफ्लेविन के माध्यम से इसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत और विश्वसनीय ऑप्टिकल विधि प्रस्तुत की है।
उल्लेखनीय है कि राइबोफ्लेविन कई खाद्य मैट्रिक्स में व्यापक रूप से पाया जाने वाला घटक है।
दूध में राइबोफ्लेविन फ्लोरोसेंस ऑप्टिकल बायोमार्कर प्रोटीन से भरपूर होता है और इसमें राइबोफ्लेविन या विटामिन बी-12 होता है। राइबोफ्लेविन विभिन्न प्रोटीनों से बंध सकता है और इसमें फ्लोरोसेंट गुण होते हैं।
दूध की संरचना में कोई भी परिवर्तन राइबोफ्लेविन के बाध्यकारी गुणों को बदल सकता है। इन परिवर्तनों का अनुमान प्रतिदीप्ति स्पेक्ट्रोस्कोपी का उपयोग करके लगाया जा सकता है।
यह अध्ययन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), इंदौर के शोधकर्ताओं गौरव पांडे और अभिजीत जोशी द्वारा किया गया है। उन्होंने अपने अध्ययन में दूध की गुणवत्ता का आकलन करने के लिए आंतरिक बायोमार्कर के रूप में इसके गुणों का उपयोग किया है।
शोधकर्ताओं ने संस्थान के पास डेयरी फार्मों से दूध के नमूने एकत्र किए और नमूनों की शुद्धता की पुष्टि की है। संग्रहीत नमूनों की स्थिरता की जाँच करने पर कमरे के तापमान पर नमूनों के पीएच में गिरावट दर्ज की गई , और इस दौरान दूध में पाये जाने वाले प्रोटीन अवक्षेपित होकर बर्तन की तली में बैठ जाते हैं। प्रोटीन से बंधा राइबोफ्लेविन भी परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार, पीएच और राइबोफ्लेविन दोनों दूध के खराब होने के उपयोगी संकेतक के रूप में उभरे हैं।
फ्लोरोसेंस स्पेक्ट्रोस्कोपी में अवशोषण में अंतर इस बात की पुष्टि करता है कि प्राकृतिक रूप से दूध के खराब होने और मिलावट वास्तव में दूध में आंतरिक राइबोफ्लेविन घटकों को प्रभावित करते हैं। अभिजीत जोशी कहते हैं, “हमें रीयल-टाइम सेंसिंग की अवधारणा को लागू करने के लिए अब एक पोर्टेबल और संवेदनशील फ्लोरोसेंस स्पेक्ट्रोमीटर की आवश्यकता है।
दूध की गुणवत्ता की निगरानी के लिए ऑप्टिकल बायोमार्कर के रूप में राइबोफ्लेविन का उपयोग करना अपेक्षाकृत सरल, त्वरित और लागत प्रभावी है। इसे प्रसंस्करण संयंत्रों या परीक्षण प्रयोगशालाओं में एकीकृत किया जा सकता है।”
शोधकर्ताओं ने अलग-अलग मात्रा में यूरिया, जिसकी आमतौर पर दूध में मिलावट की जाती है, से युक्त दूध के नमूनों का परीक्षण किया है। उन्होंने पाया कि दूध में यूरिया की सांद्रता के साथ राइबोफ्लेविन की विशेषताएं बदल जाती हैं।
उनका कहना है कि इस प्रकार, यूरिया संदूषण का उच्च सीमा एवं अधिक संवेदनशीलता स्तर के साथ का पता लगाया जा सकता है। शोधकर्ता दूध में यूरिया संदूषण के स्वीकार्य स्तर का 10 गुना तक अनुमान लगाने में सक्षम थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका फूड केमिस्ट्री में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)