The Midwife’s Confession के जरिए सामने आया बिहार में नवजात बच्चियों की हत्या का घिनौना सच

गरिमा मुद्‍गल
दाई सीरो देवी के साथ मोनिका


भारत में लिंगभेद का मसला और समाज के कई हिस्‍सों में बेटियों की निर्मम हत्‍याएं। एक तरफ बेटी पढ़ाओ और बेटी बचाओं का राजनीतिक और सामाजिक शोर तो दूसरी तरफ इसी देश के कई हिस्‍सों में रात के स्‍याह अंधेरे में बेहद बेदर्दी के साथ नवजात बच्‍चियों की गला घोंटकर तो कभी नदी नालों में फेंककर की गई हत्‍याएं। इस निर्ममता का यह दस्‍तावेज हमारी और आपकी सब की आंखें न सिर्फ खोल देगा, बल्‍कि रूह भी कंपा देगा।

भारतीय समाज नवजात बच्चियों के लिए कितना क्रूर हो सकता है, ये सच्चाई सामने लाने के लिए BBC के पत्रकार अमिताभ पाराशर की गहन पड़ताल और सब्र की दाद देनी होगी। लगभग 30 सालों तक एक बहुत ज़रूरी मुद्दे का पीछा कर उन्होंने गुज़रे वक़्त के हलक में हाथ डाल वो सच उगलवा लिया जो सुनने में तो नितांत शर्मनाक है लेकिन जिससे जानना और सुनना बेहद ज़रूरी है।

BBC Eye Investigation की एक पड़ताल, The Midwife’s Confession के माध्यम से वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पाराशर ने नवजात बच्चियों की हत्या का वो घिनौना सच समाज के सामने उजागर किया है जो इस दुनिया की स्याह हकीकत है।

बीबीसी आई इन्वेस्टिगेशन की एक नई डॉक्यूमेंट्री ग्रामीण भारत में कन्या भ्रूण हत्या की वीभत्‍स हकीकत को सामने लाती है और बताती है अनिला कुमारी की बेमिसाल कहानी, जिन्होंने न सिर्फ नवजात बच्चियों की जिंदगी बचाने के लिए बेहद अहम अभियान चलाया, बल्‍कि उन बच्‍चियों को सुरक्षित जिंदगी भी मुहैया कराई।
ये कहानी शुरू होती है तकरीबन 30 साल पहले, जब अमिताभ पाराशर नाम के एक युवा पत्रकार बिहार में अपने जिले में एक वीडियो कैमरा लेकर निकल पड़े। उन्होंने कन्या भ्रूण हत्या के बारे में कुछ अफवाहें सुन रखी थीं। वे जानना चाहते थे कि अगर यह सच है तो क्या भारत में 1990 के दशक में भी नवजात बच्चियों को जन्म के बाद बेरहमी से मारा जा रहा था?

इसी BBC की डॉक्यूमेंट्री को आधार बना कर वेबदुनिया ने अमिताभ पाराशर से लंबी बातचीत कर इस मुद्दे को अपने पाठकों तक पहुंचाया है। पढिए इस बेहद अहम मुद्दे पर बातचीत के कुछ अंश।

BBC इंडिया पर मैंने आपकी इन्वेस्टिगेशन देखी। इसे देखकर मैं बहुत घबरा भी गई थी क्योंकि ये वाकई डरा देने वाला सच है। सबसे पहले मुझे बताइए कि नवजात बच्चियों की हत्या के विषय में पड़ताल का विचार मन में कैसे आया?

अमिताभ: मैं बताना चाहूंगा कि मैं बिहार से हूं और उसी इलाके का हूं जहां की मेरी यह स्टोरी है। करीब 1995 की बात है जब मैं जर्नलिज्म में बिलकुल नया-नया आया था। मैं इंडियन एक्सप्रेस समूह की एक साप्ताहिक में काम कर रहा था। वहाँ मैंने एक स्थानीय अखबार में एक छोटी सी खबर पढ़ी। सिंगल कॉलम की यह खबर बता रही थी कि कटिहार में एक पिता ने अपने छोटी सी बच्ची को गला दबा कर मार डाला। यह बिहार में नवजात बच्चियों की हत्या का पहला रिपोर्टेड केस था।

ये खबर पढ़ने के बाद मेरी इच्छा थी कि मैं उस माँ से मिलूं। जिसने यह कृत्य किया था, वो अरेस्ट हो चुका था और जेल में था। इस दौरान मैं पूर्णिया में था और वो कटिहार की घटना थी। जब मैं वहां उस महिला से मिलने पहुंचा तो लोगों ने उसे पहले से घेरा हुआ था और वो बहुत बुरी हालत में थी। मुझ से उससे बात नहीं हो पाई। लेकिन वहां पर एक दंपति अनिला जी और नवीन जी से मेरी मुलाकात हुई। वे दोनों बाल महिला कल्याण नाम से एक एनजीओ चलाते थे और उस औरत की कानूनी मदद के लिए आए थे।

बातचीत के बाद उन्‍होंने मुझे अपने साथ चलने के लिए कहा। इस दौरान उन्होंने मुझे बताया कि हम इस विषय पर लम्बे वक्‍त से काम कर रहे हैं। मैंने उन्‍हें इस बारे में खंगाला तो उन्होंने बताया कि देखिए यहां पर हम कुछ ऐसी दाईयों के संपर्क में हैं, जो जन्म के बाद से ही कई साल से बच्चियों की हत्याओं को अंजाम दे रही हैं। हम उनके संपर्क में हैं और हम उनको सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। जब मैंने अनीला जी की बात सुनी तो मैं बता नहीं सकता कि मुझे कैसा महसूस हुआ। मैं उनके बताए हर तथ्‍य पर हैरान था।
इस पर यकीन करना मुश्‍किल था। अनिला जी के पति जो उस वक्त बैंक में थे, उनकी मदद करते थे। उन्होंने अगले दिन उन कुछ दाइयों से मिलवाया।

सालों बाद मोनिका से मिल कर अनिला ने उन्हें गले लगा लिया


जब आप दाइयों से मिलने गए तो क्या वे आपसे मिलने और बात करने के लिए आसानी से तैयार हो गईं?
अमिताभ: जब मैं उन दाइयों से मिला तब तक अनिला जी ने उनका भरोसा जीत लिया था और वे अपने अपराध के बारे में कन्फेस कर रही थीं। दाइयां अनिला जी से खुलकर बात कर रही थीं।

दाइयों ने क्या बताया आपको?
अमिताभ: मुझे उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने नवजात बच्चियों की हत्याओं को अंजाम दिया। नन्‍हीं जिंदगियों की ऐसी दर्दनाक मौत की कहानियां सुनकर मैं बहुत शॉक्ड था। देखिए एक पत्रकार होने के नाते मेरे लिए ज़्यादा आसान था कि मैं एक बड़ी सी स्टोरी करता जो अखबार में अगले दिन छपती और मैं कुछ समय के लिए खुश हो लेता। हालांकि ठीक इसी वक्‍त मेरे जेहन में आया कि क्‍यों न इसका टेलीविजन डॉक्यूमेंटेशन किया जाए। इसके बाद मैं दिल्ली लौट आया।

मेरी नई नौकरी लगी थी। मेरी तनख्वाह बहुत कम थी। मेरी शादी भी नहीं हुई थी। लेकिन मैंने पैसों का जुगाड़ किया और करीब छह-सात महीने बाद मैं दोबारा वहां गया। मैं फिर से इस स्‍टोरी पर काम और उनसे बातचीत शुरू की तो यह सब उतना आसान नहीं था क्‍योंकि मीडिया के कैमरा और अन्‍य उपकरण देख वे पूरी तरह से हिचकिचा रहे थे। काफी मशक्‍कत के बाद वे मुझसे बात करने के लिए तैयार हुईं।

जिन दाइयों से आपने बात की, वे बिहार के शहरी क्षेत्र की हैं या ग्रामीण क्षेत्रों की?
अमिताभ: देखिये, इतने सालों में शहर और गांव का, सबका स्वरूप बदल गया। जैसे हमारे दिल्ली शहर के आसपास गांव होते हैं ठीक वैसे ही वो कटिहार शहर के पास एक मोहल्ला है। हालांकि वो गांव जैसा ही है और कटिहार शहर से बिल्कुल नजदीक भी।

 
1990 के दशक में दाइयों से किए गए अपने इंटरव्यूज देखते हुए अमिताभ


जब आपने दाइयों से बच्चियों की हत्‍याओं की बात की तो क्‍या उन्होंने इस अपराध को कबूला?
अमिताभ: नहीं। उस वक्‍त दरअसल, बड़ा सा कैमरा होता था। जब मैंने कैमरा निकाला तो वो सब बिल्कुल घबरा गईं। मुझे याद है रानी पहली दाई थी, जिसे मैंने इंटरव्यू किया था। वो बहुत घबरा गई थी और उसने कहा कि नहीं, हम यह सब बात नहीं कर सकते। इन दाईयों में सबसे दमदार और सीनियर थीं हकिया। मैंने उनसे साफ कहा कि देखिए, मैं आपसे बात करने आया हूं, हालांकि मैं जबरदस्ती तो आपसे कुछ करवा नहीं सकता, लेकिन आप इतना समझिए कि मैं दिल्ली से यहां सिर्फ इसलिए आया हूं कि आपसे बात कर सकूं, बावजूद इसके कि मैं बहुत धन खर्च कर चुका हूं और मेरी तनख्वाह भी कोई बहुत ज्यादा नहीं है। अगर आपने इस पूरे मामले में मेरी मदद नहीं कि मेरा नुकसान होगा। हकिया को मेरी यह बात समझ में आई। वो बात करने के लिए तैयार हुईं तो बाकी दाइयों ने भी हिम्मत दिखाई।

क्या दाइयों ने बताया कि जिन नवजात बच्चियों की उन्होंने हत्या की, वे किस परिवार से थीं?
अमिताभ: उन्होंने जिन जातियों का नाम लिया है, वे ऊंची जातियां हैं। अगर हम भारत में इन्फेन्टीसाइट की हिस्ट्री देखें तो वह भी ऊंची जातियों से ही शुरू हुई। अगर इन दाइयों के बारे में बात करें तो ये सभी तथाकथित निचली जातियों से आती थीं।

जब परिवार की तरफ से बच्ची को मारने के लिए कहा जाता था तो क्या ऐसा करना दाइयों के लिए बहुत सामान्य बात थी? मतलब वे बच्ची को मारने के लिए सहज थीं?
अमिताभ: इसको ऐसे समझने की जरूरत है कि दाइयों का पेशा एक खानदानी पेशा होता है। मतलब किसी एक परिवार की एक दाई होती है जो उस परिवार की महिलाओं की पीड़ियों से डिलीवरी का काम करती आ रहीं है। ऐसे में उन पर एक दबाव होता था कि यदि हमारा कोई क्लाइंट हमसे यह चाहता है तो हम कैसे मना करें। हम मना करेंगे तो हमें इस परिवार से आगे काम नहीं मिलेगा। दूसरी बड़ी वजह थी लालच। जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय होती थी, वे यह काम सहज करती थीं। एक दाई को उस समय डिलीवरी के एवज में 50-100 रुपये, एक साड़ी और अनाज मिला करता था। अगर उन्हें लालच दिया जाए कि बच्ची को मारने के लिए हम तुम्हें 1000 रुपये देंगे तो उनके लिए ये बड़ी बात होता था।

क्या दाइयों ने आपको कभी यह बताया कि बच्ची को मारने का फैसला पूरे परिवार का होता था या घर के किसी एक सदस्य का?
अमिताभ: देखिए, दाइयों ने जिस तरह बताया उससे पता चलता है कि ये निर्णय दादा या दादी का और कई बार पिता का होता था। लेकिन उन्होंने साफतौर पर बताया कि बच्ची की मां कभी अपनी संतान को मारने के लिए नहीं कहती थी। लेकिन वह मजबूर होती थी और उसके पास मना करने की कोई सामर्थ्‍य नहीं होता था। ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण हालत में बच्ची की मां के पास रोने बिलखने के अलावा कोई चारा नहीं होता था।

किसी गांव में कोई गर्भवती होकर बच्‍चे को जन्‍म देती है तो आमतौर पर लोगों को यह जानकारी होती है, ऐसे में डिलीवरी के बाद अचानक जब बच्ची गायब होने पर क्‍या कोई सवाल नहीं करता था कि बच्ची कहां गई?
अमिताभ: आपने बिल्कुल सही सवाल किया। कुछ ऐसी बातें हैं जो समय के अभाव की वजह से हम फिल्म में शामिल नहीं कर पाए। लेकिन यह बिल्कुल सच है कि अगर कोई महिला गर्भवती है तो आसपास के लोगों को पता होता है। ऐसे में बच्ची के जन्म के बाद अचानक बच्ची को गायब होने पर आसपास के लोग जब सवाल करते हैं तो वहां एक प्रचलित कहानी है कि चौड़ा-चिड़िया ने बच्ची को मार दिया। चौड़ा-चिड़िया का मतलब ही यह है कि बच्ची को मार दिया गया। इस तरह से इस पूरे कुकृत्य में समाज की एक तरह से यह मौन स्‍वीकृति ही होती थी। सबको पता होता था कि क्‍या हुआ है।

क्या आपने कभी दाइयों से बच्चियों को मारने की वजह पूछी
अमिताभ: यह बात हमने फिल्म में भी बताई है। दाइयों के हिसाब से बच्चियों को मार देने के पीछे की सबसे बड़ी वजह दहेज थी। अब विडंबना देखिए कि कोई दाई अपने निजी जीवन में अपनी बच्चियों के लिए एक ममतामई मां है और जो धन वह इकट्ठा कर रही है वह अपनी बच्चियों की शादी या उनके दहेज के लिए कर रही है। यह पैसा कहां से आता है? यह पैसा आता है उन बच्चियों की हत्या से जो दहेज की आशंका के चलते मार दी गईं हैं। ये कैसी विडंबना है!

हालांकि यह सवाल ही बहुत दर्दनाक है, लेकिन क्या कभी उन्होंने बताया कि वे बच्चियों की हत्या कैसे करती थीं?
अमिताभ: यह बहुत डरा देने वाला सवाल है। जब मैंने हाल ही में एक बार फिर यह सवाल उनसे किया तो उनका जवाब सुनकर मेरा दिल दहल उठा कि कैसे कोई महिला जो खुद एक मां है, किसी बच्ची की हत्या कर सकती है! दाइयों ने बताया कि कभी वे बच्ची की गर्दन मरोड़ कर तो कभी उसे यूरिया खाद चटाकर मार डालती थीं और फिर रात के अँधेरे में उन्हें जंगल में गाड़ देतीं थीं या नदी में फेंक देती थीं।

आपके अनुमान से हर साल कितने बच्चियों की हत्या हो रही थी?
अमिताभ: देखिए, वैसे कोई अधिकारिक आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन कटिहार जिला में लगभग 35 दाइयां ऐसी थीं जो हर महीने 2 से 3 बच्चियों को मार रही थीं। आप समझ सकते हैं कि यह कितनी बड़ी त्रासदी होगी, यह नंबर्स बता रहे हैं। इन लोगों ने यह स्टडी बिहार सरकार को सबमिट भी की थी, लेकिन सरकार ने उसे ना तो खारिज किया, ना ही स्वीकारा और ना ही उस पर कोई टिप्पणी की। सोचिए, बिहार में उस समय लगभग 5 लाख दाइयां थीं। यह हैरान करने वाली संख्‍या है, अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी बड़ी तादात में नवजात बच्चियों की हत्याएं हो रही थीं।

क्या कभी किसी दाई ने यह कहा कि मासूम नवजात बच्चियों को मारने के बाद में उन्हें पछतावा हुआ?
अमिताभ: मैंने दो दाइयों को बहुत लंबे समय तक फॉलो किया। एक सीरो और एक रानी। रानी की दो बेटियां असमय मर गईं। उसका एक बेटा भी बहुत कम उम्र में चल बसा। रानी को लगता था कि उसके जीवन की दुर्दशा के पीछे यही कारण है कि उसने नवजात बच्चियों की हत्या की थी। एक जगह फिल्म में हमने दिखाया है कि सीरो नाम की एक दाई ने जब पहली बार एक बच्ची की हत्या की तो कैसे वह अगले 15 दिन तक ठीक से खाना नहीं खा पाई थी और रात में उसे सपने में बच्ची के चिल्लाने की आवाज़ें आती थीं।

एक बहुत जरूरी नाम जो इस इन्वेस्टिगेशन में आता है, अनिला कुमारी का। इनके बारे में कुछ बताइए।
अमिताभ: जब मैं दाइयों से मिला तब तक उनके भीतर एक तरह का बदलाव आने लगा था। अनिला जी उनके संपर्क में थी और उन्हें पूछती थीं कि क्या तुम अपनी बेटियों को भी ठीक इसी तरह मार सकती हो? चूंकि बच्चियों को मारने के पीछे एक बड़ी वजह रुपयों का लालच था, इसलिए अनिला ने उनके लिए वैकल्पिक आय के स्रोत भी ढूंढे और उन्‍हें इस बारे में बताया। जब मेरी मुलाकात अनिला से हुई तो वह बाल महिला कल्याण नाम का एक एनजीओ चलाती थीं। वे सेल्फ हेल्प ग्रूमिंग के काम भी करती थीं। जब उन्होंने इन महिलाओं से बातचीत की तो इनमें से कुछ दाइयां उनके बहुत करीब हो गईं और उन्होंने एक तरह से यह कन्फेस करना शुरू कर दिया कि वे क्‍या करती रही हैं।

जैसा कि फिल्म में दिखाया है कि अनिला जी ने दाइयों को बच्चियों को मारने के बजाए उनके पास लाने के लिए कहा, तो क्या यह दाइयों के लिए आसान था?
अमिताभ: नहीं, यह बिल्‍कुल भी आसान काम नहीं था और ना ही यह एक दिन में हुआ। लेकिन अनिला के सहयोग से दाइयों के हृदय परिवर्तन होने शुरू हुए। हमने फिल्म में एक दाई भागो देवी का जिक्र भी किया है। वह उस इलाके की बहुत पुरानी और सीनियर दाई थी। उसने कई नवजात बच्चियों की हत्या की थी। लेकिन जब उसे अपने इस अपराध का बोध हुआ तो उसी ने सबसे ज्यादा बच्चियों को बचाया भी।

अब यह पूरी डॉक्युमेंट्री ऑनलाइन है और लोग देख भी रहे हैं, कैसी प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं?
अमिताभ: अगर आप उस डॉक्युमेंट्री पर लोगों के कॉमेंट्स देखेंगे तो कई महिलाओं के ऐसे कॉमेंट्स मिलेंगे जिनका कहना है कि यह उन्‍हीं की कहानी है और उनकी बच्चियों के साथ भी ऐसा ही हुआ था। मेरे पास एक बहुत उम्र दराज महिला का फोन आया और उसने रोते हुए मुझसे कहा कि उसके साथ भी यह सब हो चुका है। इस फिल्म को देखकर लोग इसका दर्द महसूस कर पा रहे हैं।


जिन बच्चियों की जान अनिला जी ने बचाईं उनका पालन पोषण कैसे किया जाता था?
अमिताभ: अनिला जी के पास बच्चियों का पालन पोषण करने की व्यवस्था नहीं थी। उस समय पटना का एक बड़ा NGO जिसका नाम अदिति था, वहां बच्चियों को भेज दिया जाता था। उनका कुछ एडॉप्शन एजेंसी से संपर्क था।

मोनिका अपने पिता के साथ जिन्होंने उन्हें तीन साल की उम्र में गोद लिया था


क्या आपका ऐसी किसी बच्‍ची से संपर्क हो सका, जिसे दाइयों ने बचाया हो और अब वह क्या कर रही है?
अमिताभ: बीबीसी की टीम के माध्यम से हमने काफी मेहनत कर के एक बच्ची का पता लगाया जो बिहार में ही अडॉप्ट की गई थी। लेकिन क्योंकि उसे यह बताया नहीं गया था कि वह गोद ली गई है, हमने उससे संपर्क नहीं किया। इसके अलावा मेधा शंकर जो पटना के एनजीओ में पहले काम किया करती थीं उनकी मदद से हम मोनिका नामक एक लड़की से मिल पाए। जिन्हें आप फ़िल्म में भी देख सकते हैं।

लंबे समय तक आप इस मुहिम का हिस्सा रहे और यह सब देखा, व्यक्तिगत तौर पर इन घटनाओं ने आप पर क्या असर डाला?
अमिताभ: मैं जिस समाज से आता हूं वहां मैंने लड़के और लड़की के बीच भेदभाव के सारे डाइमेंशन देखे हैं। बिहार में दहेज, दहेज की वजह से हत्या, पकड़वा शादी यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने होता रहा है। लेकिन कटिहार की घटना मेरे लिए एक ट्रिगर प्वाइंट बनी।

यहां मैं ईमानदारी से बताना चाहूंगा कि पत्रकार के तौर पर मेरे अंदर उस समय प्रसिद्ध होने की भूख भी थी, क्योंकि मेरे पास यह एक एक्सक्लूसिव रिपॉर्ट थी। हालांकि उस समय मेरे अंदर इतनी मैच्योरिटी नहीं थी कि मैं इस विषय की गहराई को समझ सकूं।

हालांकि उस समय इस रिपोर्ट का कुछ हो नहीं सका, लेकिन मेरी पत्नी मुझे सपोर्ट करती रही। वह इसे लेकर मेरा फ्रस्ट्रेशन देख रही थी। मैं जानता था कि यह एक बड़ी स्टोरी है। जब 2007 में मेरे पास एक अच्छी और स्थाई नौकरी आई तो मैं फिर वहां शूट करने के लिए पहुंचा। इस दौरान मैं सभी दाइयों से लगातार संपर्क में रहा। इसी दौरान मैं उन दाइयों के चरित्र के दूसरे पहलुओं को भी देख सका और मुझे महसूस हुआ कि बावजूद इन सबके उनके अंदर भी एक ममतामयी मां है। जब मैं अकेले में उनके हाथ देखता था तो यह सोचता कि क्या इन्हीं हाथों से ये नवजात बच्चियों की हत्या करती होंगीं।

आपने जिस मुद्दे पर काम किया उसे लेकर समाज कभी नहीं चाहेगा कि यह काला सच भी सामने आए, ऐसे में क्‍या कभी आपको कोई खतरा महसूस हुआ?
अमिताभ: हमारे समाज में लोग किस तरह से प्रतिक्रिया देंगे आप उनके चेहरे से पता नहीं लगा सकते। यह सच है कि मुश्किलें बहुत बार आईं। लेकिन मैं जानता था कि इस रास्ते पर खतरे आएंगे।

बच्चियों की हत्या के पीछे जो सबसे बडी वजह सामने आई वो दहेज थी दहेज तो आज भी हमारे समाज में है, तो क्‍या यह माना जाए कि अब भी बच्चियों की हत्याएं हो रही हैं?
अमिताभ: यह बहुत खतरनाक सच्चाई है और दहेज आज समाज के हर वर्ग में अपने पैर पसार चुका है। सिर्फ स्वरूप बदल गया है। एक ही बात कहना चाहूंगा कि जब तक बेटे का जन्म हमारी प्राथमिकता बनी रहेगी, हम ऐसे समाज में जीने के लिए मजबूर रहेंगे, जहां एक तरफ बेटियां कमाल कर रही हैं तो दूसरी तरफ हम ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों से जूझ रहे हैं।

Photo Credit: BBC Eye Investigation 

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