दवाओं के प्रति रोगजनक सूक्ष्मजीवों का बढ़ता प्रतिरोध

Webdunia
शुक्रवार, 4 जून 2021 (13:54 IST)
नई दिल्ली, कोविड महामारी के रूप में समूचा विश्व भीषण स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है। इस बीच कई अन्य ऐसी बीमारियां उभरी हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए जोखिम बढ़ाए हुए हैं।

एंटी-माइक्रोबीअल रेजिस्टेंस (एएमआर) स्वास्थ्य से जुड़ी एक ऐसी ही चुनौती है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने शीर्ष 10 स्वास्थ्य जोखिमों में से एक माना है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि वर्ष 2050 तक हर साल करीब एक करोड़ लोग इसकी वजह से मौत के शिकार हो सकते हैं। इनमें से 20 लाख मौतें तो केवल भारत में ही होने की आशंका जतायी जा रही है।

एएमआर एक ऐसी अवस्था है, जहाँ किसी बैक्टीरिया, कवक (फंगी) या फिर विषाणु (वायरस) के कारण होने वाली बीमारी के उपचार में उपयोग होने वाली दवाएं इस कारण निष्प्रभावी हो जाती है, क्योंकि बैक्टीरिया, कवक या वायरस अपने डीएनए में परिवर्तन कर इन दवाइयों के विरुद्ध एक प्रतिरोध बना लेता है। बहुत कम समय में ये रोगजनक सूक्ष्मजीव दवाओं के विरुद्ध अपना कवच तैयार कर लेते हैं, और पहले से अधिक शक्तिशाली बनकर उभरते हैं, जिन्हें सुपरबग्स का नाम दिया गया है। इन सुपरबग्स के तेजी से विस्तार ने बीमारियों के उपचार की अवधि को बहुत लंबा खींच दिया है। इससे उपचार निष्प्रभावी साबित होते दिख रहे हैं। इनसे बीमारी की गंभीरता भी बढ़ रही है, और मौत का जोखिम भी ज्यादा हो गया है।

उपचार में एंटीबायोटिक दवाओं के अत्यधिक या फिर अनियमित उपयोग से एएमआर जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं। मवेशियों, जलचरों या फसल की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए एंटी-माइक्रोबीअल दवाओं अथवा रसायनों का असंतुलित उपयोग और जलस्रोतों में खतरनाक रसायनों के प्रवाह से दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीव पर्यावरण में घुल जाते हैं। इस प्रकार ये सूक्ष्मजीव खाद्य उत्पादों या जल के जरिये प्रसारित होकर मानव, पशु और पादप सभी की सेहत के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं।

एंटीबायोटिक दवाओं के भारी मात्रा में उपयोग की चुनौती एक बहुत विकट समस्या के रूप में सामने उभरी है। आंकड़े इसकी पुष्टि भी करते हैं। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2010 में केवल भारत में ही 12.9 अरब यूनिट एंटीबायोटिक्स की खपत हुई। यह दुनिया के किसी भी देश में एंटीबायोटिक दवाओं के उपभोग का सबसे उच्च स्तर था। यह आंकड़ा दवाओं के भारी उपभोग की गंभीरता और उससे बढ़ते एएमआर के मामलों की ओर संकेत करता है।

एएमआर से जुड़ी समस्या गंभीर अवश्य है, लेकिन शुरुआती स्तर पर ही उसकी पहचान हो जाए तो इससे काफी मदद मिलती है। यदि परीक्षणों में सही माइक्रोब्स का पता लग जाए तो उसके नियंत्रण के लिए उपयुक्त दवा समय से देना संभव होता है। इससे एंटीबायोटिक्स के असंतुलित उपयोग की गुंजाइश कम होती है। साथ ही, डायग्नोस्टिक्स प्रोटोकॉल बीमारी के पर्यवेक्षण और प्रतिरोध प्रारूपों पर नजर रखने के दृष्टिकोण से भी उपयोगी सिद्ध होते हैं। इससे न केवल मरीज के लिए समय पर हस्तक्षेप करने, बल्कि बीमारी के प्रसार को रोकने में भी मदद मिलती है।

पहले से चली आ रही पारंपरिक ठोस एवं तरल स्वरूपों वाले टेस्ट और तकनीकों के बजाय मॉलिक्यूलर डायग्नोस्टिक्स जैसी आधुनिक तकनीक इसकी जांच में काफी प्रभावी सिद्ध हुई है। मास स्पेक्ट्रोस्कोपी, माइक्रोफ्लूडिक्स, होल जिनोम सीक्वेंसिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग लॉग्ररिदम, रेडियो इमेजिंग और बायो सेंसर बेस्ड एएमआर से बचाव और उसके उपचार दोनों में काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

एएमआर डायग्नोस्टिक्स में बड़े स्तर पर नवाचार किए जा रहे हैं। इस कड़ी में सेंटर फॉर सेल्यूलर ऐंड मॉलिक्युलर प्लेटफॉर्म्स (सी-कैंप) भारत के प्रमुख जीव-विज्ञान उद्यम ईकोसिस्टम में से एक है। इसे भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग से समर्थन मिला हुआ है। सी-कैंप कार एक्स ग्लोबल एक्सीलरेटर नेटवर्क का हिस्सा है। इस गैर लाभकारी संस्था के डायग्नोस्टिक्स एएममार पोर्टफोलियो में अचिरा लैब्स जैसी इकाई शामिल है, जिसने बिग-चेक को विकसित किया है।

यह एक रैपिड मॉलिक्यूलर डायग्नोस्टिक्स प्लेटफॉर्म है, जो मलमूत्र संबंधी संक्रमणों (यूटीआई) के मामले में एंटी-माइक्रोबीअल रेजिस्टेंस जीन्स और माइक्रोबीअल प्रजातियों की पहचान करता है। इसमें दो घंटे से भी कम समय में परिणाम सामने आ जाता है। वहीं, वेल इनोवेटिव बायोसॉल्यूशंस की रैपिड  नामक एक ऐसी डिवाइस है, जो एएमआर के मामले में खासी उपयोगी है। इसी श्रृंखला में एमयू जेनिक्स द्वारा विकसित टी-क्लिंच भी किसी से कम नहीं है।

अपने दायित्व के दायरे में सी-कैंप 11 इनोवेटिव डायग्नोस्टिक्स परियोजनाओं से जुड़े कार्य को संचालित कर रहा है। इसमें कई उत्साहजनक परिणाम भी सामने आए हैं। आने वाले समय में बाजार में इनकी व्यापक मौजूदगी देखने को मिल सकती है। सभी अंशभागी मसलन प्रोडक्ट डेवलपर्स, नीति निर्माता, नियामकीय संस्थाएं और स्वास्थ्य संगठनों के समन्वित प्रयासों से इस मुहिम को अधिक प्रभावी बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। (इंडिया साइंस वायर)

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