ठीक चुनाव के बीच जिस तरह से महिलाओं के विरुद्ध अपराध की दो वारदातें राष्ट्रव्यापी सुर्खियां बनीं, उस अनुपात में वे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण मुद्दा या देश में सघन बहस और आक्रोश का विषय नहीं बन पाया है। यह सामान्य आश्चर्य की बात नहीं है। एक लड़की एक विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाती है तथा कुछ दिनों बाद उसकी हत्या हो जाती है। जाहिर है, शक की सुई विधायक महोदय अरुण वर्मा की ओर उठेगा। उठा भी! लेकिन पूरी समाजवादी पार्टी सरकार और स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उसके बचाव में आ गए। उसके बाद से न कोई हल्ला, न हंगामा न धरना-प्रदर्शन .....! इसी बीच एक महिला ने अखिलेश सरकार में मंत्री गायत्री प्रजापति पर बलात्कार का तथा अपनी नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए कहा कि वो प्राथमिकी दर्ज करने के लिए न जाने कौन-कौन सा दरवाजा खटखटाती रही, पर सफल नहीं हो सकी। यानी कहीं गायत्री प्रजापति के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई। अंततः वह उच्चतम न्यायालय पहुंची जिसने प्राथमिकी दर्ज कर जांच करने व रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया है। बावजूद इसके गायत्री प्रजापति मंत्रिमंडल में कायम हैं, उनके क्षेत्र अमेठी में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रचार करने आते हैं तथा उनके लिए वोट मांगते हैं। वो इसे गायत्री प्रजापति को बदनाम करने की साजिश भी कहते हैं। जब वे उनके लिए वोट मांगने आएंगे तो उन्हें इस मामले को साजिश कहना ही होगा।
भाजपा और बसपा इसे चुनाव प्रचार में उठा जरुर रही है, पर इन मामलों के परिमाण के अनुरुप नहीं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि महिलाओं के दो इतने बड़े मामले पर देश के बौद्धिक वर्ग तक में भी खामोशी है?
उत्तर प्रदेश सरकार पर जब भी कानून व्यवस्था, अपराध के बढ़ने खासकर महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि का आरोप लगता है तो हमारे सामने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा रख दिया जाता है। उन आंकड़ों में वाकई उत्तर प्रदेश का स्थान सर्वोपरि नहीं है। कहा जाता है कि देखो महिलाओं के विरुद्ध अपराध में तो भाजपा शासित मध्यप्रदेश सबसे ऊपर है और आरोप हम पर लगता है। आंकड़ों के अनुसार यह सच है। आंकड़ों को देखें तो उत्तर प्रदेश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध प्रति एक लाख पर 2001 में 18 था जो 2015 में घटकर 15.5 रह गया। इसके समानांतर मध्यप्रदेश में इस अवधि में यह प्रति लाख 23.14 से बढ़कर 26.73 लाख हो गया। इस अवधि में पूरे भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध में उत्तर प्रदेश का अंश 17 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत रह गया है। यह भी अखिलेश के पक्ष में जाता है। इसका तो वे ढोल पीटेंगे ही और फिर इसमें विपक्षी भाजपा को रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ता है। सपा के नेता लोगों को समझाते हैं कि देखो-देखो ये भाजपाई अपने राज्य की शर्मनाक स्थिति को छिपाने के लिए हमें बदनाम करते हैं।
भाजपा, सपा ही नहीं उत्तर प्रदेश के सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग कहते हैं कि जब उत्तर प्रदेश में अपराध दर्ज ही नहीं होगा, प्राथमिकी लिखी ही नहीं जाएगी तो अपराध का सही आंकड़ा दिखेगा कहां से। आखिर अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो तो राज्यों द्वारा दर्ज प्राथमिकी को ही अपनी रिपोर्ट में स्थान देता है। अभी हाल ही में एक अध्ययन आया है ‘आर वूमेन मोर वल्नरेबल टू क्राइम्स 2017’। इसे नामचीन लोगों ने तैयार किया है। इसमें केवल अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा ही नहीं है, इसके साथ राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, जनगणना, भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण, योजना आयोग आदि के आंकड़ों को शामिल कर पूरे भारत में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की एक लगभग मान्य तस्वीर पेश की गई है। इसके अनुसार 2001 में उत्तर प्रदेश में जहां बलात्कार के 100 मामलों में से 12.27 दर्ज होते थे वहीं इनकी संख्या 2015 में घटकर प्रति 100 बलात्कार पर 8.73 रह गया।
तो यह भी एक सच्चाई है। अपराध के अन्य मामलों में हम यहां विस्तार से नहीं जाएंगे। किंतु यह कौन-सी कानून व्यवस्था है जिसमें थानों में अपराध ही दर्ज नहीं होते? थाना तो छोड़िए, ऊपर के अधिकारियों के पास भी चले जाइए तो आपको न्याय मिलने की संभावना कम है। एक महिला की तो इतनी हैसियत थी कि वह उच्चतम न्यायालय तक चली आई, अन्यथा उसका मामला भी दर्ज नहीं होता। हम यहां गायत्री प्रजापति दोषी हैं, नहीं हैं, इन पर अपना कोई मत नहीं देना चाहते। देना भी नहीं चाहिए। मामला अब न्यायालय के हाथ में है और न्यायालय दोनों पक्षों को सुनेगी। किंतु किसी के खिलाफ हम मामला दर्ज कराना चाहे और वह नहीं हो यह कानून के राज का उदाहरण है या अपराध के राज का? आखिर कितनी महिलाएं, या पुरुष या मजलूम की इतनी हैसियत होगी कि वह एक मुकदमा दर्ज कराने की अपील लेकर उच्चतम न्यायायल का दरवाजा खटखटा सके? आखिर किस थानेदार में इतनी हिम्मत है कि वह सपा के किसी नेता या प्रभावी कार्यकर्ता के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर सके? हर मामले और स्थिति के कुछ अपवाद होते हैं, पर कुल मिलाकर यही पिछले पांच सालों में उत्तर प्रदेश की स्थिति रही है। हम मुख्यमंत्री के इस तर्क को कुछ क्षण के लिए स्वीकार कर लें कि बलात्कार की आरोप लगाने वाली जिस लड़की की हत्या हुई, उसमें विधायक महोदय का हाथ नहीं है, किंतु हत्या तो हुई न। किसने हत्या की, यह तो बाद में तय होगा। ऐसी आरोप लगाने वाली लड़की की हत्या हो जाना, क्या कानून व्यवस्था दुरुस्त रहने और लोगों के सुरक्षित होने का प्रमाण माना जाएगा? ऐसा आरोप लगाने वाली लड़की को सुरक्षा देने की जिम्मेवारी किसकी थी? अगर नहीं मिली तो उसकी हत्या का अपराधी जो भी हो जिम्मेवार कौन माना जाएगा? इसका आप स्वयं निष्कर्ष निकालिए।
वास्तव में उत्तर प्रदेश के चुनाव में यदि कोई सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए, तो वह है कानून और व्यवस्था, दादागिरी, महिलाओं के प्रति अपराध तथा पुलिस प्रशासन की ऐसे मामलों में अकर्मकता...। विकास की बात सभी कर रहे हैं, किंतु बगैर सुरक्षा के विकास नहीं हो सकता। दूसरे, सुरक्षा और कानून व्यवस्था मनुष्य की शांति से जीने तक ही सीमित नहीं है, मनुष्य के रुप में गरिमामय जीवन जीने से भी संबंधित है। मान लीजिए हमारे पास जीवन जीने के सारे संसाधन आ गए, लेकिन एक दादा या गुंडा आता है और हमें गालियां देकर धमकाकर चला जाता है और उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती...। हमसे कुछ ऐंठ लेता है और हम उसके खिलाफ कानून का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं कर पाते। क्या इसे मनुष्य के रुप में जीना कहेंगे? आम उत्तर आएगा कि ऐसी लानत भरी जिंदगी से तो मौत भली। आखिर कैराना का पलायन क्यों हुआ? उसको आप सांप्रदायिक नजरिए से न देखिए, लेकिन कानून और व्यवस्था की शर्मनाक विफलता तो मानेंगे न।
मथुरा की घटना को क्या मानेंगे? सरकार और प्रशासन के साए में अपराध का उतना बड़ा केन्द्र खड़ा हो गया! यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि अखिलेश यादव और उनके रणनीतिकारों ने अपनी रणनीति से इन मामलों या समग्र रुप में कानून व्यवस्था, अपराध को चुनाव में मुख्य मुद्दा बनने ही नहीं दिया। लेकिन यहां उन स्वनामधन्य बुद्धिजीवी भी कठघरे में खड़े हो जाते हैं, जो कि तथाकथित असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापस कर रहे थे या जिनके पास पुरस्कार नहीं था वे आसमान सिर उठाए थे। क्या एक विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली लड़की की हत्या और एक महिला के साथ बलात्कार तथा उसकी नाबालिग पुत्री के साथ मंत्री द्वारा छेड़छाड़ का मुकदमा दर्ज न होना कम से कम प्रदेश सरकार की पुरस्कार वापसी या उसकी पुरजोर मुखालफत का विषय नहीं है? कहां हैं वे बुद्धिजीवी? कहां हैं मीडिया के वे पुरोधा? उनकी खामोशी बताती है कि उनका रवैया कितना पक्षपातपूर्ण था। कल्पना करिए, इसी प्रकार की घटनाएं किसी भाजपा शासित राज्य में हुई होतीं तो और चुनाव होता तो इनका रवैया कैसा होता? दूसरे राजनीतिक दलों का तेवर इस समय कैसा होता? इस प्रकार की बौद्धिक बेईमानी वाले समाज में वास्तविक मुद्दे कभी मुख्य मुद्दे नहीं बनते।