सुन कर, सोच कर, देखकर, पढ़कर ही सिहरन होती है जाने हम किस वहशीपन की तरफ बढ़ रहे हैं और ना जाने हम कब तक पूरी तरह से सभ्य होंगे... होंगे भी या नहीं... बेंगलुरु जैसी घटनाएं गहरी निराशा में डाल देती है फिर लगता है ऐसी घटनाएं हमें खामोश नहीं होने देती और हम विवश होते हैं फिर फिर सोचने के लिए और चिंतन व मनन के लिए...
नारी अस्मिता का यह कैसा कड़वा और भयावह सच है कि उसे अपने हिस्से की आजादी भी नसीब नहीं..नया साल वह उस तरह नहीं मना सकती जैसे पुरुष मनाते हैं और मनाते आए हैं... बराबरी या समानता की बात कितनी फीकी और बेदम लगती है जब हम अपनी नंगी आंखों से यह नंगा सच देखते हैं कि हमारी सोच और मूल प्रवृत्ति आज भी वस्त्रहीन, मर्यादाहीन ही है। एक अकेली जाती स्त्री आज भी हमारे लिए कामुकता और उपभोग की वस्तु है सम्मान और आदर की पात्र नहीं... सोचिए क्या हो अगर वह लड़की छेड़खानी करने वाले मनुष्य की ही कोई रिश्तेदार निकल आए...लेकिन यह भी कोई समाधान नहीं है, ना ही शर्म का सबब जबकि सगा पिता, सगा भाई जैसे रिश्ते भी इसी भारतीय संस्कृति में निरंतर कलंकित हो रहे हैं। सोच के स्तर पर हम कितने गलीच और घिनौने हो रहे हैं जबकि तकनीक और विकास हमें निरंतर समृद्ध कर रहे हैं। स्वच्छता का नारा हर गली में गूंज रहा है लेकिन सोच की गंदगी हर मानस में फैल रही है.... जमती जा रही है...यहां से कचरा और कूड़ा हटाने के लिए नगर निगम की कौन सी गाड़ी आएगी ?
यहां की सफाई तो हमें ही करनी है। स्वच्छता चाहे शहर की हो, स्वयं की हो या सोच की...शुरुआत तो अपने आप से ही होती है। ज्ञान, उपदेश, बातें, आलेख, सीख, समझाइश सब व्यर्थ है अगर संवेदना के स्तर पर हम इतने दरिद्र हैं कि यह कल्पना भी नहीं कर पाते हैं कि क्या गुजरती है एक हाड़मांस के शरीर पर जब उस पर इस तरह बलात् हमला किया जाता है। इच्छा के विरूद्ध बदसलूकी की जाती है। विश्वास डोल जाता है समूची व्यवस्था से, समूचे समाज से एकबारगी तो अपने आप से भी.... एक गलत और गंदा आचरण कितने-कितने स्तर पर कितनी तरह से नुकसान पहुंचाता है इसका अंदाजा भी मुश्किल है।
इस सब में भी प्रशंसनीय है पीडिता का वह साहस कि उसने सामने आकर अपनी बात रखी और यह माना कि मेरा नाम क्यों छुपाया जाना चाहिए जबकि मेरी तो कोई गलती ही नहीं थी और उस समय वहां और भी लड़कियां इसी तरह के बर्ताव का सामना कर रही थी...सोच के स्तर पर इस पहल , इस प्रयास का मैं स्वागत करती हूं कि कम से कम एक स्त्री इतनी मजबूत तो हुई है कि वह अपने साथ हुए व्यवहार पर खुद शर्मिंदा नहीं हो रही है जैसा कि अब तक सामाजिक ढांचा उसे बाध्य करता आया है बिना किसी गुनाह के....बदलाव की यह बयार (इतने कड़वे माहौल में भी) सुखद है और जरूरी भी....शायद सोच के परिवर्तन का बीज यहीं से इस धरा पर पड़ जाए.... काश, कि ऐसा हो जाए....