पांचवें चरण के मतदान का अंतिम आंकड़ा आने में समय लगेगा। चुनाव आयोग की यह सूचना निश्चय ही उत्साहित करने वाली थी कि चौथे चरण में मतदान करने वालों की संख्या 2019 के मुकाबले ज्यादा रही। इस चरण में मतदान 69.56% हुआ जो 2019 के इसी चरण की तुलना में 3.65% अधिक है। तीसरे चरण में मतदान का आंकड़ा 65.68 प्रतिशत रहा जबकि 2019 में 68.4% था। 26 अप्रैल को दूसरे चरण में 66.71% मतदान हुआ जबकि 2019 में 69.6 4% हुआ था। पहले चरण में 66.5% मतदान हुआ जो 2019 के 69.43% से कम था।
हालांकि अभी चार चरणों के मतदान को मिला दें तो यह 2019 से करीब 2.5% के आसपास कम होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले दो चरणों में जहां 114 सीटों पर मतदान होना है,आंकड़ा और बढ़ेगा। किंतु अगर आंकड़ा न भी बढ़ा तो राष्ट्रीय स्तर पर मतदान में इतनी कमी को ज्यादा चिंताजनक गिरावट के रूप में नहीं देखा जा सकता।
अभी इसमें पड़ने की आवश्यकता नहीं है कि मतदान करने वालों में भाजपा और राजग के मतदाता अधिक निकल रहे हैं या विरोधियों के। इस चुनाव ने फिर एक बार साबित किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं अपने व्यवहार से कार्यकर्ताओं समर्थकों के लिए उदाहरण स्थापित करते हैं और राजनीति एवं चुनाव के एजेंडा भी सेट करते हैं। हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को चुनाव प्रचार के लिए उच्च न्यायालय द्वारा दी गई एक जून तक की सशर्त्त जमानत को आईएनडीआईए गठबंधन के लिए बड़ी घटना के रूप में प्रचारित किया गया। उन्होंने अपने चरित्र के अनुरूप निकलने के साथ ही ऐसे बयान देना शुरू किया जो अभी तक आईएनडीआईए के एजेंडे में नहीं था।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही अपनी पार्टी में पदों के लिए 75 वर्ष की उम्र सीमा बनाई थी और चूंकि वे 17 सितंबर, 2025 को 75 वर्ष के हो रहे हैं, इसलिए रिटायरमेंट ले लेंगे। रिटायरमेंट लेंगे तो अपने करीबी अमित शाह को ही प्रधानमंत्री बनाएंगे। उन्होंने यह भी कह दिया कि वह योगी आदित्यनाथ को उनके पद से हटा देंगे। इस पर आगे चर्चा करेंगे। दो दौर में मतदान प्रतिशत की गिरावट के बाद जो संकेत सामने आया उसके बाद प्रधानमंत्री को ऐसा लगा जैसे नए सिरे से करवट लिया हो और चुनाव प्रचार शुरू किया हो।
वे अयोध्या गए ,योगी आदित्यनाथ के साथ रामलला के दर्शन किए, रोड शो किए और वहां से संदेश दिया कि चुनाव भाजपा के नियंत्रण में है। उसके बाद से चाहे वाराणसी में चौथे चरण के चुनाव के दिन नामांकन दाखिल करना हो या अन्य कार्यक्रम वे लगातार देश के सामने रहे। वाराणसी में कार्यकर्ताओं से संवाद करते हुए पूरे देश के भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं को संदेश दिया कि मतदान बढ़ाना आपकी भूमिका है इसके लिए उन्होंने जिस तरह के भावनात्मक शब्दों का इस्तेमाल किया उससे कार्यकर्ता प्रेरित हुए होंगे। समाचार आ रहा था कि भाजपा के कार्यकर्ताओं-नेताओं का एक वर्ग स्थानीय स्तर पर उदासीन है। इसे ही कहते हैं नेतृत्व , जो जीत या हार की संभावना वाली किसी भी परिस्थिति में लोगों को प्रेरित करने के लिए जान लगा दे। प्रधानमंत्री ने यही दिखाया। उसके साथ उन्होंने दोबारा सभी टेलीविजन चैनलों, केई समाचार पत्रों को इंटरव्यू दिया। आप देखेंगे कि प्रधानमंत्री जहां भी थे वहीं से उन्होंने इंटरव्यू दिया और पूरी बातचीत की।
इन सबमें नए सिरे से चुनाव का एजेंडा तथा जीतने के विश्वास के साथ भावी सरकार की कार्य योजनाओं का विवरण था। इसके समानांतर राहुल गांधी लगभग दृश्य से एक सप्ताह के आसपास लगभग ओझल रहे। रायबरेली से नामांकन के बाद वहीं दिखे और उसके बाद लगभग 10 दिन बाद उड़ीसा की रैली में सामने आए। उन्होंने टीवी चैनलों को चुनाव में एक साक्षात्कार नहीं दिया है। अरविंद केजरीवाल की ओर लौटे तो कहने की आवश्यकता नहीं कि 75 वर्ष में रिटायरमेंट एक शगुफा था। उन्हें भी पता है कि ऐसा होने वाला नहीं है ।
भाजपा में 2014 से कुछ समय तक 75 वर्ष की उम्र सीमा का अघोषित बंधन दिखाई पड़ता था। आगे ऐसा बंधन नहीं रहा। वी एस येदियुरप्पा को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया गया तो ई श्रीधरन को केरल के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया। संसदीय बोर्ड एवं चुनाव समिति में ऐसे सदस्य हैं जो इस उम्र सीमा के बंधन से आगे निकल चुके हैं। केजरीवाल ने सोचा कि भाजपा के अंदर यह प्रश्न उठेगा और समर्थक भी सोचेंगे कि भाई मोदी जी अगर रिटायर ही हो जाएंगे तो हम उनके नाम पर वोट क्यों दें? योगी आदित्यनाथ के समर्थकों की भाजपा और संगठन परिवार में सबसे बहुत बड़ी संख्या है। यानी भाजपा के समर्थकों को पहले मोदी के नाम पर और योगी समर्थकों को उनके नाम पर भ्रम और विरोध पैदा करना।
वैसे आम आदमी पार्टी केवल 22 स्थान पर लड़ रही है। मुख्यत:दिल्ली एवं पंजाब तक सीमित है। गुजरात में कांग्रेस ने उसे एक सीट दिया है। इसमें उनके बयान या उनकी यात्राएं दूसरी पार्टी को बहुत लाभ पहुंचाएंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। मुख्यमंत्री आवास पर अरविंद केजरीवाल के सहायक द्वारा राज्यसभा सदस्य स्वाति मालीवाल की बुरी तरह पिटाई एवं दुराचार सबसे बड़ा राजनीतिक बवंडर का विषय है जिनका जवाब उनके लिए देना कठिन हो गया। स्वाति मालीवाल की घटना ने आईएनडीआईए के नेताओं को संदेशखाली के बाद दूसरी बार ऐसी स्थिति में ला दिया है जहां सच जानते हुए भी स्टैंड नहीं ले रहे हैं। इसका संदेश आम मतदाताओं तक जा रहा है।
शेष बचे मतदान में कांग्रेस का महाराष्ट्र, हरियाणा हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के अलावा बहुत ज्यादा दांव पर नहीं है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली से राहुल गांधी चुनाव लड़ रहे हैं, पूरी पार्टी वहां लगी रही, लेकिन प्रदेश में सपा मुख्य ताकत है और कांग्रेस को केवल 17 सीटें लड़ने के लिए मिली है। बिहार में पार्टी लालू प्रसाद यादव के राजद के सहारे हैं और उड़ीसा में इसकी कोई ताकत नहीं। दिल्ली में कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के बाद दूसरी ताकत होना स्वीकार किया। पंजाब में आम आदमी पार्टी से भी इसे टकराना पड़ेगा और हरियाणा में भी पार्टी काफी कलह और गुटबंदी का शिकार है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का कोई वरिष्ठ नेता चुनाव प्रचार करने नहीं गया। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी के प्रचार में केवल शशि थरूर गए। राहुल गांधी ने वहां झांकना तक जरूरी नहीं समझा।
भाजपा हर चुनाव में पूरी ताकत लगाती है और रायबरेली में फिर इस बार राहुल की घेराबंदी की कोशिश थी। रायबरेली में स्थानीय नेताओं के बीच एकजुटता न देख केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह स्वयं सपा और भाजपा में आए विधायक मनोज पांडे के घर गए और उम्मीदवार दिनेश प्रताप सिंह के साथ मिलकर काम करने का वायुमंडल बनाया। पिछले चुनाव में भाजपा अपनी रणनीति से अमेठी से राहुल गांधी को पराजित कर चुकी है। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के इन दोनों स्थानों से लड़ने के अनिच्छुक थे इसका प्रमाण अंतिम समय तक दोनों स्थानों के लिए उम्मीदवारी की घोषणा नहीं होना था। उनका नाम नामांकन के कुछ समय पहले घोषित किया गया। स्वयं प्रधानमंत्री ने इसे मुद्दा बनाया।
प्रधानमंत्री मोदी पहले भी रैलियां कर रहे थे लेकिन पिछले दो सप्ताह में जितना उन्होंने परिश्रम किया है वह सब रोड शो, रैलियां , कार्यकर्ताओं के साथ संवाद और टीवी इंटरव्यू में लगातार दिख रहे है। निश्चय ही इसका असर है और विपक्ष के नेताओं के लिए इसके समानांतर उसी रूप में संपूर्ण देश या अपने राज्यों में मतदाताओं को आकर्षित करना कठिन चुनौती है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)