कॉलेज चुनाव : राजनीति की नर्सरी में फूल खिलने की आस

विभूति शर्मा
मध्यप्रदेश में कई वर्षों के अंतराल के बाद इस वर्ष छात्र संघ चुनाव होने जा रहे हैं। कॉलेजों में होने वाले छात्र संघ चुनाव किसी भी देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। माना जाता रहा है कि देश या प्रदेश को नेतृत्व प्रदान करने वाले नेताओं की खेप यहीं से निकलती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में युवा पीढ़ी ने राजनीति में दिलचस्पी लेना लगभग बंद कर दिया है। कारण राजनीति में आई नैतिक गिरावट को माना जा सकता है। इसके उलट यह भी कहा जा सकता है कि कई राज्य सरकारों ने कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव कराने बंद कर दिए, इसलिए अनगढ़ नेता बनने लगे और राजनीति निकृष्ट होती गई।
 
वैसे देखा जाए तो बड़े राजनीतिक दलों की छात्र इकाइयां ही आजकल भारतीय कॉलेजों में अपने उम्मीदवारों को चुनाव लड़वाती हैं और यही आगे चलकर विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में अपना भाग्य आजमाते हैं। यह अलग मुद्दा हो सकता है कि इनमें से कितने सफल होते हैं। साफ शब्दों में कहें तो कॉलेज चुनाव भारतीय राजनीति के लिए नर्सरी की भूमिका निभाते हैं। इसलिए यह हमारे शिक्षकों और पैरेंट्स का दायित्व है कि वे बच्चों में अच्छे संस्कारों का बीजारोपण करें, ताकि वे राजनीति के लिए खरपतवार साबित न होकर फलदायी साबित हों।
 
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अरुण जेटली, लालू प्रसाद यादव आदि अनेक दिग्गज छात्र राजनीति की ही देन हैं। देश की राजधानी दिल्ली के दिल्ली विश्विद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को छात्र राजनीति का गढ़ कहा जा सकता है। यहां के चुनाव में देश की सभी बड़ी पार्टियों की दिलचस्पी रहती है।
 
पिछले कुछ वर्षों में तो इन चुनावों का महत्व ज्यादा बढ़ गया है। भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) और कांग्रेस के छात्र संगठन भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआई) मुख्य रूप से कॉलेज राजनीति में सक्रिय होते हैं। दिल्ली में वामदलों की छात्र इकाइयां भी सक्रिय होती हैं। दिल्ली में पिछले सितंबर माह में ही विश्‍वविद्यालयों के चुनाव हुए हैं।
 
देश की तरह मध्यप्रदेश की राजनीति में भी छात्र संघ चुनावों ने अहम् भूमिका निभाई है। महेश जोशी, कैलाश विजयवर्गीय, सत्यव्रत चतुर्वेदी, सज्जनवर्मा जैसे अनेक नेता छात्र संघ चुनावों से निकलकर ही प्रदेश और देश की राजनीति में सक्रिय हुए हैं। पहले कॉलेज चुनाव बड़े ही सद्भावपूर्ण माहौल में हुआ करते थे, हालांकि धीरे-धीरे कॉलेज चुनावों में कटुता और वैमनस्‍य प्रवेश करता गया, जिसने हिंसक रूप अख्तियार कर लिया। 
 
इस वजह से 1985 में मध्‍यप्रदेश सरकार ने कॉलेजों में प्रत्यक्ष चुनाव करने पर रोक लगा दी और चुनाव मेरिट के आधार पर होने लगे यानी पढ़ाई में होशियार बच्चे ही कक्षा प्रतिनिधि, अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारी चुने जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि प्रदेश या देश का नेतृत्व करने के लिए पढ़ी-लिखी पौध अनुपलब्ध होती गई, क्योंकि यह पौध अपना अकादमिक करियर बनाना चाहती थी। राजनीति इसके लिए दोयम दर्जा रखती थी और इस तरह अनपढ़ गंवारों की फौज राजनीति में बढ़ती गई। 
 
अब मप्र सरकार ने फिर राज्य के कॉलेजों में चुनाव करवाने का निर्णय लिया है। हालांकि उसने चुनाव केवल सरकारी और अनुदान प्राप्त कॉलेजों में करवाने की घोषणा करने की भूल की, जिसके विरुद्ध एनएसयूआई अदालत गई और वहां से गैर अनुदान प्राप्त कॉलेजों में भी चुनाव करवाने का आदेश निकलवाने में सफल रही। 
 
अब मध्यप्रदेश के सभी कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव होने जा रहे हैं। हम आशा कर सकते हैं कि चुनावों की प्रक्रिया पुनः प्रारंभ होने से प्रदेश में राजनीति का नया दौर शुरू होगा और हमें अच्छे नेता फिर मिलने लगेंगे।
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