एक ऐसे शहर में, एक ऐसा नाटक खेलना जो उस भाषा का नहीं जिसे दिन रात वहाँ के लोग जीते हों, कोई मामूली घटना नहीं. जो लोग भाषा नहीं समझते, वो भाव पकड़ पाएंगे, बारीकियाँ समझ पाएँगे, हंस या रो पाएँगे, देख कर मंच पर होता एक खेल? नाटक एक खेल ही तो है, जो बच्चे, बड़े बिना संकोच के जी पाते हैं. और नाटक के ही माध्यम से सुन, सीख और घर ला पाते हैं, सुंदर कुछ सबक.
अभी कुछ दिन हो चले हैं, मैसूर में संपन्न हुए नॅशनल चिल्ड्रेनस थियेटर फेस्टिवल को. सितंबर 19-24, 2023 के बीच में प्रस्तुत किया गया यह फेस्टिवल, कर्नाटक के मैसूर शहर के नाटक प्रेमियों के लिए, खासकर बच्चों के लिए खूब रहा. कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, हिन्दी भाषा के अलावा कुछ नाटक ऐसे भी थे जो गिब्रिश या बिना किसी भाषा के प्रयोग के खेले गये.
इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ एजुकेशनल थियेटर और रंगायना के सहयोग से सजाया गया ये थियेटर फेस्टिवल, छः दिन तक चला और अलग-अलग रंगमंचों - किरू रंगमंदिरा, रंगायना भूमीगीता और नटना में प्रस्तुत किया गया.
इस फेस्टिवल में खेला जाने वाला एक नाटक मेरे ज़हन में कुछ महीनों से था. जापान में जन्मी तोत्तो-चान की कहानी, हम में से कईयों ने बचपन में स्कूल में पढ़ी थी. तेत्सुको कुरोयानागी की आत्मकथा पर आधारित यह उपन्यास, काई भारतीय भाषाओं में अनुवादित हो चुका है. देश-विदेश के कई जगहों पर ये कहानी उपन्यास के माध्यम से पहुँच चुकी है. पर मुझे उत्सुकता थी उसे मंच पर देखने की. तोत्तो-चान की जो कल्पना मन में सजाई थी, वो वास्तविकता को कैसे छुएगी, ये जानने की एक वजह साकार हुई. और इसी बहाने में बैंगलोर से मैसूर, खासतौर पे सिर्फ़ इस नाटक को देखने पहुँच गयी. मेरा साथ दिया मेरे सात साल के बेटे ने, जिसके जीवन का यह पहला रंगमंच का अनुभव होना था.
भोपाल के विहान ड्रामा वर्क्स थियेटर ग्रूप का नाटक तोत्तो-चान, पिछले कुछ सालों से, पल-बढ़ रहा था सौरभ अनंत के निर्देशन में. इस नाटक में प्रमुख भूमिका निभाई संगीतकार और अभिनेता हेमंत देवलेकर, श्वेता केतकर और नन्ही ग्रेसी गोस्वामी ने. नाटक के अन्य कलाकारों में शामिल - ईशा गोस्वामी, जान्हवी प्रदीप जीलवाने, जीया मूर्खेरिया, तान्या साहू, शुभम कटियार, अंश जोशी, हर्ष झा, रुद्राक्ष भयरे, अमित मिश्रा, दीपक यादव, अनुभव दूबे, आयुष, मिलन यादव. ऑफ स्टेज साथियों में पर्कशन पर अंकित परोचे, गिटार पर हीरा ढुरवे, मंडोलिन पर अंश जोशी, सिंथेसाइज़र पर निरंजन कार्तिक, टेक्निकल असिस्टेंट अंकित परोचे ने भरपूर योगदान दिया. सबसे बढ़िया बात यह रही की नाटक में संगीत का बहुत महत्व रहा. बच्चों और बड़ों तक पहुँचाने की यह संगीत और कविता की भाषा खूब रंग लाई.
तोत्तो-चान कहानी है एक नन्ही बच्ची की जो स्कूल के माध्यम से एक बाहरी दुनिया में कदम रखती है. पर ये दुनिया इसकी समझ से थोड़ी परे है. यहाँ सब वही करते हैं जो उन्हें बताया जाता है. सीखना वो होता है जो बार बार रटवाया गया हो और यहाँ तक के मन के चित्रों में भी रंग किसी और के बताए ही हों. इस दुनिया से उकताई नन्ही तोतो अपना समय अपनी दुनिया को देना ज़्यादा पसंद करती है. स्कूल साल के बीच में ही कारणवश छुड़वा दिया जाता है. लेकिन इससे एक नयी संभावना पैदा होती है कि आगे कहाँ पढ़ाई की जाए.
तोतो की संवेदनशीलता और रचनात्मक प्रवृत्ति को समझते हुए, उसकी माँ उसे तोमोय लेकर आती है, जहाँ के हेडमास्टर हैं, सोसाकू कोबायाशी. तोमोय एक सपना है जो शायद हर बच्चा देखता है. यहाँ पढ़ाई पेड़ों के नीचे बैठ, पहाड़ों पे चढ़के, नदियों के समीप जाकर और गाते गुनगुनाते होती है. नाटक के ज़रिए ये बूझने को मिला कि नन्हे से बच्चों को कितना सीखने की ज़रूरत हो सकती है.
ठीक से खाना, पीना, अपने आसपास की दुनिया को एक कोमल नज़रिए से देख पाना, हर प्राणी, और जीव जन्तु को एक ही भाव से प्रेम कर पाना. हेडमास्टर कोबोयाशी जो पुराने रेल के डिब्बे में तोमोय की कक्षाएं बैठाते थे, ये समझ चुके थे और चाहते थे कि उनके स्कूल में शिक्षा लेते बच्चे, प्यारे इंसान बन सकें और आगे चलकर वो सब कुछ, जो वो बनना चाहें बिना दबाव या प्रभाव के.
चूँकि ये कहानी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की है, नाटक में ज़रूरी था दिखाना अमेरिका और जापान के बीच की लड़ाई, जिसका भारी नुकसान आम लोगों ने उठाया. एक बमबारी के दौरान तोमोय खत्म हो जाता है. पर ऑडियेन्स में बैठे छोटे छोटे बच्चों को इतनी बड़ी त्रासदी दर्शाते वक़्त, निर्देशक और उनकी टीम ने खूब प्रवीणता से काम लिया. नाटक के भीतर एक नाटक खेला जो सिर्फ़ अच्छाई और बुराई के बीच के संघर्ष को दर्शाता है. इसके लिए मूल कहानी से हट कर, सौरभ अनंत ने एक दूसरी जापानी लोक कथा को नाटक में पिरोया, जिसके किरदार मोमोतारो और ओनी हैं. जापान में ओनी बुराई का प्रतीक है.
नाटक का ये भाव देखते समय में अत्यंत भावुक हो चली. वो भी एक छोटी सी समझ पर. एक दृश्य है जिसमें मोमोतारो दर्शकों की तरफ़ देख कर बहुत हल्के पाँव से चल रहा है. उसकी चाल में एक निर्मलता है, प्रेम है, धरा के प्रति. इसके विपरीत, विशाल ओनी, अपने भारी भरकम क़दम ज़मीन पर धम्माता हुआ, चलता है, अपनी छाप छोड़ता है. ये दृश्य शायद एक लंबे समय तक मेरी आँखों में पलेगा और समय समय पर उर्जा देगा सोचने की, कि कैसे चला जाए आने वाले रास्तों पर. ख़ासकर उस माहौल में जहाँ नन्हे बच्चे साँस भरते हों.
विहान ड्रामा वर्क्स और अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के संयोजन और भरपूर कोशिश से, अब तक इस नाटक को कस्बों और गांव के बच्चों और शिक्षकों तक भी ले जाया जा चुका है, जहाँ विमर्श और पहल हुई इस बात पर गौर करने की कि तोत्तो-चान की तरह हमारे देश में स्कूल कैसे हों और उनमें पढ़ाई कैसी हो. भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाने में अपना एक योगदान रंगमंच के सहारे कर रहा है ये नाटक. और रंगमंच या कला से बेहतर हो सकता है कोई मंच, भीतर के सोए हुए कोनों को जगाने के लिए.
अंततः मेरे भीतर चलता भाषा का ये टकराव खत्म हुआ जब मैंने देखा कि कन्नड़-भाषी दर्शकों से भरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंजा था. इनमें से कुछ की आवाज़ में शामिल हुई थी मेरे बेटे की खुशी की खनक जो बहुभाषी होने के कारण धीरे धीरे भाषाओं और उनसे उत्पन्न होती बारीकियों को देख सुन समझ रहा है.