खोट गांधी की प्रासंगिकता में नहीं, हमारे साहस में है!

श्रवण गर्ग
शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020 (15:21 IST)
हम डर रहे हैं यह स्वीकार करने से कि हमें गांधी की अब ज़रूरत नहीं बची है। ऐसा इसलिए नहीं कि गांधी अब प्रासंगिक नहीं रहे हैं, वे अप्रासंगिक कभी होंगे भी नहीं। हम गांधी की ज़रूरत को आज के संदर्भों में अपने साहस के साथ जोड़ नहीं पा रहे हैं। राजनीतिक परिस्थितियों के साथ समझौते करते हुए हम उनके होने की नैतिक ज़रूरत को ख़त्म होता हुआ चुपचाप देख रहे हैं। उसे अपनी मौन और अनैतिक स्वीकृति भी प्रदान कर रहे हैं।

परेशानी अब केवल इस बात की ही बची है कि गांधी की ज़रूरत को लेकर हम अपनी इस हक़ीक़त को सार्वजनिक रूप से कैसे स्वीकार करें? डर इस बात का है कि अगर हम भी ऐसा ही कर लेंगे तो इतिहास हमें भी उन लोगों के साथ नत्थी कर देगा जो गांधी के पुतलों में खून जैसी शक्ल का रंग भरकर कैमरों के सामने गोलियां दाग रहे हैं और अपनी इस क्रूरता पर तालियां भी बजा रहे हैं।

किसी आधुनिक क़िस्म के मेहमान के घर में प्रवेश की सूचना मात्र से ही जिस तरह हम ‘पिता’ को पीछे के कमरों में धकेल देते हैं, राज्य की या समाज की हिंसा की आहट मात्र से ही हम ‘राष्ट्रपिता’ को भी उनके आश्रमों और किताबों में क़ैद कर देते हैं। ऐसा आए दिन हो भी रहा है। जिस राज्य ने अहिंसा के नाम पर हिंसा को ही अपनी ताक़त बना लिया है, हम उसे ही लगातार कोसते रहते हैं कि वह ‘गांधी मार्ग’ से भटक गया है। वह भटका नहीं है, उसने गांधी मार्ग के समानांतर एक नए और आधुनिक मार्ग का निर्माण कर लिया है।

नागरिकों ने 'राष्ट्रपिता’ की देखभाल का काम भी सरकारों के जिम्मे उसी तरह से कर दिया है, जिस तरह से पिता या परिवार के किसी अन्य ग़ैर ज़रूरी बन चुके व्यक्ति को वृद्धाश्रमों के हवाले कर दिया जाता है। इनमें सरकारी अनुदानों पर पेट भरने वाली वे गांधीवादी संस्थाएं भी शामिल हैं, जिनके ऊपर गांधी के काम को ज़िंदा रखने की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

जब यह कहता हूं कि गांधी की अब हमें ज़रूरत नहीं रही तो उसका आशय यह है कि हमने उसे (ज़रूरत को) अपने ही तात्कालिक राजनीतिक-साम्प्रदायिक स्वार्थों के चलते जानते-बूझते समाप्त कर दिया है। पहली बार ऐसा चौदह अगस्त, 1947 को पाकिस्तान नामक पृथक राष्ट्र के उदय के साथ हुआ था। दूसरी बार 25 जून, 1975 को उस कांग्रेस के हाथों हुआ, जिसने गांधी की अगुआई में स्वतंत्रता हासिल की थी। और तीसरी बार मर्यादा पुरुषोत्तम राम की अयोध्या में छः दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचे के हिंसक विध्वंस के रूप में उन्हीं शक्तियों द्वारा किया गया, जिन्होंने 1975 के आपातकाल के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सक्रिय भागीदारी निभाई थी। अंतिम बार की समाप्ति पर तो हाल में 30 सितंबर को अदालत की मोहर भी लग गई। अब तो सत्ता की नई ‘अयोध्याओं’ पर निशान लगाए जा रहे हैं।

हम इस सच्चाई का सामना करने से कन्नी काट रहे हैं कि जिन शक्तियों को आत्मघाती दस्तों के रूप में गांधी विचार का मूल से उन्मूलन करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है, उनके मन में साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की पवित्रता को लेकर किसी भी प्रकार का द्वंद्व नहीं है। गांधी की ज़रूरत भी यहीं पहुंचकर दम तोड़ देती है। ये ताक़तें उनके द्वारा ही प्रतिपादित और संपोषित ‘राष्ट्रवाद’ और ‘देशप्रेम’ के नाम पर अपना सब कुछ छोड़ने और मार्ग के तमाम अवरोधों का विध्वंस करने के लिए तैयार हैं।

गांधी की ज़रूरत के प्रति एक ईमानदार अभिव्यक्ति की पहली शर्त ही यही है कि हम इन हिंसक आत्मघाती दस्तों का अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीक़ों से प्रतिकार करने के लिए अपने शरीरों के प्रति आसक्ति से उस तरह मुक्त होने को तैयार हैं या नहीं, जिसे कि गांधी ने अपने सत्य के प्रयोगों के ज़रिए सिद्ध किया था! हम गांधी के कंधों पर सवार होकर दुनिया को और ज़्यादा दूरी तक देखना चाहते हैं या उनका इस्तेमाल केवल एक ताबीज़ की तरह करना चाहते हैं?
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पिछले सात दशकों में हम केवल गांधी के पुतले ही बनाते रहे हैं। उन्हें चौराहों पर स्थापित करते रहे हैं। उन्हें साम्प्रदायिक हमलों का निशाना बनते देखते रहे हैं पर उनका कोई ‘क्लोन’ नहीं निर्मित कर पाए। 'क्लोन’ से तात्पर्य गांधी की किसी कृत्रिम शारीरिक प्रतिकृति से नहीं है। इस बात से है कि अब केवल हाड़-माँस का एक गांधी या वह गांधी जो काफ़ी पीछे छूट गया है, ही हमारी उम्मीद नहीं बन सकता। अब हमें बिना किसी गांधी के ही काम चलाना होगा। और हम ऐसा करने से ख़ौफ़ खा रहे हैं।

अमेरिका में अश्वेतों का जो आंदोलन इस समय चल रहा है उसका गांधीवादी मार्टिन लूथर किंग कौन है, किसी को भी जानकारी नहीं है। वहां प्रत्येक अश्वेत (और श्वेत भी) उस विभाजनकारी और साम्प्रदायिक सवर्णवाद का विरोध कर रहा है, जिसके कि गांधी ख़िलाफ़ थे। अगर हम में से कुछ लोग केवल अन्याय, शोषण, ग़ैर-बराबरी, साम्प्रदायिक हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ अपना मौन प्रतिकार भी प्रारम्भ कर दें तो गांधी की प्रासंगिकता को एक अनिवार्य ज़रूरत में बदल सकते हैं। और इसकी ज़रूरत प्रत्येक क्षण उपस्थित हो रही है, गांधी के जमाने से भी कहीं बहुत ज़्यादा। ऐसा भी नहीं है कि हम उसे देख नहीं पा रहे हैं! हमें केवल अपने दिल के किसी कोने से यह महसूस होना बाक़ी है कि हम गांधी और उसके विचारों की आत्मा के साथ हैं, उन ताक़तों के साथ नहीं जो प्रत्येक क्षण उनकी हत्या कर रहे हैं!

हिंसा की व्यवस्था पर चलने वाली सत्ताओं की सैन्य ताक़त की असली परीक्षा तो केवल युद्ध की परिस्थितियों में ही हो सकती है, पर गांधी की शक्ति और उनकी प्रासंगिकता का परीक्षण तो हर समय और वर्तमान के असामान्य और हिंसा से भरे माहौल में भी हो सकता है। उसके लिए केवल उनके विचारों में आस्था रखने वाले लोगों में साहस की ज़रूरत है। खोट गांधी की प्रासंगिकता में नहीं, हमारे साहस में है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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