तथ्यहीन हमलों के जोखिम समझें राहुल गांधी

अवधेश कुमार
हम पिछले करीब 3 वर्ष से निजी तौर पर नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार एवं भाजपा के खिलाफ राहुल गांधी का उच्च आक्रामक तेवर देख रहे हैं। वे बैठकों में पार्टी नेताओं से साफ शब्दों में मोदी एवं सरकार के विरुद्ध सख्त आक्रामक रुख अपनाने का लगातार निर्देश भी दे रहे हैं। चुनावी रणनीति पर बातचीत करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों तथा विधायक दल के नेताओं की बैठक बुलाई थी। उसमें भी उन्होंने दिशा-निर्देश के रूप में यही बातें कहीं।
 
पार्टी के अल्पसंख्यक विभाग के सम्मेलन में भी उन्होंने इसका जिक्र किया कि विपक्षी पार्टी और उसके नेता सरकार पर तीखा हमला करें, सरकार के मुखिया को निशाना बनाएं। खासकर चुनावी रणनीति के तहत तो इसे बिलकुल स्वाभाविक माना जाएगा। किंतु हमले, आलोचना और निंदा के लिए तार्किक और विश्वस्त मुद्दे होने चाहिए। अगर आप बिना आधार और ठोस तथ्य के आरोप लगाएंगे तो उसके परिणाम विपरीत भी हो सकते हैं।
 
2012 तक गुजरात में कांग्रेस और दूसरी पार्टियां मोदी को निशाना बनाती रहीं और मतदाता इनको नकारते रहे। कारण साफ था। विरोधी जो भी मुद्दे उठाते थे, वे ज्यादातर सच नहीं थे। मतदाताओं का बड़ा वर्ग अब मुख्य धारा की मीडिया तथा सोशल मीडिया के कारण ज्यादातर मुद्दों और मामलों की पहले से कहीं ज्यादा समझ रखने लगा है। इससे दलों और नेताओं की चुनौतियां बढ़ गई हैं। बड़े नेताओं तक वे भले सीधे नहीं पहुंचते लेकिन वे सच और झूठ के बीच फर्क को चाहें तो आसानी से समझ सकते हैं। राहुल गांधी और कांग्रेस को मोदी और सरकार के विरुद्ध हमले की रणनीति बनाते एवं अपनाते समय इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए था। प्रश्न है कि क्या कांग्रेस की रणनीति इस कसौटी पर खरी मानी जा सकती है?
 
आखिर राहुल गांधी किस मामले पर मोदी और सरकार के विरुद्ध सबसे ज्यादा हमलावर हैं? उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा राफेल है। एक अंग्रेजी समाचार पत्र ने राफेल विमान सौदे के दौरान उपरक्षा सचिव द्वारा लिखित तथा रक्षा सचिव द्वारा अग्रसारित एक पत्र को छापा जिसमें कहा गया था कि फ्रांस की टीम से बातचीत करने में प्रधानमंत्री कार्यालय की सामनांतर बातचीत से भारत का पक्ष कमजोर हो सकता है।
 
राहुल गांधी ने एकदम सुबह इस समाचार को आधार बनाकर पत्रकार-वार्ता बुलाई और उसमें राफेल से संबंधित वो सारी बातें दुहरा दीं, जो हम उनके मुंह से लगातार सुन रहे थे। उनके पास इतना भी धैर्य नहीं था कि सरकार की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर लें और उसके बाद तैयारी करके सामने आएं। उन्होंने अखबार में छपे जिस नोट को राफेल में सरकार के भ्रष्टाचार का प्रमाण बताया, उसका सच यही है कि अखबार ने पत्रकारिता के मापदंडों का उल्लंघन करते हुए आधी बातें छापीं।
 
24 नवंबर 2015 के उस पत्र या नोट पर तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर की टिप्पणी को अखबार ने गायब कर दिया। पर्रिकर ने उस पर लिखा है कि यह ओवर रिएक्शन है। रक्षा सचिव इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव से बातचीत कर सुलझा सकते हैं। तत्कालीन रक्षा सचिव जी. मोहन कुमार सामने आए और साफ किया उस पत्र का राफेल की कीमत से कोई लेना-देना ही नहीं था।
 
उसके बाद राफेल सौदे के लिए बनी भारतीय वार्ता टीम के तत्कालीन प्रमुख एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा ने भी इसका आक्रामक खंडन किया कि इस पत्र का सौदे की बातचीत से कोई लेना-देना था। एयर मार्शल सिन्हा का पूरा बयान आ गया है जिसे यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं। उनकी पीड़ा यह है कि कुछ लोगों द्वारा सिलेक्टिव और गलत तथ्यों का उल्लेख कर रक्षा खरीद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हो रही है। प्रश्न यह है कि तत्कालीन रक्षा सचिव और वार्ता टीम के प्रमुख की बात सही होगी या पत्र का एक अंश छापकर सौदे में भ्रष्टाचार का दावा करने वाले की?
 
वास्तव में राहुल गांधी की राफेल पर पूरी आक्रामकता आधारहीन साबित हो चुकी है लेकिन वे मानने को तैयार ही नहीं हैं। उनकी पार्टी के परिपक्व और विवेकशील नेताओं को भी इसका भान है कि कुल लगभग 59 हजार करोड़ के सौदे में जनता यह कैसे मान लेगी कि राफेल कंपनी ने 30 हजार करोड़ रुपए अनिल अंबानी की जेब में डाल दिए। अगर यह मान भी लिया जाए कि सौदे की बातचीत पर प्रधानमंत्री कार्यालय नजर रख रहा था या समय-समय पर कोई मार्ग-निर्देश ही दे रहा था तो इसमें गलत क्या है?
 
भारत की रक्षा मजबूती के ऐसे महत्वपूर्ण सौदे को जल्दी से पूरा करना सरकार की जिम्मेवारी थी। स्वयं प्रधानमंत्री ने फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ अप्रैल 2015 की फ्रांस यात्रा के समय खरीद के इरादे से समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय इससे अपने को पूरी तरह निरपेक्ष रखता तो वह गलत होता? प्रधानमंत्री कार्यालय की वार्ता टीम से संवाद का मतलब हस्तक्षेप करना नहीं होता। यह उसका दायित्व है। अगर यही भूमिका डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा निभाया होता तो सौदा उसी दौरान पूरा हो जाता।
 
कहने का तात्पर्य यह कि ऐसे आरोपों पर राहुल गांधी जितने आक्रामक हो जाएं, मोदी को चोर, दलाल... कुछ भी कहें, इसे आम मतदाता स्वीकार नहीं कर सकता। मोदी को सत्ता से हटाने के लिए सक्रिय मीडिया या बड़े एनजीओ एक्टिविस्टों के ऐसे कारनामे कुछ समय के लिए बवंडर खड़ा कर दें, लेकिन वे निष्फल ही होंगे। कुछ मीडिया संस्थान और एनजीओ एक्टिविस्ट गुजरात में मोदी के विरुद्ध ऐसे ही कुछ एकपक्षीय मुद्दे उठाते थे और कांग्रेस उस माया में मोहित होकर उछालने लगती थी।
 
परिणाम सबके सामने है। ऐसी हरकतों से लोगों का सामूहिक मनोविज्ञान मोदी के पक्ष में निर्मित होगा। लोग यह भी तो सोचेंगे कि किसी पत्र का एक अंश छिपाकर छापने वालों का जरूर कोई निहित स्वार्थ है। इसी तरह वे राहुल गांधी के बारे में यह धारणा बना सकते हैं कि वे बिना जांच-परख किए ही आरोप लगाने की गैरजिम्मेवार भूमिका निभा रहे हैं। सच यही है कि जिस अखबार ने पत्र छापा, अगर राहुल उसे नहीं उठाते तो वह बौद्धिक वर्ग की चर्चा तक सीमित रह जाता।
 
आम चुनाव में कौन जीतेगा व कौन हारेगा? इसकी भविष्यवाणी संभव नहीं किंतु देश का आम आदमी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि मोदी देश के साथ गद्दारी कर सकते हैं। राहुल गांधी राफेल के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय पर भी हमलावर हैं। 'नेशनल हेरॉल्ड' मामले में अपने एवं सोनिया गांधी, चिदंबरम पिता-पुत्र से लेकर अपने जीजा रॉबर्ट वाड्रा या अखिलेश यादव राज में खनन घोटाला या लालू परिवार की आय से अधिक संपत्ति मामलों की जांच को सरकार द्वारा जान-बूझकर परेशान करने का प्रमाण बताते हैं। वे चाहते हैं कि हर कांग्रेसी बोले कि मोदी और अमित शाह अपने विरोधियों को कुचलने या उनकी आवाज बंद करने के लिए इन संस्थाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं।
 
वैसे लोग, जो किसी विरोधी पार्टी से नहीं जुड़े या उसके समर्थक नहीं हैं, यह प्रश्न तो उठा ही रहे हैं कि आखिर वाड्रा के खिलाफ कार्रवाई इतनी देरी से क्यों हुई? लेकिन वे इसे गलत मानने को तैयार नहीं हैं। यह देश के सामने है कि इन सारे मामलों में न्यायालय का आदेश है। तो राहुल के हमले से लोग यह मान लेंगे कि न्यायालय के आदेश से हो रही जांच मोदी और शाह की विरोधियों को कुचलने का अलोकतांत्रिक और फासीवादी कदम है? यह संभव नहीं।
 
आखिर इनमें कौन है, जो न्यायालय में नहीं गया? स्वयं राहुल और उनकी माता सोनिया गांधी को 'नेशनल हेरॉल्ड' मामले में अन्य नेताओं के साथ जमानत करानी पड़ी। ये भी उच्चतम न्यायालय तक जा चुके हैं। वहां से माता-पुत्र को कोई राहत नहीं मिली। यहां तक कि इनके पिछले आयकर रिटर्न की स्क्रुटिनी के आयकर के निर्णय को भी उच्चतम न्यायालय ने जारी रखने का आदेश दिया हुआ है। ये सब बातें देश के सामने हैं।
 
अगर राहुल गांधी और उनके सलाहकार यह मानते हैं कि वे राफेल और जांच एजेंसियों पर हमलावर अंदाज में मोदी-शाह की जोड़ी को भ्रष्ट, चोर, संस्थाओं का दुरुपयोग करने वाला, विरोधियों को डराने वाला कहेंगे और जनता इनके खिलाफ होकर कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर देगी, तो यही कहा जाएगा कि इन्हें अपने रवैये पर हो रही जनप्रतिक्रियाओं का एक गोपनीय आकलन करना चाहिए। तथ्यहीन या एकपक्षीय तथ्यों के साथ हमलावर होने के खतरे ज्यादा हैं। राहुल की समस्या यह भी है कि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वे मोदी के खिलाफ उग्र हमला करते हैं तो उसके लावे उनकी ओर भी झुलसाने के लिए उड़ते हैं, क्योंकि विरासत उन्हीं की पार्टी की है इसलिए उन्हें ज्यादा संभलकर रणनीति बनाने की आवश्यकता है।

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