शब्द! तुम जी उठो फिर से...!

शैली बक्षी खड़कोतकर
शब्द, तुम जी उठो फिर से...!
हे शब्द-शक्ति! मेरे आराध्य.... सुनो! एक अकिंचन भक्त की आर्त पुकार है.... जागृत हो! कहां हो तुम? अपनी शक्ति किसी सीपी में बंदकर समंदर में डुबो आए हो, हिमालय की किसी कंदरा में रख भूल गए हो या कस्तूरी मृग से भटक रहे हो? नहीं मेरे इष्ट, यह तुम्हरी नियती नहीं, तुम तो स्वयं नियती-निर्धारक हो, साक्षात् ईश् स्वरूप हो। हे शब्द, जीवंत हो...!
 
    जानती हूं, तुम व्यथित हो। शब्दों के अतिवादी युग में लोगों ने भाषा की मर्यादा खो दी है और तुमने अपना मान।सुनने से ज्यादा कहने वाले हो गए हैं और पढ़ने से ज्यादा लिखने वाले। प्रत्येक व्यक्ति सब कुछ साझा करने को आतुर है, अपने विचार, भावनाएं, जिज्ञासा, समाधान। माध्यमों की सहूलियतों ने सबको मंच दे दिया है और अनर्गल बातों की बाढ़-सी आ गई है| चारों ओर बस शब्द हैं, उच्चारित, लिखित। शब्दों का ऐसा उफान है कि बस प्रलय ही आने वाला हो।
 
      समझती हूं, तुम आहत हो, क्योंकि आज असंख्य भाषाएँ हैं, अकूत शब्द-भंडार है, तराशा हुआ व्याकरण ज्ञान है फिर भी बहुतांश शब्द खोखले लगते हैं। मानो शब्द नहीं, बस उनका आवरण हो। जैसे, बड़े आकर्षक ढंग से पैक किया उपहार मिले और खोलो तो खाली। लोग एक दूसरे को एक से बढ़कर एक सुनहरे शब्दों के गिफ्ट पैक देने की होड़ में है पर वे भी जानते हैं कि अंदर कुछ नहीं है। अजीब खालीपन है, भयावह नीरवता है। दसों दिशाओं में शब्द व्याप्त हैं, फिर भी अर्थ और भाव संप्रेषित नहीं हो पा रहे हैं। विचित्र झटपटाहट है, जो है, उसी का आभाव है। क्या रह जा रहा है, अव्यक्त? क्यों कुछ छूट रहा है, अभिव्यक्ति की पहुँच से?
 
हे सखा, जाने कैसी चूक हो गई है, कि बहुत प्रयासों के, इतनी मिन्नतों, मनुहारों के बाद भी तुम्हारा सच्चा उत्कट रूप प्रकट नहीं होता? कैसी भूल हो रही है, कि तुम्हारा वैभव लुप्त हो गया। श्रीहीन लक्ष्मी की कल्पना भी हो सकती है कभी? वह तो अलक्ष्मी कहलाती है न। लगता है शब्द, तुम भी अशब्द हो गए हो। सिर्फ प्रतिछाया है तुम्हारी। न उच्चारित होने पर स्पंदन होता है, न लिखित आकृतियाँ मस्तिष्क को आंदोलित कर पाती हैं।
 
शब्द, तुम तो सनातन नाद-ब्रह्म हो। इस पृथ्वीलोक पर तुमने अपनी यात्रा ॐ से शुरू की और तुम मानव के विकास-यात्रा के भी साझीदार और साक्षी बने। हमने ध्वनियों और आकृतियों को पहचानकर संवाद की नींव रखी, फिर तुम्हारी उपस्थिति का भान हुआ। मानव को मां सरस्वती के वरदान के रूप में शब्द-शक्ति प्राप्त हुई और वेद ऋचाओं में तुम्हारी प्राण-प्रतिष्ठा हुई।
 
हजारों-सैकड़ों वर्ष पहले रचे ये आदि-ग्रंथ आज भी अर्थवान हैं, प्राणवान हैं, चाहे उपनिषद के श्लोक हो या मानस की चौपाई। शायद इसलिए कि उस समय जो भी रचा गया उसका आधार सत्य और प्रेम था। सच की ऊष्मा में उपजे और भाव की नमी में पनपे शब्द ही परिपूर्ण हो सकते हैं। या शायद इसलिए कि ये मनीषी पहले जीवन के मर्म तक पहुंचे, उन्हें शब्द-ब्रह्म की अनुभूति हुई। उन्होंने जान लिया कि शब्द, तुम स्वयं अविनाशी हो, आदि- अनंत हो। तुमसे से ही सृष्टि उत्पन्न हुई है और तुमसे ही उसमें प्राण हैं।यह जल, थल, आकाश, वायु, वनस्पति, जीवन सब चैतन्य की अभिव्यक्ति है।भाषा तो माध्यम मात्र है। फिर इन्होंने मां शारदा की आराधना की और तब जो शब्द प्रस्फुटित हुए वे सत, चिद और आनंद स्वरूप ही थे।
 
जब-जब तुम्हें पहचानकर और तुम्हारी महत्ता को समझकर तुम्हारी साधना की गई, तुमने अपना कोष मुक्तहस्त से लुटाया। तुम मीरा की स्वरधाराओं में झलके, कबीर और सूर के पदों में प्रतिष्ठित हुए, प. भीमसेन जोशी और कुमार गन्धर्व के आलापों में परमानन्द का सुख दिया। यहां तक कि रविशंकर के सितार के तारों से भी शब्द झरे हैं और प. बिरजू महाराज के घुंघरुओं में तुम्हारी प्रतिध्वनि गूंजी है।
 
लेकिन अब? अब तो तुम प्रार्थनाओं में तक सुनाई नहीं देते, सिर्फ तुम्हारी छाया का आभास होता है। तुम्हारी उदासीन उपस्थिति, तुम्हारे न होने से ज्यादा कारुणिक है।कैसे हो गए तुम इस तरह  निस्तेज, ऐसे प्राणहीन, इतने बोधरहित?  
 
इस विकट स्थिति में हमारे लिए क्या उपाय है, तुम ही बोलो? क्या ये सारे प्राणहीन शब्द गंगा में प्रवाहित कर मौन धारण कर लें? अपने लिए नए शब्द रचे या अर्थ के नए आयाम ढूंढे? क्या यह भटकाव ही मनुष्य की नियति है? वह हर युग में अज्ञान के अंधकार में खुद को धकेल दे और फिर नए सिरे से ज्ञान की तलाश करे।
 
तुमने केशव के रूप में अवतरित हो विश्व को गीता-अमृत दे दिया। फिर भी सिद्धार्थ को बुद्ध होना पड़ा, महावीर वन-वन भटके, शंकर तेजोमय आचार्य हो गए। तो क्या यह यात्रा हर युग को अपने लिए, अपने तरीके से तय करनी पड़ेगी? वेद, उपनिषद हो, कुरान हो या बाइबिल, इनके शब्द बस दीपक की ज्योति बनकर राह दिखा सकते हैं। तुम्हीं ने बताया है कि तुम्हारी अंतिम परिणिति मौन है। खुद से खुद तक पहुँचना याने शब्द से मौन तक का प्रवास है और मौन सार्थक संवाद के बाद ही उपजता है। संवाद अपने अतीत से, अपने समय से और अपने आप से| जब तक प्रश्न है, मौन संभव नहीं। सारे प्रश्नों के यथोचित उत्तर मिलने के बाद ही प्रज्ञा विकसित होती है। और जैसे-जैसे अंतर्दृष्टि गहरी पैठती है, शब्द शांत होने लगते हैं।।तभी तो कबीर कहते हैं-
 
‘साधो, सब्द साधना कीजै|
कबीर सबद शरीर में, बिन गुण बाजै तंत।
बाहर भीतर भरी रहिया, ताथै छुटि भरन्ति।
 
  कबीर ने तुम्हारी याने शब्द की, साधना का मंत्र दिया। वह शब्द जो कभी कही ही नहीं गया, कभी सुना ही नहीं गया। वह तो भीतर समाया है। अनाहत संगीत है, जो बज रहा है देह में, आत्मा में, कण-कण में, अपने-आप।वह शब्द-ब्रह्म, जिससे सारी भ्रांतियां मिट जाए।
 
ऐसे महर्षियों के माध्यम से तुमने बताया है कि अनकहे-अनसुने शब्द तक जाने के लिए मार्ग घुमावदार है। एक चक्र है, जो पूरा होना चाहिए, निरर्थक या विषैले शब्दों को छोड़ पहले सार्थक और प्रेममयी शब्दों की ओर चलें, फिर ये शब्द क्रमश: मौन की ओर ले जाए और उसके बाद फिर शब्द-ब्रह्म का चिर संगीत सुनाई दे।
 
लगता है, समय आ गया है कि इस शब्द-प्रलय के बाद सृष्टि शब्द-संयम सीखे, प्रेममयी संवाद का अभ्यास करे। यह युग भी अपने भागीरथ की बाट जोह रहा है, जो प्राणवान शब्द-गंगा को धरा पर बहा लाए, जो शब्द से मौन और फिर शब्द-ब्रह्म तक की यात्रा में हमारा सारथी बने। पर तुम जानते हो, हे अधिष्ठाता! उसे हम नहीं, तुम ही चुनोगे। क्योंकि युग-प्रवर्तक रचियता तुम्हें नहीं रचते, तुम स्वयं उन्हें रचते हो। तुम उनकी नियति बन जाते हो। इन शब्द-शिल्पियों की वाणी या कलम तो सिर्फ साधन रह जाते हैं। तुम स्वयं शक्ति हो, जो मानव कल्याण का निमित्त ढूंढ लेती है।
 
  अत: हे ओंकार स्वरूप! करबद्ध-अश्रुपूरित विनंती है तुमसे.... आओ! खोज लो, फिर कोई कबीर, तलाश लो कोई ओशो, जो अपने शब्दों से जन-जन के विचारों को आंदोलित कर दे। ढूंढ लो कोई तुलसी या मीरा जो शब्दों की वात्सल्य भरी छाँव में सृष्टि को छुपा ले। बहुत कम, लेकिन सच्चे प्राणवान शब्दों की इस युग को जरुरत है। आओ.. उपकृत करो प्रिय, उद्धार करो....! 
 

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