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नोटबंदी से बदहाल किसान को बजट से अपेक्षा

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संजय कुमार रोकड़े

भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसके चलते यहां की अर्थव्यवस्था का आधार भी खेती-किसानी है। आज भी गांव व शहर की आबादी को मिलाकर अस्सी फीसदी तक लोग खेती-किसानी के काम में जुटे हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार जो भी काम करेगी या निर्णय लेगी इतनी बड़ी आबादी को ध्यान में रखकर ही लेगी, लेकिन मोदी सरकार ने नोटबंदी के समय इस पूरी आबादी को नजरअंदाज कर दिया। 
 
हालात ये बने कि देश का तमाम सारा किसान दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गया। नोटबंदी को लेकर जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है वैसे-वैसे इसकी सच्चाई सामने आती जा रही है। नोटबंदी के चलते आम नागरिकों ने जो नरक भोगा है उसका जिक्र करना तो यहां लाजिमी नहीं लगता है लेकिन किसानों ने जो भोगा है उस पर नजरें इनायत करते हैं। फिलहाल हम नोटबंदी से किसान को होने वाले नुकसान और परेशानी पर बात करते हैं। 
 
नोटबंदी को लेकर हाल ही में देश के किसान नेताओं का एक आंकलन सामने आया है। यह आंकलन बताता है कि इसके चलते हर किसान को एक एकड़ के पीछे करीब पचास हजार रुपए का नुकसान हुआ है। कृषि संगठनों से जुड़े नेताओं का ये भी मानना है कि फल और सब्जी उपजाने वाले किसानों को तगड़ा नुकसान झेलना पड़ा है। भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने हाल ही में अपने बयान में ये कहा है कि ज्यादातर किसान फल और सब्जियां बोते हैं। नोटबंदी के कारण उन्हें औसतन 20 से 50 हजार रुपए प्रति एकड़ का नुकसान झेलना पड़ा है। यह नुकसान बहुत ज्यादा है। किसान जागृति मंच के अध्यक्ष सुधीर पंवार की मानें तो नोटबंदी ने तो किसानों की कमर ही तोड़कर रख दी है। किसानों की हालत बहुत खराब है। किसानों को उम्मीद है कि एक फरवरी को आम बजट में उनके नुकसान की भरपाई की जाएगी।
 
इसमें कोई दोराय नहीं है कि नोटबंदी के चलते कृषि क्षेत्र पर तगड़ी मार पड़ी है और वह अभी तक इससे उबर नहीं पाया है। इस परेशानी के चलते ही अब किसानों से जुड़े संगठन और उनके नेता नुकसान की भरपाई बजट में विशेष योजना बनाकर करने की मांग कर रहे। सभी किसान नेता एक सुर में ये बात दोहरा रहे हैं कि मोदी सरकार को किसानों की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए किसी विशेष योजना का ऐलान करना चाहिए ताकि किसानों को थोड़ी राहत मिल सके। 
 
काबिलेगौर हो कि नोटबंदी के समय देश के अनेक राज्यों से ये खबरें भी आ रही थीं कि किसानों को उसकी उपज का सही भाव-ताव नहीं मिलने के कारण फसल को ओने-पौने दाम में बेचना पड़ रहा है। खबरें तो ये भी सामने आई थीं कि किसानों ने सब्जियों को फ्री में बांट दी या फिर सड़कों पर फेंक दीं। जब किसान अपनी उपज को बाजार में ले जाता है और वह नहीं बिकती है या कीमत कम मिलती है तो वह उसे फेंकने के सिवाय क्या कर पाएगा। उसके पास दो ही रास्ते हैं या तो मामूली कीमत पर उपज बेचें या फेंके। 
 
नोटबंदी के दौरान आलम यह था कि मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में किसानों को आलू सड़कों पर फेंकने पड़े। किसानों को छत्तीसगढ़ के अनेक शहरों में टमाटर और मटर सहित दूसरी सब्जियों को सड़कों पर फेंकना पड़ा, हालांकि इस स्थिति के निर्मित होने का खास कारण कृषकों की फसल खरीदने वाले व्यापारियों के पास नकदी का अभाव रहा है। व्यापारियों की भी एक ही पीड़ा थी कि उनके पास उपज को खरीदने के लिए पैसे ही नहीं थे। चैक भी काम नहीं आ रहे थे, बैंकों में भी नकदी का खासा अभाव जो था। सच पूछो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो नया आर्थिक तंत्र (कैशलेस) का प्रस्ताव रखा उसे किसान अपना ही नहीं पा रहे हैं। नतीजा सामने है। फसल की कीमतें जमीन पर आ रही हैं और किसान मौत को गले लगाने के लिए मजबूर हो रहे हैं। अब तो सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि जब किसान को बुवाई की लागत के बराबर भी पैसा नहीं मिलेगा तो वह खेती कैसे करेगा? 
 
गौरतलब हो कि 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों को बंद करने के फैसले से रबी की बुवाई पर भी गहरा असर पड़ा है। हालांकि सरकार का कहना है कि इस साल रबी की बुवाई बढ़ी है। सरकार ये मानने को तैयार नहीं है कि किसानों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है। बहरहाल, इस साल रबी की बुवाई बढ़ने का जो दावा सरकार कर रही है, वह पिछले साल की तुलना के चलते ही कर रही है, जबकि पिछले साल सूखा पड़ा था और इसके चलते बुवाई कम हुई थी। असल में सरकार रबी की बुवाई बढ़ने का आंकड़ा बताकर अप्रत्यक्ष रूप से यह जताना चाहती है कि बुवाई के लिए पैसों की जरुरत नहीं है।
 
खैर। नोटबंदी ने सहकारी बैंकों के माध्यम से भी किसानों की कमर तोड़ने का काम किया है। नोटबंदी ने सहकारी बैंकों को अपने मकड़जाल में फंसाकर किसानों की परेशानी बढ़ाई। यह सर्व विदित है कि किसानों का अधिकतर लेनदेन सहकारी बैंकों से होता है। किसानों के पचास फीसदी से ज्यादा खाते इन्हीं बैंकों में होते हैं। इन बैंकों से वे एक ओर कृषि-कार्य के लिए कर्ज लेते हैं तो दूसरी तरफ अपनी बचत भी जमा कराते हैं। हजारों किसानों का मानना है कि मोदी सरकार ने हजार और पांच सौ के नोट बंद करके न केवल सहकारी बैंकों को तबाह किया बल्कि किसान को भी मरने के लिए मजबूर कर दिया। यह एक सच है कि किसानों को बैंकिंग सुविधा से जोड़ने के मकसद से शुरू किए गए सहकारी बैंकों की देश के ग्रामीण इलाकों में दूर-दूर तक पहुंच है। दूरदराज तक जहां सरकारी और व्यावसायिक बैंकों की मौजूदगी नहीं होती है वहां सहकारी बैंकों ने लोगों को वित्तीय सहारा देने में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन सरकार ने इन बैंकों को ही लेनदेन से दूर कर दिया।
 
दरअसल, सहकारी बैंकों को भी हजार और पांच सौ के पुराने नोट बदलने की प्रक्रिया में शामिल किया गया होता तो हालात शायद इतने बुरे नहीं होते। हालांकि सरकार ने सहकारी बैंकों को नोटों की अदला-बदली से अलग रखा तो कोई हर्ज नहीं, पर किसानों को संकट से बचाने की उसके पास क्या योजना थी? नोटबंदी के फैसले के बाद ग्रामीण इलाकों में बहुत बुरा हाल रहा। ग्रामीण इलाकों में कई किलोमीटर जाने पर किसी बैंक शाखा या एटीएम के दर्शन होते हैं, पर नोटबंदी के समय वहां नकदी के दर्शन नहीं हो रहे थे। रबी की बुआई के समय किसानों ने पुराने नोट बदलने की गुहार सहकारी बैंकों में लगाई, लेकिन उनको वहां निराशा का ही सामना करना पड़ा। 
 
किसान जिन सहकारी बैंकों से फरियाद कर रहे थे, उनसे मोदी सरकार ने फरियाद सुनने तक का हक ही छीन लिया था। इस तरह के माहौल में किसान ने कैसे खुद को संभाला, परेशानी होने पर उसका कैसे सामना किया? ये सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। उस समय किसान पर क्या बीती होगी? संकट में काम न आने पर क्या अब सहकारी बैंक अपने ग्राहकों का भरोसा कायम रख पाएंगे? क्या इस नोटबंदी से सरकार ने सहकारी बैंकों को अनुपयोगी मानकर उनकी विदाई का फैसला भी कर लिया था। 
 
असल में नोटबंदी से न केवल खेती-किसानी, बल्कि दूसरे कामों जैसे कारीगर, मकान निर्माण मजदूर पर भी विपरीत असर पड़ा है। यह जीडीपी का 45 प्रतिशत है और 80 प्रतिशत रोजगार इसी से आता है। यह सही बात है कि इस सेक्टर से टैक्स नहीं जाता, लेकिन यहां से रोजगार मिलता है। नोटबंदी के चलते यह लगभग रूक गया है। हालांकि नकदी की स्थिति सुधर रही है लेकिन युवाओं की नौकरियों और किसान की बदहाली पर समस्या और सवाल बरकरार है। अब किसान को नोटबंदी से होने वाले नुकसान की भरपाई इस बजट से होने की उम्‍मीद है।

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