Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

प्रकृति की खातिर हर बरस एक महीने लॉकडाउन हो!

हमें फॉलो करें प्रकृति की खातिर हर बरस एक महीने लॉकडाउन हो!
webdunia

ऋतुपर्ण दवे

दुनिया की सबसे बड़ी महामारी के रूप में उभरे कोरोना वायरस ने भले ही मानव जीवन के लिए गंभीर खतरे पैदा किए हों जिससे समूची दुनिया की जान पर बन आई। लेकिन उसी वायरस ने प्रकृति और पर्यावरण के लिए भी काफी महत्वपूर्ण संदेश तथा भविष्य के रास्ते भी निकाले जिसके बिना धरती पर जीवन नामुमकिन है।

यूं तो पर्यावरण के सुधार के लिए दुनियाभर में हर वक्त कहीं न कहीं चिन्तन और बैठकें होती रहती हैं। लंबा-चौड़ा अरबों-खरबों का बजट भी खर्च हुआ और जारी भी है। लेकिन न तो धरती की सेहत सुधरी और न ही आसमान के फेफड़ों में प्रदूषण की गर्द में कोई कमीं आती दिखी। नतीजा यह रहा कि प्रकृति और पर्यवारण के खातिर ऐसी कवायदें बस औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं रहीं।

हां इस कोविड-19 की महामारी के डर से समूची दुनिया में लॉकडाउन की जो मजबूरी बनी उसने देखते ही देखते प्रकृति और पर्यवारण का मानव कारित बदरंग चेहरा वापस किताबों, किस्से, कहानियों में लिखी पुरानी सच्चाई जैसे काफी कुछ बदल कर रख दिया और यह संदेश भी दे दिया कि तेजी से गंभीर रूप से बीमार हो रही कुदरत के लिए रामबाण दवा किसी वैज्ञानिक लैब में नहीं बन सकती बल्कि हमारे आचार, विचार और संस्कृति में ही छुपी है जिसे हम विकसित और विकासशील होने के भ्रम में भूलते जा रहे हैं।

अब सोचना होगा कि धरती और आसमान की बिगड़ती सेहत के चलते जहां बारिश में जबरदस्त कमीं आई वहीं वर्षा जल के संरक्षण के लिए कोई ठोस और कठोर नीति नहीं होने से हर कहीं भू-गर्भीय जल के भण्डार कम होते गए वहीं साफ हवा के कई वर्षों से लाले पड़े हैं। जलवायु परिवर्तन से जमीन बंजर होकर मरुस्थलों में तब्दील हो रही है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट यानी सीएसई की स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019 रिपोर्ट बताती है कि साल 2003 से 2013 के बीच जहां भारत का मरुस्थलीय क्षेत्र 18.7 लाख हेक्टेयर बढ़ा वहीं दुनिया का 23 प्रतिशत क्षेत्र मरुस्थल में तब्दील हो गया। इससे भी बड़ी चिन्ता यह है कि दुनिया में प्रति मिनट 23 हेक्टेयर भूमि मरुस्थल में बदल रही है।

साल 2050 तक यह बड़ी गंभीर चुनौती भी होगी क्योंकि तब खाद्य सामग्री की ग्लोबल डिमाण्ड अब से दो गुनी होगी। आंकड़ों के लिहाज से 2050 में 10 अरब लोगों के लिए भोजन, पानी का प्रबंध करना होगा जो बड़ी चुनौती होगी। वहीं अनाज उत्पादन की दर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज से 30 प्रतिशत घटेगी और साल में औसत एक महीने पानी की कमीं से जूझते दुनिया के मौजूदा 3.6 अरब लोगों की संख्या भी तब 5 अरब के पार हो जाएगी। यानी भूख और पानी दोनों की विकरालता भयावह होगी।

भारत के लिए फिलाहाल भले ही यह सुकून की बात हो कि अनाज उत्पादन में अभी सुधार हो रहा है लेकिन भविष्य की जरूरत के लिहाज से यह नाकाफी है। नीति आयोग ने भी अपनी एक रिपोर्ट में माना है देश कि भारत की 60 करोड़ आबादी जल संकट से जूझ रही है। दिल्ली, कोलकता, चेन्नई, कानुपर समेत 21 बड़े शहरों में भूजल समाप्त होने की चेतावनी भी दी। वहीं भारत में 5 लाख वाटर स्प्रिंग्स यानी पानी का चश्मा थे जिनमें से 3 लाख हिमालय की तराई रहे जो अधिकतर सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। पानी की कमीं की तस्वीरें यूं तो सालभर कहीं न कहीं दिखती हैं लेकिन गर्मी आते ही यह बेहद आम हो जाती हैं और इसके लिए लड़ाई, झगड़ों और मौतें तक होना आम बात है।

दुनिया भर में प्रकृति और पर्यवारण के सुधार के लिए अब तक कितना धन खर्च हो चुका है इसका हिसाब शायद ही कहीं मिल पाए लेकिन इतना जरूर अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब तक जितनी भी राशि खर्च हुई होगी उससे पूरी दुनिया के लिए लंबे वक्त तक घर बैठाकर दाना-पानी का इंतजाम जरूर किया जा सकता था। इस बार दुनिया भर में चले और चल रहे लंबे लॉकडाउन के दौरान इंसानी गतिविधियां एकाएक थम गईं, न तो सड़कों पर गाड़ियों का न टूटने वाला सिलसिला दिखा, न ही आसमान में हवाई जहाजों के कोलाहाल तथा कल-कारखानों से निकले धुंए, गंदे और रसायन युक्त पानी की नदियों में मिलावट की गंदी धार ही दिखी।

नतीजन देखते ही देखते आसमान साफ हो गया, नदियां निर्मल हो गईं, तापमान में अप्रत्याशित गिरावट आई और भारत में इस साल की गर्मीं पिछले कुछ बरसों जैसी न होकर 25-30 साल पहले जैसी सहन करने वाली हो गई। ओजोन परत के बढ़ते छेद में इतना सुधार हुआ कि बन्द हो गया और भारत में ही कई बरसों के बाद मानसून ने तय वक्त यानी 1 जून को केरल में दस्तक देकर जतला दिया कि प्रकृति क्या कह रही है!

यह स्थिति दुनिया में हर कहीं दिखी। अब इसे देखना और समझना उन्हीं नीति निर्माताओं पर निर्भर है जो रात-दिन पर्यावरण और प्रकृति को लेकर लंबे-चौड़े बजट के साथ माथपच्ची करते रहते हैं जिसका नतीजा जग जाहिर है। प्रदूषण को लेकर ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के प्रमुख और कैलिफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रॉब जैक्सन की एक रिपोर्ट बताती है कि लॉकडाउन के चलते 75 साल बाद फिर से धरती पर हवा और पानी में शुध्दता दिखी और कार्बन उत्सर्जन के मामले में बिना खास कोशिशों के 5 फीसदी की गिरावट होगी जो दूसरे विश्व युध्द के बाद बन रही है। जाहिर है सारा कुछ सड़क, हवाई, समुद्री यातायात से लेकर बड़े कल-कारखानों में तालाबन्दी से ही हुआ।

आजादी के वक्त भारत में करीब 6 लाख गांव हुआ करते थे और औसतन हर गांव में 5 साफ-सुथरे जल स्त्रोत भी होते थे। यानी देश में लगभग 30 लाख जल संरचनाएं थी। विडंबना और हमारी तरक्की का नतीजा देखिए आज 20 लाख से ज्यादा तालाब, कुंए, झील और पोखर सूख गए। इसी तरह महज 10 बरस में लगभग 4500 नदियां भी सूख गईं जो लगभग साढ़े 10 हजार ही रह गईं। जो हैं बुरी तरह से प्रदूषित और दम तोड़ती नजर रही हैं। हम सबने अपने इलाके की नदियों को दम तोड़ते और मरते देखा है। लेकिन कुछ गिने-चुने मामले छोड़ दें तो शायद ही किसी ने आवाज उठाई हो। जबकि यह सब देखने के लिए अलग विभाग और ट्रिब्यूनल तक बन गए हैं। इसी तरह आसमान पर प्रदूषण की धुंध साल के 9-10 महीने एकदम आम हो गई है।

बरसात के समय थोड़ा कम जरूर होती है जो ठण्ड आते ही कहर ढ़ाती है। बड़े शहरों की प्रदूषण की हकीकत नवंबर, दिसंबर में सर चढ़कर बोलने लगती है लेकिन ठण्ड जाते लोग भूलने जाते हैं। कहने का मतलब सारा कुछ केवल कागजों और औपचारिकताओं में चल रहा है जबकि धरातल पर हकीकत कुछ और है। यदि इसी साल के शुरुआत की भारत के 10 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची देखें तो पता चलता है कि प्रदूषण का सबसे खतरनाक स्तर केवल बड़े महागरों में मानना भ्रम है क्योंकि झरिया, धनबाद, नोएडा, गाजियाबाद, अहमदाबाद, बरेली, प्रयागराज, मुरादाबाद, फिरोजाबाद और दिल्ली क्रमशः ज्यादा से कम प्रदूषितों की सूची में शामिल हैं।

जाहिर है प्रदूषण की मार हर कहीं है। यकीनन पहला, बीमार प्रकृति दूसरा, दम तोड़ता पर्यावरण और तीसरा धरती की सूखती कोख मानव अस्तित्व के लिए बहुत ही भयावह खतरा है जो कोरोना से कई गुना ज्यादा नुकसानदेह है। लेकिन कोरोना के चलते हर कहीं हुए लॉकडाउन ने न केवल दुनिया की आंखें खोल दी बल्कि नासूर बन चुकी तीनों समस्याओं का चुटकी में अपने आप सुलझना और उबरना बड़ी नसीहत, दवा और दुआ भी बनी। लॉकडाउन ने समूची दुनिया को प्रकृति और पर्यावरण के मुस्कुराने की राह आसान करते हुए बड़ा संदेश जरूर दिया है। निश्चित रूप से भविष्य में प्रकृति और पर्यावरण की सेहत सुधारने के लिए लॉकडाउन ही जरूरी होगा इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हां अब इसके लिए उन तमाम जिम्मेदारों को देखना, समझना और गुणा-भाग करना होगा जो इसके लिए लंबे-चौड़े बजट के साथ सुधार योजनाओं में अरबों-खरबों की धनराशि खर्च करते हैं और नतीजा कुछ निकलता नहीं।

अब वक्त आ गया है कि दुनिया भर में तैयारी कुछ इस तरह हो कि हर साल एक साथ पूरी दुनिया को लॉकडाउन किया जाए ताकि प्रकृति और पर्यावरण को भी खुद को दुरुस्त करने का मौका मिल सके और जितना भी बजट इसके सुधार में खर्च किया जाता है उसे पहले ही व्यवस्थित तरीके से लॉकडाउन पर खर्च कर लोगों के राशन, पानी और उन दूसरी जरूरतों के लिए खर्च किया जाए जिससे सभी एक महीने के एकान्तवास यानी होम क्वारन्टाइन या लॉकडाउन जो भी कह लें में आराम करें और प्रकृति पूरी उन्मुक्तता से अपने को अगले 11 महीनों के निखार ले जिससे इंसानी हरकतों से हुए प्राकृतिक नुकसानों की भरपाई भी हो सके और पर्यावरण,प्रदूषण को हो चुके नुकसान की भरपाई भी हो जाए। निश्चित रूप से यह तय है कि आने वाले वक्त में लॉकडाउन ही प्रकृति की रक्षा का हथियार साबित होगा।

(नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

भारतीय अमेरिकी समुदाय के नेता रमेश पटेल का कोविड 19 से निधन