सत्ता का प्रहार नहीं, कृषकों की चीख-पुकार सुनिए

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
सरकार के कृषि सम्बंधित कानूनों के विरोध में किसान सड़कों पर उतर आया है लेकिन सरकार पर सत्ता की हनक सवार है। इसलिए वह किसी की भी नहीं सुनना चाहती। कई सारे दृश्य, छिटपुट वीडियो, तस्वीरें सोशल मीडिया पर दौड़ रही हैं, जिनमें देशविरोधी बातें सामने आ रही हैं।

इसी आधार पर किसान आन्दोलन को नकारने का प्रयास किया जा रहा है। यह सत्य है कि इन हथकंडों से प्रश्नचिन्ह भी उठते हैं और मन भी उद्वेलित होता है किन्तु क्या इस आधार पर किसानों के स्वर को उपेक्षित कर देना उचित बात होगी? हालांकि यह सर्वविदित है कि देशविरोधी तत्व हर उस आन्दोलन, गतिविधि में संलिप्त होकर अपने घ्रणित एजेंडें को चलाने के चक्कर नष्ट-पथभ्रष्ट कर देते हैं जो उस आन्दोलन का प्राणतत्व एवं मूल भावना होती है। ऐसी स्थिति में यदि किसान आन्दोलन की आड़ में कोई भी देशविरोधी कृत्य होता है तो उसे गलत कहना चाहिए तथा उसका प्रतिकार करना चाहिए।

किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि किसानों के आन्दोलन को कुछ भी कहकर नकार देंगे। यदि किसानों के बीच में षड्यंत्रकारी घुस आए हैं तो उनको बेनकाब करिए और वैधानिक तरीके से दण्डात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए, लेकिन किसानों पर राजसत्ता की ताकत आजमाना भारतमाता के प्रति द्रोह है। सत्ताधीशों को जनता की समस्याएं केवल विपक्ष में रहते हुए दिखती हैं, उसके पश्चात जब सत्ता की कुर्सी मिल जाती है तब धृतराष्ट्र जैसा प्रलाप किया जाता है।

किसानों के ऊपर किए गए एक-एक प्रहार आपको चैन की नींद सोने नहीं देंगे। किसान न तो आतंकी है और न ही द्रोही तथा न ही वह अवांछनीय मांग कर रहा है। देश को चलाने के लिए सभी तंत्रों का सशक्त होना आवश्यक है किन्तु किसान का सशक्त होना क्यों नहीं? जब अर्थव्यवस्था चरमराती है तब सत्ताएं उद्योगपतियों के साथ बैठकर चर्चाएं करती हैं तत्पश्चात उद्योगपतियों की मंशानुरूप कार्ययोजनाएं तैयार करती हैं जिनमें उन्हें विभिन्न छूट,कर्ज पर  हजारों करोड़ों की शासकीय सहायता मिलती है। लेकिन जब बात किसानों की आती है तब सत्ताएं क्यों किसानों से चर्चा नहीं करती व उन्हें भी भारी-भरकर बजट वाली शासकीय सहायता उपलब्ध करवाती? आखिर उन सत्ताओं के पास आर्थिक कंगाली तब ही क्यों आती है,जब कृषकों के कर्जों को माफ करने की बारी आती है?

देश के बजट का गणित क्या तब नहीं गड़बड़ाता जब उद्योगपतियों को दिवालिया होने से बचाने के प्रयास सरकार अपने खर्चे पर करती है? मानिए या न मानिए किसान का जीवन स्तर जितना दयनीय एवं मर्मान्तक हो चुका है उसकी सत्ताधीशों को अनुभूति नहीं है। भले ही इसका पाखंड किया जाता रहे कि हम किसानों के साथ हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि विधिवत तरीके से किसानों का शोषण,सरकार व बाजार तंत्र कर रहा है।

संसद एवं विधानसभाओं में बैठने वाले नुमाइंदों के जनप्रतिनिधि बनने से पूर्व एवं जनप्रतिनिधि बनने के बाद से लेकर वर्तमान में उनकी निजी व पारिवारिक संपत्ति की जांच करिए तब पता चलेगा कि देश की समस्याओं के असली जनक कौन हैं? संसद के पेट में तब क्यों मरोड़ें नहीं उठती हैं? जब देश की जनता सांसदों, विधायकों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों के आय-व्यय का ब्यौरा तलब करने की बात करती है याकि राजनीति के मुखौटे को उतारकर उनके आपराधिक कुकृत्यों से पर्दा उठाने की मांग करती है।

कहां मर जाती है जनप्रतिनिधियों की आत्मा जब कृषक कर्जे के बोझ तले आत्महत्या कर लेता है और उसका परिवार बेसहारा हो जाता है। भीषण प्राकृतिक प्रकोपों के साथ-साथ आर्थिक प्रकोपों के कारण जब हर दिन किसान की आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते हैं, तब क्यों कहीं प्रतिकार का ज्वार नहीं उठता? किसानों से पूछें बिना व सलाह किए बगैर सरकारें अपना फरमान थोप देती हैं और अपने तंत्र के पाटों के माध्यम से किसानों का दमन करने से एक भी पल नहीं हिचकिचाती क्या यही भारतीय चेतना है?

संविधान निर्माताओं या विभिन्न पार्टियां जिन महापुरुषों को अपना आराध्य मानतीं हैं तथा उन्हीं का अनुसरण करने का दंभ भरती हैं। क्या इन पार्टियों ने अपने उन महापुरुषों के कृषक व कृषि सम्बंधित नीतियों को पढ़ा है? यदि पढ़ा भी है तो वर्तमान में जो हो रहा है वह उससे क्या एक भी प्रतिशत मेल खाता है? क्या देश की धारणा कृषि व कृषकों को लेकर बाजारीकरण वाली रही है? यदि नहीं रही तो आज जो हो रहा है वह क्या है? किसानों के दमन का तरीका क्या वही नहीं है जो ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान रहा है? सत्ताएं यह क्यों भूल जाती हैं कि किसान आपका विरोधी नहीं बल्कि उन नीतियों का विरोधी है जिससे उसका जीवन बद् से बदतर बन जाएगा।

वैसे भी किसान के पास खोने के लिए और बचा ही क्या है? जैसी परिस्थितियों में किसान जी रहा है, उससे बेहतर तो मृत्यु है। किसान के पास उसकी जमीन भी तो नहीं बची है, बाजार व राजनेताओं ने उसकी विवशता का मोल लगाकर उसके खेतों पर अपने कब्जे का झंडा गाड़ दिया है। अब बची-खुची जमीन जो है उस पर वह किसानी कर रहा है, बाजार तो शुरू से ही शोषण करता आया है। किन्तु अब सरकार ने अपने कर्त्तव्यों से पीछा छुड़ाने के लिए जिस तरीके से हाथ पीछे खींचना चालू किया है, उसके पश्चात किसान के पास दमनचक्र में पिसते रहने के अलावा शेष बचता ही क्या है?

यदि वह अपने अधिकारों के लिए सत्ताओं को अपनी चीत्कार सुनाने के लिए आ रहा है, तब उस पर सत्ता अपने बल का प्रयोग करते हुए समाधान की बजाय दमनात्मक कदम उठा रही है? क्या यही संवैधानिक अधिकारों की बात है? क्या धरतीपुत्र के संवैधानिक अधिकार नहीं है याकि संवैधानिक अधिकार एवं सामर्थ्य केवल सत्ताधीशों, राजनेताओं, बाजार की ही होती है? क्या यह वही किसान नहीं है जो आपको वोट देकर सत्ता पर बैठाता है? सरकार कोई भी कदम उठाए लेकिन किसान तो कभी भी किसी के विरुद्ध खड़ा नहीं होता।

फिर जब किसान अपना स्वर बुलंद करता है तब ऐसे में सभी किसानों की आवाजों को बन्द करने पर उतारू क्यों हो जाते हैं?मत मारिए किसान को क्योंकि वह वैसे भी अधमरा हो चुका है इसके बाद भी सत्ताएं अपनी चाबुक से यदि उसकी पीठ पर ऐसे ही कोड़े मारती रही आईं तब तो उसकी चीत्कार से गूंजती देश की माटी, उसके लहू से सनी हुई सड़कें, तंत्र की खून से रंगी लाठियां और खेत जवाब मांगेंगे। उसकी आत्महत्याओं के गवाह वे दरख्त जिन पर फन्दे बनाकर वह लटक गया था, जब वे पूछेंगे सवाल तब क्या सत्ताएं आंख में आंख मिलाकर बातें कर पाएंगे?
कृषक की विधवा पत्नी,बूढ़े मां-बाप, निराश्रित अबोध बालकों की हाय क्या सत्ताओं को सुख से सोनें देगीं? आपके पास तंत्र की ताकत है, सामर्थ्य है तो इसका मतलब यह नहीं होता कि आप धरतीपुत्रों पर प्रहार करेंगे।

फिर भी सत्ता का नशा अपने आप में अनूठी चीज होती है इसलिए जो बन पड़े कीजिए। कृषक याचक नहीं दाता है लेकिन उसे भिखारी इस कुटिल व्यवस्था ने बनाया है, अन्यथा वह आज इस तरह बेबस और लाचार न मिलता। यदि मानवता एवं मां भारती के शस्यश्यामला वाली अनुभूति यदि रंचमात्र भी बची हो तो कृपा करके कृषकों की चीख-पुकार सुन लीजिए।

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है

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