जून आधा बीत गया लेकिन देश में कई जगह पारा अब भी रिकॉर्ड बनाने पर तुला है। जहां राजस्थान के चुरू में 50 के पार जा पहुंचा वहीं बाकी राजस्थान सहित मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा और कई दूसरे इलाके यानी देश के आधे से ज्यादा हिस्से धधक रहे हैं और पारा 45 से 49 सेल्सियस के बीच गोते लगा रहा है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली खुद इस जून में बेइंतहा गर्मी का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाने जा रही है। पिछले एक पखवाड़े से यही हालात है, जो अब असहनीय हो चुके हैं। गर्मी ऐसी कि रेल के डिब्बे चलते-फिरते तंदूर बन गए हैं। कई यात्रियों की जान जा चुकी है।
हालात आने वाले सालों में ऐसे न होंगे, इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं। लेकिन यह सब क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है? इसकी फिक्र किसे? सवाल उससे भी आगे का है। इन हालातों में क्या भरोसा कि भविष्य में मौसम का कोई तय चक्र ही न रह जाए?
अब तो पुरानी कहावतें भी झूठी साबित हो रही हैं। पहले ऐसा नहीं था। भरपूर हरे-भरे जंगल और साफ-सुथरी नदियां थीं। तब न नदियों का सीना छलनी करने वाले, न पहाड़ों को तोड़कर रेगिस्तान बनाने वाले और न जंगलों को काटकर पर्यावरण बिगाड़ने वाले माफिया इस कदर और बेखौफ सक्रिय थे, जैसे कि अब हैं। लगभग हर गांव के पोखर, तालाब, कुएं व झरने वहां की शान होते थे। पानी की कोई कमी थी ही नहीं। नदियों के किनारे हरियाली और साग-सब्जी की बहार हुआ करती थी। बारहों महीने बहने वाले नाले थे।
यह भी सही है कि आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े बताते हैं कि 1990 से 2010 के बीच दुनिया की आबादी 30 प्रतिशत यानी 1.6 अरब बढ़ी है। इसमें सबसे आगे भारत ही है जिसकी आबादी 35 करोड़ बढ़ी जबकि चीन की केवल 19.6 करोड़ ही बढ़ी।
आबादी का यही अनुपात रहा तो संसाधनों की किस तरह कमी होगी, यह सोचकर ही डर लगता है। यह भी सच है कि बढ़ती आबादी को रोकना तो दूर, उल्टा पूर्ति के लिए ही प्रकृति के साथ अत्याचार भी उसी अनुपात में बढ़े हैं। उसी का नतीजा है कि जिससे कहीं बाढ़, कहीं गर्मी तो कहीं सर्दी के सितम सामने हैं और प्राकृतिक स्रोतों और संसाधनों में तेजी से कमी आई है।
सबको पता है कि प्रकृति उसमें भी धरती और आसमान के साथ कथित मानव सभ्यता के नाम पर हो रही बेइंतहा ज्यादती से जहां धरती का बुखार बढ़ रहा है, वहीं आसमान का भी मिजाज भी काला-पीला हो रहा है। पानी खत्म हो रहा है। न बारिश का पानी सहेजने की चिंता है और न हरियाली बढ़ाने की कोई गहरी राजनीतिक सोच ही दिखती है। धरती और पर्यावरण को बचाने की खातिर नई सोच की रेंगती-सी रफ्तार बहुत धीमी बल्कि दिखावटी लगती है।
प्राकृतिक जलस्रोत दिन-प्रतिदिन दम तोड़ रहे हैं। जहां धरती के गर्भ में बचे पानी को भी गहरे ट्यूबवेल से कदम-कदम पर पानी निकालने की होड़ में धरती की कोख को भी सूखा करने का कोई डर नहीं है, वहीं वर्षा जल को सहेजने के लिए जरूरी कोशिशें भी नहीं हो रही है।
पर्यावरण की खातिर जो भी कुछ हो रहा है, वह कागजों में व्यवस्थित लेकिन हकीकत में नदारद है। साफ हवा तक नसीब नहीं है। बड़े शहर वाहनों, कारखानों के प्रदूषण, कूड़े-करकट के जलते धुएं तो गांव व कस्बे की नरवाई व पराली जलाने के अलावा साफ हो चुके जंगलों के कारण स्वच्छ न होती दूषित हवा व खत्म होती हरियाली से अनियंत्रित होते तापमान से सभी हलाकान हैं।
क्या हम फिलीपीन्स मॉडल नहीं अपना सकते, जहां विद्यार्थी को ग्रेजुएशन की डिग्री तभी मिलती है, जब उसने 10 पौधे लगाए हों और जो सुरक्षित हों। फिलीपीन्स सीनेट ने एक प्रस्ताव लाया है जिसका नाम- ‘ग्रेजुएशन लिगेसी फॉर द एन्वायरन्मेंट’ है, जो जल्द कानून बनेगा। इसका स्कूल, कॉलेज तथा कृषि क्षेत्र के अलावा आम नागरिकों के लिए पालन जरूरी होगा। पौधों हेतु जमीन और हिफाजत की जवाबदेही सरकार की होगी। पेड़ों को लगाने, बचाने व बढ़ाने की जवाबदारी विद्यार्थियों की होगी।
यह सच है कि भारत में बिगड़ते पर्यवारण को लेकर अगर सबसे ज्यादा सचेत कोई है तो वह है यहां का मीडिया। अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपनी ईमानदार भूमिका न निभाए तो हो सकता है कि हमारे लोकतंत्र के नुमाइंदों को फिक्र भी न आए कि पाताल, धरती और आसमान की क्या हालत हो रही है?
ठंड बढ़ते ही दिल्ली गैस चैम्बर में तब्दील हो जाती है तो देशभर में वाहनों के प्रदूषण और फैक्टरियों की चिमनियां, दूषित नदियां अलग आबोहवा के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। डीजल गाड़ियों के चलते हालत बद से बदतर हो रही है। फसलों के कटते ही कहीं पराली तो कहीं नरवाई के जलने से धुआं-धुआं होते गांवों और शहरों की तस्वीरें अब आम हैं। जानते हुए भी सब मिलकर खराब हो चुके वायुमंडल को लगातार खराब किए जा रहे हैं। अपनी खुद की भावी पीढ़ी के बारे में सोचने की न किसी को चिंता है और न कोई तैयार ही दिखता।
अब चेतना ही होगा। अब नहीं तो कब? जब-जब हमारी भावी पीढ़ी इतनी भीषण गर्मी का वैसा ही शिकार होने लगेगी, जैसा कभी देश में चेचक, हैजा, पोलियो व कुष्ठ रोगों के चलते होता था तब क्या होगा? वर्षों पहले मौत का सबब बनते संक्रामक रोगों पर काबू जरूर पा लिया है और पाते जा रहे हैं, जो बड़ी उपलब्धि है, लेकिन बिगड़ते पर्यावरणजनित नए रोगों को भी उसी तेजी से न्योता दे रहे हैं।
हवा, पानी, धरती और आसमान के साथ विकास के नाम पर ज्यादती-दर-ज्यादती कर नई मुसीबतें और किस्म-किस्म की बीमारियों से स्थिति भयावह होती जा रही है। बावजूद इसके, पर्यावरण की चिंता के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता दोनों की जरूरत है, जो कि दिखती नहीं। पंच, सरपंच से लेकर विधायकों, सांसदों की सुनिश्चित और ईमानदार भागीदारी बेहद जरूरी है।
राजनीतिक दलों को धरना, प्रदर्शन के अलावा पर्यावरण के लिए भी मुहिम चलाकर जागरूकता की खातिर सोचना होगा। पर्यावरण सुधार के लिए सख्त कानूनों की भी जरूरत है। विडंबना देखिए कि भारत दुनियाभर में पर्यावरण की बैठकों में दशकों से बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता आया है जिसमें ओजोन परत में छेद, तापमान घटाने, हरियाली बढ़ाने, पिघलते ग्लेशियरों पर खूब चर्चा होती है। लेकिन देश में पर्यावरण को लेकर अंदरुनी हालात कितने बदतर हैं, ये किसी से छुपे नहीं हैं।
निश्चित रूप से प्रकृति की तबीयत सुधारने और धरती का बुखार उतारने यदि केंद्र और राज्य सरकारें भी सख्ती करती हैं, तो स्वागतयोग्य होगा। लेकिन नागरिकों के साथ-साथ प्रशासनिक मशीनरी और जनप्रतिनिधियों पर भी बराबर की जिम्मेदारी और कार्रवाई हो तभी इसके नतीजे निकलेंगे। वरना अफसरशाही के बीच आयाराम और गयाराम की राजनीति सरीखे सरकारें आती-जाती रहेंगी और धरती, आसमान, जल, जंगल, जमीन व पहाड़ यूं ही विकास के नाम पर दम तोड़ते रह जाएंगे!