सड़ता शिक्षा तंत्र- उभरते सवाल

सुशील कुमार शर्मा
शिक्षा पर बात करने से पहले एक सरल-सा किंतु महत्वपूर्ण आंकड़ा आपसे शेयर करना चाहूंगा। भारत की जनसंख्या करीब 1 अरब 25 करोड़ है एवं विश्व की जनसंख्या करीब 7 अरब है इसका मतलब है कि पूरे विश्व की 18% जनसंख्या भारतीय है। औसत रूप से विश्व की कंपनियों में करीब 20% कर्मचारी भारतीय हैं।


 

नासा में करीब 36% भारतीय वैज्ञानिक हैं। ये गर्व की बात हो सकती है लेकिन इनमें से शायद ही कोई भारतीय शिक्षा तंत्र की देन हो, यह एक राष्ट्रीय शर्म का विषय माना जा सकता है। भारतीय होना गर्व की बात है लेकिन वर्तमान भारतीय शिक्षा एक शर्म और चिंता का विषय बनकर रह गई है।
 
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में शिक्षा का क्षेत्र पूर्णत: उपेक्षित हो गया। शिक्षा का व्यवसायीकरण हुआ। शिक्षा को अधिक से अधिक धनोपार्जन का माध्यम बनाने का प्रयास हुआ। बेकारी, बेरोजगारी को रोकने के लिए सतत प्रतियोगी परीक्षाओं की बाढ़-सी आ गई। उच्च शिक्षा के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। सुप्रसिद्ध शिक्षाविदों ने एकमत से इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा, 'भारत की वर्तमान प्रशासनिक-शैक्षिक व्यवस्था औपनिवेशिक तंत्र की अनुकृति है जिसे एक विशेष शोषणकारी उद्देश्य से बनाया गया है। इससे गांव व समाज टूटा है, नि:स्वत्व हुआ है। उसी तंत्र का विकास शोषण जारी रखने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यूरोपीय लोगों की पूरी दृष्टि ही शोषणकारी, उपभोगवादी, प्रकृति-प्रतिरोध और भारतीय अर्थ में धर्मविरोधी है।'


 
इस तंत्र के जनक मैकाले ने ब्रिटिश संसद में एक भाषण के दौरान कहा था कि मैंने पूरे भारत की चतुर्दिक यात्राएं की हैं और पाया कि वहां पर कोई भी भिखारी या चोर नहीं है। वहां सभी उच्च नैतिक आदर्श वाले धनाढ्य लोग बसते हैं। मुझे नहीं लगता कि हम कभी उस देश को जीत सकते हैं, जब तक कि हम उस देश की रीढ़ की हड्डी यानी उसकी सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत पर कुठाराघात नहीं करेंगे। मैं प्रस्तावित करता हूं कि हमें भारत का पुराना सुदृढ़ शिक्षा तंत्र बदलना होगा। हमें भारत के जनमानस को यह सोचने पर मजबूर करना होगा कि विदेशी एवं अंग्रेज उनसे श्रेष्ठ हैं तब ये अपना स्वाभिमान एवं संस्कृति भूल जाएंगे तब हम जैसा चाहेंगे वैसे भारत पर शासन कर सकेंगे।' 
 
वस्तुत: मैकालेवाद एक ऐसी योजना थी, जो शिक्षा प्रणाली के जरिए स्वदेशी संस्कृति को विदेशी औपनिवेशिक संस्कृति से स्थानापन्न करने के लिए प्रयासरत थी। मैकालेवाद का मुख्य उद्देश्य था भारतीयों की एक ऐसी जमात तैयार करना, जो रंग से भारतीय हो किंतु मिजाज, मतों एवं नैतिकताओं एवं तर्क में अंग्रेजीयत लिए हुए हो। 
 
 



 

भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली स्वाभाविक रूप से विकृत है, क्योंकि यह प्रणाली हमारे ऊपर ब्रिटिश उपनिवेश ने थोपी है तथा इसका उद्देश्य भारत में शिक्षित नौजवानों को कुली, क्लर्क एवं अकर्मण्य बनाना था। यह प्रणाली भारत में मेकाले की सोच से भी ज्यादा सफल हुई। मेकाले ने अपनी कुख्यात किताब 'मिनिट ऑन इंडियन एजुकेशन' में प्रस्तावित किया है कि भारत के लोग ब्रिटिश साम्राज्य के सिपाही बनें एवं उनकी लाशों पर ब्रिटिश साम्राज्य फले-फूले।
 
इस प्रणाली के अनुगामियों ने उत्पादन, गुणवत्ता एवं उत्कृष्टता के बारे में चिंता किए बगैर अपने विचारों को थोपा है। यही मुख्य कारण है कि भारतीय शिक्षा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विश्वस्तरीय कोई खोज, कोई अंतरदृष्टि एवं कोई सैद्धांतिक महत्व प्रतिपादित नहीं किया। 
 
बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है, जब पता चलता है कि कोई भी विश्वविद्यालय या शैक्षणिक संस्थान विश्व रैंकिंग के 100 स्थानों में भी नहीं है। IIT खड़गपुर जिसका कि भारत में पहला स्थान है उसकी विश्व रैंकिंग 350 से भी ज्यादा है। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की विश्व में पहली रैंक है, हॉवर्ड की दूसरी एवं मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की विश्व में 6ठी रैंकिंग है। 
 
आज भारत के शिक्षण संस्थानों की इस हालत का जिम्मेदार कौन है? आज भारत में IIT एवं IIM में दाखिले के लिए अच्छे अंक जरूरी हैं। उसके लिए शिक्षण संस्थान नहीं बल्कि कोचिंग क्लासेज का सहारा लेना पड़ता है। छात्रों एवं अभिभावकों में इतना आत्मविश्वास नहीं है कि बगैर कोचिंग संस्थानों के उनका दाखिला IIT एवं IIM में हो सकता है। हमारे प्रतिष्ठित IIM एवं IIT, ISB शिक्षण संस्थान, जो उत्कृष्टता का दम भरते हैं, विश्व की तुलना में कही नहीं ठहरते हैं।
 
अधिकांश छात्र या तो विदेश जा रहे हैं या प्राइवेट संस्थानों में दाखिला ले रहे हैं। इन कोचिंग संस्थानों एवं प्राइवेट संस्थानों का मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना है, न कि शैक्षणिक परंपराओं का निर्वहन करना। इस विस्तार ने विषयों के सर्वांगीण ज्ञान के घटते मानकों को जन्म दिया जिससे आज शिक्षा में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। छात्र आज सिर्फ अंक कमाने की मशीन बना हुआ है। आज छात्र सोचते हैं कि अगर मैंने आधा अंक भी गंवा दिया तो मेरे जीवन के सब रस्ते बंद हो जाएंगे। कोचिंग संस्थानों में सिर्फ एक बात सिखाई जाती है कि तुम्हें अंक कैसे लाना है। वे छात्रों को सिर्फ एक ही मानसिकता प्रदान कर रहे हैं कि उनका जीवन सिर्फ परीक्षा में अंक लाने के लिए ही बना है। 
 
तमिलनाडु के करीब 0.15% छात्र ही IIT में चयनित होते हैं एवं तमिलनाडु बोर्ड का कोई भी छात्र BITSAT (बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस एप्टीट्यूड) में चयनित नहीं हो पाता है। 
 
आखिर हमारा शिक्षा तंत्र क्यों सड़ रहा है? हमारी शिक्षा प्रणाली एक सड़ता हुआ आम है जिसे आप न चाहते हुए भी खाना चाहते हैं। आज हमारे शिक्षा प्रणाली में व्यक्तित्व निर्माण के कोई तत्व मौजूद नहीं हैं सिर्फ छात्रों को मशीन बनाने में ही सारी ऊर्जा लगा दी जा रही है। हमारे शिक्षा तंत्र की कुछ चिंतनीय कमियां हैं, जो उसे गर्त में धकेल रही हैं। 
 
1. यह शिक्षा तंत्र असफलताओं से सीखना एवं पहल करना नहीं सिखाता है। 
 
2. यह तंत्र बच्चों को सोचना एवं तर्क करना नहीं सिखाता है। 
 
3. यह शिक्षा तंत्र बच्चों के अंदर विशिष्टता एवं व्यक्तिगत विशेषता नहीं पनपने देता है।
 
4. यह शिक्षा तंत्र उन्हें प्रश्न पूछने की आजादी नहीं देता है। 
 
शिक्षा प्रणाली में क्या बदलाव हो? : स्वतंत्रता के समय सूचनाओं का संप्रेषण बहुत महंगा था अत: उस समय याददाश्त पर आधारित शिक्षा की आवश्यकता थी अत: उस समय शिक्षा में याददाश्त का बहुत महत्व था, इस कारण उस पर आधारित शिक्षा तंत्र विकसित हुआ। बच्चों को प्रश्नों को याद करना होता था एवं लिखने पर अच्छे अंक मिलते थे। उस समय जो व्यक्ति ज्यादा जल्दी एवं तेजी से याद कर सकता था वह सफल माना जाता था। 
 
किंतु वर्तमान में सूचना संप्रेषण बहुत सस्ता है। दूरसंचार एवं इंटरनेट ने सूचनाओं का संप्रेषण बहुत सस्ता एवं गतिशील बना दिया है अत: आज के सदर्भ में पुरानी याददाश्त पर आधारित शिक्षा तंत्र की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है। आज आवश्यकता है बुद्धि पर आधारित शिक्षा की, क्योंकि बुद्धि पर आधारित शिक्षा अवधारणाओं पर आधारित होती है। आज सूचनाओं के आदान-प्रदान से शिक्षा को विकसित किया जाना चाहिए एवं ऐसा शिक्षा तंत्र विकसित किया जाना चाहिए, जो याददाश्त की जगह बुद्धि पर आधारित हो।
 
जितने भी विकसित देश हैं सभी ने शिक्षा में नए एवं मौलिक मूल्यों को विकसित किया है। विकसित देशों में बच्चों को रटाया नहीं जाता है बल्कि परीक्षा में बच्चों को किताबों से लिखने की छूट भी दी जाती है, क्योंकि वे बच्चों को संदर्भरहित शिक्षा नहीं देते बल्कि तार्किक एवं किताबी ज्ञान से अलग शिक्षा, जो अवधारणाओं पर आधारित होती है, का प्रतिपादन करते हैं। 
 
आज भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में मेमोरी को लॉजिक की जगह तरजीह दी जाती है। आप किसी भी केजी के छात्र से कोई भी पोयम बोलने के लिए कहोगे तो वह बहुत जल्दी कविता आपको सुना देगा किंतु अगर आप उसका अर्थ जानना चाहेंगे तो बहुत कम छात्र उसका अर्थ बता पाएंगे। बच्चे ही क्यों, हम लोगों में से बहुत कम को 'केजी' शब्द का अर्थ मालूम होगा किंतु ये शब्द हर पढ़े-लिखे या अनपढ़ माता-पिता की जुबान पर रहता है। 
 
भारतीय मूल्यांकन पद्धति में भी याददाश्त को ही परखा जाता है। अगर आपको दुसरे से ज्यादा एवं अच्छा याद है तो आपको उससे ज्यादा नंबर मिलते हैं, भले ही तर्क और बुद्धि में वह आप से श्रेष्ठ क्यों न हो। आपको अकबर एवं अशोक के गुणों का विश्लेषण नहीं मालूम तो कोई बात नहीं लेकिन आपको उनका जन्म दिनांक एवं उनके जीवनकाल की महत्वपूर्ण दिनाकें आपको याद होनी चाहिए तभी आप इतिहास के विद्वान माने जा सकेंगे। 
 
शिक्षा के अधिकार का अधिनियम सही नीयत से बना हुआ विवादों में उलझा कानून है। यह जिस उद्देश्य की पू्र्ति हेतु बनाया गया है उस उद्देश्य की पूर्ति इससे शायद ही संभव हो। इस अधिनियम से हमारा तंत्र निजी शिक्षण संस्थानों की मदद करता है। 25 प्रतिशत गरीब बच्चे निजी स्कूलों में न जा सकें, इसके लिए अभी तक कहा जाता रहा है कि निजी स्कूलों के 1 किलोमीटर की परिधि में कोई सरकारी स्कूल नहीं होने पर ही दाखिला दिया जाए। आखिर यह नियम किसके हितों की हिफाजत करता रहा है? कुल मिलाकर कहें, तो निजी स्कूलों में गरीबों के बच्चों का 25 प्रतिशत दाखिला ख्याली पुलाव से ज्यादा कुछ नहीं। जैसे-तैसे 25 प्रतिशत बच्चों को आपने दाखिला दिलवा भी दिया तो बाकी के 75 प्रतिशत ने कौन-सा अपराध किया है कि वे अच्छी शिक्षा से वंचित रहें? 
 
दूसरा पहलु नैतिक शिक्षा का अभाव हमारे शिक्षा तंत्र की एक बहुत कमजोर कड़ी है। बगैर नैतिक शिक्षा के हमारी शिक्षा एक गुनाह के समान है। हम कितने ही इंजीनियर, डॉक्टर एवं वैज्ञानिक पैदा कर लें लेकिन बगैर नैतिक शिक्षा के ये सभी भस्मासुर साबित होंगे, जो अपने देश और कौम को भ्रष्टाचार के सागर में डुबो देंगे। आज की शिक्षा अवधारणोन्मुखी होने की जगह मशीनी बनकर रह गई है जिसमें नैतिकता, मानवीय संवेदनाएं प्रतिफलित नहीं हैं। आज शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। आज आवश्यकता है अवधारणा पर आधारित शिक्षा की जिसमें सिद्धांत कम एवं व्यावहारिक एव प्रायोगिक संकल्पनाएं अधिक हों, जो विद्यार्थियों को परियोजनाओं एवं स्टार्टअप से जोड़े। 
 
यदि समय रहते इन मूल प्रश्रों पर विचार नहीं किया गया और शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार नहीं हुआ, तो हालात और विषाक्त हो सकते हैं। अगर भारतीय समाज के सही स्वरूप का चिंतन किया जाए तो इसमें मूल्यों की शिक्षा और मानवाधिकार संबंधी विचारों में हमें कथनी और करनी में बहुत अंतर देखने को मिलता है। सुसंस्कारिता व स्वावलंबन जैसे तथ्य शिक्षा से अनिवार्य रूप से जुड़ने चाहिए। 
 
शिक्षा के साथ ही शिक्षक भी अपने दायित्व को गरिमापूर्ण ढंग से निबाहेंगे, तभी वांछित सफलता प्राप्त की जा सकती है। कभी कहीं वेतनमान, सुविधाओं संबंधी बात भले आए या कमी पड़े, लेकिन गुरु गरिमा को विस्मृत किए बिना, अपने गौरव का महत्व अनुभव करते हुए आगे बढ़ते चलें, क्योंकि प्रश्र मानवीय मूल्यों के संरक्षण और अभिवर्धन का है।
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