डॉ कपिल तिवारी कवि नहीं है, शायद ही उन्होंने कोई कविता लिखी हो, उन्होंने तो आदिवासी संस्कृति और लोक-कलाओं पर अध्ययन किया है, वे अरंण्य में विचरते हैं और इसी अरंण्य के भरोसे और उसे अपना ईश्वर मानने वाली एक पूरी आबादी के लोक- जीवन को दर्ज करते हैं।
वे इस आबादी को एक ग्रंथ की तरह मानते हैं, जिसे छू कर खोला जाए जो जीवन और जीवन की दृष्टि दोनों बदल जाते हैं।
जब वे इस आदिवासी समाज की लोक-संस्कृति, उनके गीत, संगीत, भजन, कहानी, कथा जैसी वाचिक परंपराओं पर बात करते हैं तो लगता है, हम कोई बेहद सुंदर गीत सुन रहे हैं। जब वे बात करते हैं तो कविता सुनाई आती है।
जंगलों में बेहद ही चुपचाप तरीके से गुमसुम जीवन जीते हुए लोगों की कोई कविता कानों में सुनाई पड़ती है।
मौखिक या अलिखित इन परपंराओं पर जब वे कुछ कहते हैं तो वे अंतिम पंक्ति के लाखों-करोड़ों चुप्प और खामोश लोगों की आवाज की तरह सुनाई आते हैं।
जब वो बात करते हुए आदिवासी समुदाय के जीवन दर्शन और धर्म के बारे में बताते हैं तो किसी भुला दी गई आदिम सभ्यता का बिसरा हुआ गीत याद आता है।
उस आबादी को मुख्यधारा के करीब लाने की उनकी कोशिश पर नजर जाती है तो लगता है, यह आदमी वही हो चुका है, जिसके बारे में वो बात कर रहा है।
अपने विषय से कैसे एकाकार हुआ जा सकता है, यह डॉ कपिल तिवारी के जीवन को देखकर अनुभूति होती है।
दरअसल, हमारी आधुनिक सभ्यता, समाज और आधुनिक शिक्षा में पारंपरिक संस्कृति, जनजातियों, लोक-कला, लोक समाज और उनके मूल्यों के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं है। इन अनजान और गुमनाम लोगों को हम सिर्फ एक तस्वीरभर मानते हैं।
मुख्य धारा से बिल्कुल अलग और नितांत अकेला यह समुदाय अब भी पूरी तरह से वंचित है। न ही उनके जीवन और न ही ट्राइबल आर्ट और कल्चर के बारे में हमें कोई दिलचस्पी है। इसी गुमनामी में खलल पैदा करने के लिए सबसे पहले जो आदमी आया, उनका नाम डॉ कपिल तिवारी हैं।
जब उन्होंने इस आबादी के दरवाजे पर दस्तक दी तो जैसे धीमे-धीमे परतें खुलतीं गईं और अब हमें लगता है कि जिस समाज को हम पिछड़ा और वंचित समझते रहे, वो हमसें कितना ज्यादा समृद्ध, अपनी परंपराओं और मूल्यों के साथ रहता हुआ कितना आधुनिक भी है।
खुद डॉ कपिल कहते हैं,
जनजातीय लोग और लोक समाज इतने सहज-सरल हैं कि इनसे प्रेम करना शुरू कीजिए, तो यह एक ग्रंथ की तरह खुलकर सामने आ जाते हैं।
उनके जीवन और रचना में निश्चित रूप से ऐसा कुछ था, जिसने मेरा जीवन, मेरी दृष्टि और समझ को बदल दिया।
इस दृष्टि के पीछे वजह यह थी कि कपिल तिवारी ने खुद अपनी आंखों से अपनी परंपराओं और संस्कृति को आत्मसात किया। उन्होंने न तो उसे अतीत समझा और न ही अजनबी माना।
इस दृष्टि के लिए वे लेखक निर्मल वर्मा के कथन का सहारा लेते हैं और कहते हैं,
निर्मल वर्मा कहते थे- हम अपनी परंपराओं को तीन तरह से देखते हैं। एक, अपने पुरखों की आंख से तो सबकुछ अतीत हो जाता है। दूसरा, हम पराए लोगों की आंखों से अपनी परंपरा को देखते हैं तो वो पराई और अजनबी हो जाती है, एक बार, हमें स्वयं अपनी आंखों से अपनी परंपराओं को देखना चाहिए।
इसके उलट विदेशी हमारी परंपराओं यह पता लगाने के लिए देखते हैं कि वो कितनी साल पुरानी है, वे उसकी उम्र का पता लगाना चाहते हैं, जबकि उसे सिर्फ दृष्टि चाहिए, इससे फर्क नहीं पड़ता कि वो कितनी पुरानी है। यह देखना चाहिए कि इसमें जीवन का सार क्या है, जीवन से जुड़ाव कितना है।
जब हम पूरी सच्चाई और गहनता के साथ अपनी इस दृष्टि को लेकर किसी अजनबी दुनिया में प्रवेश करते हैं तो हम समझ पाते हैं कि अब तक हम उनकी दुनिया से कितने अनजान थे। बगैर इस सच्चाई के हम न ही उनके शिल्प जान पाते हैं, न चित्र, न नृत्य और न उनकी वाचिक परंपरा को हम जान पाते हैं और न ही उनकी कला और दर्शन को जान पाते हैं।
लेकिन जब हम अपने मूल्यों के साथ अपनी संस्कृति और अपनी परंपरा के करीब जाएंगे तो एक दृष्टि के साथ उनके पास पहुंच पाएंगे। मूल्यों का स्वागत कैसा होता है और उसका पतन कैसे होता है यह हमें हमारे दो ग्रंथ बहुत आसानी से समझा पाते हैं।
ये दो ग्रंथ हैं रामायण और महाभारत। रामायण हमें बताती है कि मूल्यों के साथ जिया गया जीवन एक व्यक्ति को राम बना देता है, जीवन उसका स्वागत करता है। वहीं महाभारत हमें बताता है कि जब मूल्यों का पतन होता है तो युद्ध में जीत जाने के बाद भी कोई स्वागत करने वाला और कोई आरती उतारने वाला नहीं बचता है।
हमें अपने मूल्यों, संस्कृति और परंपराओं की निरंतर साधना करते रहना चाहिए। हमें लोक और शास्त्र की परंपरा को साथ लेकर चलना चाहिए। शब्द की यह यात्रा बहुत गहरी और लंबी है। इसे बिसराकर हम कहीं नहीं पहुंच सकते हैं। बहुत लंबी साधना के बाद शास्त्र की परंपरा और लोक की परंपरा हमें प्राप्त हुई हैं। अपने मूल रूप में इसका ज्ञान पहले शब्द थे। इसलिए हमारे यहा ज्ञान का अर्थ होता है दृष्टि। इसीलिए हमारे यहां ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले को दृष्टा कहा जाता है, लिखने वाला या लेखक नहीं कहा जाता। देखने वाला कहा जाता है। दृष्टा।
इसका अर्थ हुआ कि लंबी साधना के बाद हमारे पुरखों और रिषियों के समक्ष यह यह ज्ञान प्रकाशित हुआ। एक प्रकाश अनुभव की तरह। पहले वो ज्ञान अलिखित था, फिर वो शब्द बना। फिर अक्षर बनकर आया।
अपनी बिल्कुल प्रारंभिक अवस्था में शब्द भी प्रकाश थे।
इतनी लंबी यात्रा के बाद अगर हमें कोई शास्त्र और लोक परंपरा हासिल हुई है तो उसे सहेजा जाना चाहिए या बिसरा देना चाहिए।
कपिल तिवारी जब लोक-कला और लोक संस्कृति की समझ वाली इस दृष्टि की लौ दिखाकर इंदौर के गांधी हॉल के मंच से उतरते हैं तो मैं उनके करीब पहुंचना चाहता हूं। लेकिन भीड़ में उन्हें खो देता हूं। जब भीड़ छंटती है और वे अपनी वापसी के बिल्कुल ही अंतिम क्षण में नितांत अकेले अपनी कार में सवार हो रहे थे तो पता नहीं क्यों मैं जाकर उनसे नहीं मिल पाता हूं।
उन्हें अपनी कार की पिछली सीट पर जलती हुई सिगरेट के साथ अकेला छोड़ देता हूं। मैं सोचता हूं-- जिस कविता की स्मृति और आवाज मेरे जेहन में बन चुकी है, उसे छू कर नष्ट नहीं किया जाना चाहिए— मैं उन्हें जाने देता हूं।
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मध्यप्रदेश आदिवासी लोक-कला अकादमी के निदेशक रहे लोक साहित्यकार डॉ कपिल को पद्मश्री सम्मान भी मिला है।
लोक-कलाओं और लोक- विधाओं पर उनकी रिसर्च आज देशभर में एक पवित्र लोक ग्रंथ की तरह पढी, समझी और माथे से लगाई जाती है।
उन्हीं के रहते हुए भारतीय लोक बोलियों, कलाओं, तीज-त्योहारों और आख्यानों पर करीब 70 से ज्यादा किताबों का संपादन और प्रकाशन हुआ।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)