जिंदगी रोजमर्रा की तरह किंतु थोड़ी सावधानी से चल पड़ी है। कुछ दिनों बाद सबकुछ भूल-भालकर दौड़ पड़ेगी एक और नए हादसे के इंतजार में...। आखिर हम हादसों के आतिथ्य में क्यों लगे रहते हैं। हमारी लापरवाही, हमारा भ्रष्टाचार, हमारा लोभ... हमारा ही तो नुकसान है, क्या ये हम नहीं जानते? कैसे होगी इस नुकसान की भरपाई?
बच्चों की मासूम मुस्कान से उभरते सवाल कि ऐसा क्यों हुआ? कौन देगा इसका जवाब? फिर क्यों दौड़ पड़ते हैं ब्लड देने? बिना भेदभाव के? इसकी कीमत कितनी चुकानी पड़ती है हमें? वह दर्दनाक नजारा कितनों को रुला गया? कितनी आंखों से खून बहा गया? फकत भ्रष्टाचार, लापरवाही और लोभ था कारण। जांच होगी... कार्रवाई होगी और सबकुछ फिर वही...?
जनवरी 2018 के प्रथम माह का प्रथम सप्ताह इंदौर के बच्चों के लिए यमराज का पैगाम साबित हुआ। लापरवाही, अनियमितता और तमाम बातें हादसे के बाद। 5 जनवरी 2018 को इंदौर के प्रसिद्ध माने जाने वाले डीपीएस यानी दिल्ली पब्लिक स्कूल की बस के एक्सीडेंट में शहर के लगभग 10 से ज्यादा बच्चे काल-कवलित हो गए। शहरभर में शोक छा गया। मंत्री, अधिकारी, नेता सब 'अलर्ट' हो गए। अस्पतालों में भीड़ लग गई। चीख-पुकार, क्रंदन-जांच। कार्रवाई। अभी तो 2018 में 11 महीने शेष हैं। जांच। कार्रवाई। उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात। फिर वही पुराना ढर्रा एक और हादसे के इंतजार में, क्योंकि निजी शिक्षण संस्थान इतनी सुविधाएं दे रहे हैं तो दान में तो नहीं। कमाने के लिए। तमाम तरह की फीसें और सुविधाओं के नाम पर पुराने पर नया रंग-पेंट।
डीपीएस के बस हादसे की भी कुछ-कुछ यही कहानी है कि बस काफी पुरानी थी और उसका फिटनेस रिन्यू कराया गया था। परिवहन विभाग को भी इसमें 'लाभ' मिला होगा, वरना इतनी कंडम गाड़ी का फिटनेस कैसे हो गया? और बस चालकों की बात कहें तो 'चालक' शब्द ही नशाखोरी के लिए बदनाम है। इंदौर के स्कूल बस चालकों में अधिकांशत: कम पढ़े-लिखे और नशा करने वाले ड्राइवर हैं। इसके अलावा कट मारने या अंधाधुंध चलाने वाले स्कूल बस ड्राइवरों की भी अच्छी-खासी तादाद है। लेकिन शिक्षण संस्थानों को इससे कुछ लेना-देना नहीं। उनका तो धंधा अच्छा-खासा चल रहा है। ज्यादा कुछ हुआ तो मंत्रीजी के चपरासी से लेकर पीए तक सब 'अपने वाले' हैं।
शिक्षा का धंधा
जहां एक सरकारी स्कूल ढंग की नहीं थी, वहीं आज 15-15 निजी शैक्षणिक संस्थान हैं। प्रगति हो रही है जनाब, क्योंकि लाभ का धंधा जो ठहरा। थोड़ा-बहुत खर्च यानी रुपए में चार आना खर्च और डेढ़ रुपए का फायदा। समाजसेवा हो रही है। खूब फल-फूल रहा है शिक्षा का गोरखधंधा। बस! अफसर, नेता, मंत्री से बनाकर रखिए। निजी शिक्षण संस्थानों में क्या हो रहा है, शिक्षण माहौल कैसा है, बच्चों को क्या-क्या सुविधाएं हैं, सबसे बड़ी बात ये कि सुविधाएं कैसी हैं, केवल बस की ही बात नहीं है, हर छोटी चीज भी अहम स्थान रखती है, यहां तक कि बच्चों की लायब्रेरी की किताबों की हालत कैसी है, मगर कौन देखने वाला?
अभिभावकों को अपने काम-धंधे से फुरसत नहीं और बच्चे भी हाईक्लास स्कूल-कॉलेज में पढ़ना मांगता। अच्छा चल रहा है शिक्षा का धंधा। निजी शिक्षण संस्थान तो कुकुरमुत्ते की तरह खुल गए और खुल रहे हैं, वहीं सरकारी शिक्षण संस्थानों में से लगभग 60 प्रतिशत के तो खस्ताहाल होंगे ही। निजीकरण को बढ़ावा देने और अपनों को फायदा पहुंचाने के लिहाज से शिक्षा को भी लोकतंत्र के सेवकों ने धंधा बना दिया है और खूब माल खा रहे हैं और अपनों को खिला रहे हैं और इसी भ्रष्टाचार और लापरवाही का परिणाम थी ये घटना।
परिवहन-यातायात विभाग
परिवहन और यातायात विभाग तो हेलमेट वालों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। 3 सवारी जहां दिखी कि पहुंचे रसीद काटने। सामने से कार या कोई वाहन भले ही 100 की स्पीड में फुर्र...! बिना हेलमेट पहने दिखे कि फट से चालान। या सस्ते में छूटना हो तो अलग ले जाकर...? ये तो गनीमत है कि पैदल या साइकल वालों पर हेलमेट की पाबंदी नहीं है, वरना पैदल चलते से ही 10-20 रुपए मार लें! इन विभागों को क्या लेना-देना स्कूल बसों से? 'खर्चा-पानी' जो आ जाता है।
किसी का भी नुकसान हो, हमें क्या लेना-देना? सावधान...! किसी दिन 'हमारा' भी नुकसान हो सकता है। उस नुकसान की भरपाई किसी भी तरह के भ्रष्टाचार, लापरवाही या लालच से नहीं हो सकेगी।