रुला देंगी कोरोना काल की ये कहानियां : किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार...

डॉ. छाया मंगल मिश्र
मेघा के पापाजी गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती थे। घर के सभी सदस्य कोविड की पकड़ में थे। फिर भी मेघा ने हिम्मत न हारी ऐसी ही हालत में पापाजी को अनिवार्य सेवाओं के लिए संकल्पित रही। उसका समर्पण साथ ही भर्ती एक और पेशेंट और उनका अटेंडर देख रहे थे।

इंजेक्शन की मारामारी और कालाबाजारी किसी से छुपी न थी मेघा बड़ी उदास और परेशान थी। साथ ही खुद और मां, मेघा की बेटी भी कोरोना ग्रस्त थे। सभी का ध्यान रखने की जिम्मेदारी मेघा पर थी। साथी अटेंडर ने जब खुद के पिताजी के लिए इंजेक्शन जुटाए तो बिना बोले ही वो मेघा के पापा के लिए भी ले आया। बिना ये सोचे कि इसके पैसे मिलेंगे या नहीं। एक पैसा भी उसने ऊपर नहीं लिया। कहते समय मेघा की आंखे भीग गईं थीं। बोली कभी भगवान इंसान के रूप में देवदूत भेज देते हैं जो आपका दुःख बांट लेते हैं।
 
मेघा ने बताया कि वो भैय्या बोले ‘पिता सबके एक सामान होते हैं ।मेरे पिताजी के लिए जितना मैं दुखी था उतनी ही आप। मेरे पिताजी ने ही मुझे आपके लिए भी इंजेक्शन जुटाने का कहा था... मेघा उनके आगे नतमस्तक हो गई। इतने क्रूरतम अन्धकार भरे समय के बीच भी इंसानियत और सद्भावना का एक दीपक जगमगा रहा था।
 
नीरज की कमउम्र पत्नी ऑक्सीजन के अभाव में दमतोड़ रही थी। नीरज के लिए वो समय साक्षात यमराज से युद्ध करने जैसा चल रहा था। जैसे तैसे उसे सिलिंडर मिला।कुछ मिनटों ही उसकी पत्नी और सांसें ले पाई।बड़ी देर हो चुकी थी। पर उसने तुरंत होश सम्हाला।आस-पास किसी को सिलिंडर की जरुरत हो तो तुरंत उसे दे और जो पीड़ा उसने भोगी कोई और न भोगे। जरूरतमंद को दे कर उसने टुकड़े-टुकड़े हृदय से पत्नी को देखा और बिलख पड़ा।कंधे पर एक हाथ महसूस किया। देखा सामने एक जवान व्यक्ति खड़ा है जिसकी नन्हीं सी बेटी की जान उसके सिलिंडर से बच गई थी। आंसू बहाते वो हाथ पैर जोड़ कर उसका अहसान कैसे चुकाए पूछ रहा था।
 
नीरज अपना बिखरा संसार उठा कर किसी को उसके आंगन की किलकारी दे गया था। कैसा निष्ठुर हो चला है काल। /कालाबाजारी अपने चरम पर है। बेशर्मी की सारी हदें पार हो चुकी हैं। अनजानों के अन्तिम संस्कार निशुल्क कर पुण्य कमाने वाले देश में, अन्तिम संस्कारों के ठेके चल रहे हैं। दवाओं के पते नहीं है दुआओं में असर नहीं रहा, अस्पतालों में लूट है, नोच रहे हैं सभी हैवानियत से भरे दरिंदे बिना देखे समझे, वहीं आस और विश्वास से भरे ये इंसानियत के जुगनू भी चमक रहे हैं।
 
रिक्शा मुफ्त कर दिया है किसी दिल के अमीर ने तो छोटी सी वेल्डिंग की दुकान से सिलिंडर दे दिया है सांसों को बचाने, हैसियतानुसार मुफ्त भोजन सेवा दे रहा है कोई अन्नपूर्ण मां का सेवक, कोई दिनरात एक कर सूचनाओं को पहुंचा रहा है तो कोई अकेले मरीजों की निस्वार्थ सेवा और मदद कर रहा है। ये चुनिन्दा उदाहरण जुगनू से चमक रहे हैं इस अमावस सी काली अंधियारी रात में। चांद नहीं है तो क्या? तारे छुप रहे हैं तो क्या? जुगनू तो हैं जो अपनी धुन में गुनगुनाते जा रहे हैं... 
 
माना अपनी जेब से फ़कीर हैं, फिर भी यारों दिल के हम अमीर हैं...
मिटे जो प्यार के लिए वो ज़िन्दगी, जले बहार के लिए वो ज़िन्दगी
किसी को हो न हो हमें तो ऐतबार, जीना इसी का नाम है...

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