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आज़ादी के 75वें साल में यह क्या हो रहा है?

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शकील अख़्तर

इस साल हम आज़ादी का 75वां साल मना रहे हैं। इस अमृत महोत्सव में हम उत्सव के किस दौर से गुज़र रहे हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों, बलिदानियों और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर हमें यह आज़ादी दी, आज हम उस आज़ादी का कैसा उपयोग कर रहे हैं? अब यह भी कहने की ज़रूरत नहीं। हमने यह आज़ादी एकता के बलबूते पर ही पाई थी। परंतु आज समाज में एक-दूसरे के खिलाफ़ नफ़रत के बीज बोए जा रहे हैं। क्या यह देश के हित में हैं? रामनवमी और उसके बाद दिल्ली में हनुमान जयंती के अवसर पर हुईं हिंसा की घटनाएं हर भारतीय के लिए चिंता का विषय है।
 
आज़ादी के अमृत महोत्सव के इस साल में हमें हर दिन आज़ादी के तरानों को गाना था। गली-मुहल्लों में मिल-जुलकर तिरंगे को फहराना था। एक-दूसरे से गले मिलकर आज़ादी के 75 साल की ख़ुशी मनाना थी। हमारे बच्चों और नौजवानों को एक नई ऊर्जा से भर जाना था। परंतु अमृत महोत्सव के इस साल में जो हो रहा है, उसकी जैसी तस्वीर दुनिया में जा रही है, वह शर्मिंदा करने वाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज़ादी के अमृत महोत्सव की घोषणा की थी। ऐसे में उनके बयान की अपेक्षा की जा रही है। गृह मंत्रालय से भी हस्तक्षेप की उम्मीद है। ताकि हालात बिगड़ने से रुकें।
 
एकता की भावना को मज़बूत करने का साल :  इस साल सभी दलों, नेताओं, संगठनों और धार्मिक प्रतिनिधियों को हमारी अनेकता में एकता की भावना को बढ़ाना था। देश को अमन, चैन और विकास की नई राह पर ले जाने में अपना योगदान देना था। मगर यह साल भी एक-दूसरे को नीचा दिखाने और दो समुदायों में टकराव पैदा करने की शर्मनाक हरकतों में गुज़रता जा रहा है। ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, जिससे समाज में आपसी टकराव बढ़ रहा है।
 
नफ़रत पैदा करने की कोशिश क्यों? : सबसे ज़्यादा नफ़रत मुस्लिम समुदाय के खिलाफ़ पैदा की जा रही है। कहा जा रहा है कि इस समुदाय की वजह से हिंदू धर्म खतरे है। इसके बावजूद कि केंद्र से लेकर राज्यों में ज़्यादातर बीजेपी की ही सरकारें हैं, संविधान और कानून का राज है। ऐसे प्रदर्शन, जूलूस और सभाओं का आयोजन हो रहा है, जो देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक तनाव को जन्म दे रहा है। ऐसे लोगों के खिलाफ़ वैधानिक कार्रवाई का भी असर होता नहीं दिख रहा है। वहीं सोशल मीडिया पर सौहार्द को चोट पहुंचाने वाली तरह-तरह की पोस्ट शेयर की जा रही हैं। वे नेता, दल या संगठन जो ऐसा कर रहे हैं, क्या वे आज़ादी के इस अमृत वर्ष में देश भक्ति जगाने का काम कर रहे हैं?  
 
आपसी खाई बढ़ाने वाले मुद्दे क्यों?: अचानक से हिजाब, हलाल, अज़ान जैसे मुद्दे उठाकर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे इन बातों की वजह से आम हिंदू खतरे में है। ‘कश्मीर फाइल’ जैसी फ़िल्म ने भी पंडितों के पलायन, पुनर्वास संबंधी समस्याओं से अलग धार्मिक भावनाओं को नया उफ़ान दिया है। एक आम हिंदुस्तानी मुश्किल से अपने जीवन की गाड़ी को खींच रहा है। कोविड-19 महामारी के बाद महंगाई, बेरोज़गारी का कठिन दौर उसके सामने है। परन्तु ऐसे मुद्दों से आपसी बैर भाव इस कदर बढ़ा दिया गया है कि लोग एक-दूसरे के खिलाफ़ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ रहे हैं। भड़के हालात में सड़कों पर ऐसी उग्रता दिख रही है, ऐसे संवाद बोले जा रहे हैं, जिस पर विश्वास करना मुश्किल है। 
 
जुलूसों में ऐसे नारे लगाए जा रहे हैं, जिससे देशभक्ति की भावना को भी गहरी चोट पहुंच रही है। रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसर पर निकाले गए जुलूस के दौरान जिस तरह अभद्र नारे लगाए गए, हथियारों का प्रदर्शन हुआ, मस्जिदों पर झंडे फहराने की कोशिशें हुईं, उससे कानून और व्यवस्था के लिए नई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। यह जांच का विषय है कि ऐसी अभद्र और उग्रता वाले समूहों के पीछे कौन हैं ? क्या ऐसे युवा झुंड या साधु- महंत किसी विशेष उद्देश्य से हिंसा और दंगा फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। उकसाने वाले ऐसे लोगों से ज़्यादा मुस्लिम समाज के लोगों पर ही इकतरफा कानूनी कार्यवाही का आरोप क्यों लग रहा है?
 
खरगोन में दंगाइयों के खिलाफ़ सख्ती अथवा अतिक्रमण के नाम पर 52 निर्माणों को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिए गए। जांच और न्यायिक प्रक्रिया से पहले ही ऐसा क्यों हुआ? दिल्ली में जहांगीरपुरी में भी ऐसे ही आरोप क्यों लग रहे हैं? क्या ऐसी घटनाओं की पहले से ही पटकथा लिखी गई है? असल में ऐसे निर्णयों से बहुत बार निर्दोष भी अपराधियों के साथ पिस जाते हैं। इकतरफ़ा कार्रवाई से उन लोगों के लिए भी संकट खड़ा हो जाता है, जो पीड़ित हैं। चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम उनमें सम्पत्तियों को जो नुकसान पहुंचता है, आग लगाई जाती है, उससे आम आदमी का ही नुकसान नहीं होता, देश के विकास और जीवन स्तर को भी क्षति पहुंचती है। 
 
भड़काने वाले जुलूसों से बढ़ता ख़तरा : धार्मिक अवसरों पर शांति से जुलूस निकालने, पूजा- पाठ करने, भजन गाने में कोई बुराई नहीं है। परंतु निर्धारित मार्ग के बदले संवेदनशील इलाकों से जुलूस निकालना, पुलिस और प्रशासन के निर्देशों का पालन न करना, खुले आम हथियार लहराकर उकसाने वाला व्यवहार भी शांति और व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। ऐसे मामलों में पुलिस को भी पहले से सजगता से सही बंदोबस्त करने की ज़रूरत है, ताकि कानून और व्यवस्था की दिक्कतें खड़ी ना हों। 
 
एक और बात जुलूस में ऐसे युवा शामिल किए जा रहे हैं, जिन्हें पढ़-लिखकर खुद अपना भविष्य बनाना है, आगे अपना जीवन और परिवार चलाना है, परंतु वे हिंदुत्व की ऐसी उन्मादी छबि के प्रतीक बन रहे हैं, जो ख़ुद हिंदू होने की असलियत से मेल नहीं खाती। अयोध्या मामले में फैसले और राम मंदिर के निमार्ण की प्रक्रिया प्रारंभ होने के बाद लग रहा था कि अब ऐसे मुद्दे राजनीति पर ना हावी होंगे, ना ही लाभ-हानि का गणित बनेंगे। परंतु चुनाव दर चुनाव अलग-अलग धार्मिक मुद्दों, बयानों आदि से इसी तरह के ध्रुवीकरण का माहौल बनने लगा है। 
 
क्या चुनाव के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति? : विश्लेषकों के अनुसार, कनार्टक, गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में इस साल और अगले साल होने वाले चुनावों के मद्देनज़र यह हो रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और पत्रकार अरुण शौरी ने हाल ही में कहा है कि सियासी लाभ के लिए राजनैतिक ध्रुवीकरण का हथकंडा अपनाया जा रहा है, हिजाब जैसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं। मीडिया इसको हवा दे रहा है। यह जांच और चिंतन का विषय है कि इससे किसको लाभ हो रहा है? सबसे बड़ी बात यह है कि धार्मिक ध्रुवीकरण ही चुनाव जीतने के लिए जरूरी हो गया है?
 
एकता के बिना विकास संभव नहीं : पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि हिंदू और मुस्लिमों का डीएनए एक ही है। एकता का विचार भ्रामक है, दोनों असल में एक ही हैं। पूजा पद्धति के तरीके अलग होने की वजह से किसी से भेद नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा है कि एकता के बिना विकास संभव नहीं है। परंतु आज एकता की यह मुठ्टी एक-दूसरे के खिलाफ़ तनती जा रही है। राजनीतिक लाभ के लिए हिन्दू-मुस्लिम समुदायों को भड़काया जा रहा है। अगर यह सब चुनावी राजनीति और ध्रुवीकरण से मिलने वाले लाभ के लिए ही किया जा रहा है, तब यह भयावह और दुखद है। यह ऐसा ही है जैसे थोड़े से फल पाने के लिए हम पूरे पेड़ को ही नष्ट करना शुरू कर दें। धर्म का ठेकेदार बनकर कुछ लोग सोशल मीडिया के ज़रिये देश में ज़हर घोल रहे हैं। अपने ही देशवासियों के क़त्लेआम की खुले आम धमकी दे रहे हैं। आने वाले समय में ऐसे वातावरण से देश में अराजक स्थितियां बढ़ सकती हैं।
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मुश्किल हालात से हम कैसे निपटेंगे : सोचिए ऐसे अराजक माहौल में अगर हम अचानक किसी विपरीत स्थिति, विपदा या संकट में फंस जाएं। तब क्या हम एक-दूसरे से लड़ते परिस्थिति का मुकाबला कर सकेंगे। कोरोना जैसी महामारी के जाते ही हम यह भी भूल गए कि काल का पहिया सतत घूमता रहता है। देश का अराजक और हिंसक माहौल का असर हमारे लिए बड़े आर्थिक संकट की वजह भी बन सकता है। देश में बिगड़े माहौल को लेकर दुनिया के दूसरे देशों से भी प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं।
 
यूएई, अमेरिका जैसे देश आज हमें मानवाधिकार और देश में वैमनस्य की घटनाओं को लेकर नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं। क्या आज़ादी के अमृत वर्ष वाले साल में भारत और भारतीयता की छबि के अनुरूप है? राजनेताओं और कानून के रखवालों से बहुत समय से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे ऐसे वातावरण के खिलाफ़ अपनी चुप्पी तोड़ें और कड़े कदम उठायें। वहीं देश हित में सभी राजनीतिक दल भी एकता के विरुद्ध आचरण करने वालों के खिलाफ एकजुट हों। ऐसा वातावरण बनाएं कि समाज में आपसी विश्वास और सदभाव बढ़े। ऐसे संगठन और समूह सक्रिय हों जो भ्रामक पोस्ट, फेक न्यूज़, खबरों और भड़काने वाली सामग्री के विरुद्ध जनता को जागरूक करें। तभी आजादी का यह अमृत वर्ष सार्थक हो सकेगा। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती)

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