नचिकेता ने जब अपने पिता को सबकुछ दान करते देखा, तो उसने पिता से पूछ लिया –आप मुझे किसे दान करेंगे? क्रोधित पिता ने उसे यमराज को दान दे दिया। बालक नचिकेता यमराज के पास सशरीर चला गया। यमराज ने उसे अनेक प्रलोभन दिए, लेकिन नचिकेता लौटने को ही तैयार नहीं था। उसने यमराज के समक्ष शर्त रख दी, कि जब तक उसे आत्म विद्या का ज्ञान नहीं मिलेगा, तब तक वह लौटेगा नहीं। हार कर यमराज को आत्म विद्या का ज्ञान देना पड़ा और यही ज्ञान कठोपनिषद के माध्यम से अवतरित हुआ। यह वृत्तांत हमें बताता है कि भारत की युवाशक्ति में वह ताकत है कि वह यमराज से भी आत्मज्ञान प्राप्त करने की क्षमता रखती है। इसी युवा शक्ति को और भी मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है कि हम उनकी नींव को सुदृढ़ बनाएं; और बेहतर, प्रासंगिक और संवेदनशीलता से परिपूर्ण शिक्षा ही इसका एकमात्र आधार है।
देश को आगे बढाने में भी युवाओं की भूमिका हमेशा से अहम् रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही देश के युवाओं ने देश के लिए असंख्य बलिदान दिए। हंसते-हंसते फांसी पर झूल जाना, अंग्रेजों की लाठियां एवं गोलियों का सामना करना और गिरफ्तार होने पर यातनाएं सहन करने के विवरणों से भारतीय इतिहास के पन्ने भरे हुए हैं। युवाओं के सम्पूर्ण विकास के लिए सर्वप्रथम हमें यह याद रखने की आवश्यकता है कि हमारे देश की संस्कृति आनो भद्राः कृत्वो यन्तु विश्वतः अर्थात विश्व के सभी श्रेष्ठ विचार हमें प्राप्त हों – पर आधारित है।
प्राचीन काल से युवा आज तक, हर क्षेत्र में अपना परचम लहराने के लिए प्रयासरत हैं। जब पोखरण में परमाणु परीक्षण हुआ, तो उसका सम्पूर्ण श्रेय पूर्व सरकारों और युवा वैज्ञानिकों को दिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले अधिकाँश देशों में या तो सैनिक शासन स्थापित हो गया या तानाशाही आ गयी। वर्ष 1975-1977 का आपातकाल अगर छोड़ दें, तो मात्र भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें लोकतंत्र न केवल पूरी शान से जीवित है, अपितु परिपक्वता की ओर बढ़ता भी गया है। 1977 के बाद देश की जनता अपने वोट की शक्ति भी पहचानने लगी है और इसका श्रेय युवा शक्ति के शिक्षित होने को जाता है।
विश्व के अनेक देश बूढ़े होते जा रहे हैं, जर्मनी, जापान और रूस जैसे देशों की युवा जनसंख्या घट रही है लेकिन विशेष सौभाग्य की बात यह है कि हमारे देश में निरंतर बढती हुई युवा जनसं ख्या ही हमारी निधि है। इस धरोहर को जाग्रत, जीवित और सतत प्रवाहमान बनाने का दायित्व जिन सशक्त युवाओं के कन्धों पर है, वे देश की जनसंख्या का एक-तिहाई हैं। वर्ष 2022 तक जहां चीन, अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और जापान में औसत आयु क्रमशः 37, 37, 45 और 49 रहेगी, वहीं भारत 28 वर्ष की औसत आयु के साथ विश्व का सबसे युवा देश बन जाएगा।
अब समय आ गया है कि देश के युवा सभी क्षेत्रों अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर सकते हैं। युवाओं की इसी असीम उर्जा का समुचित प्रयोग करने के लिए आवश्यकता है उन्हें बेहतर नागरिक बनाने सम्बन्धी विभिन्न उपायों की, जमीनी स्तर पर निर्मित की गयी महत्वपूर्ण नीतियों की और विद्यालयों और महाविद्यालयों में लोकतांत्रिक मूल्यों और परम्पराओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था की। अतः हमें एक ऐसे युवा कार्यबल का निर्माण करना है जो अच्छी तरह से शिक्षित और उचित रूप से कुशल हो।
यूनिसेफ 2019 की रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 47% भारतीय युवा 2030 में रोजगार के लिए आवश्यक शिक्षा और कौशल प्राप्त करने योग्य नहीं हैं । जैसा की चाणक्य ने कहा है – अयोग्यः पुरुषो नास्ति,योजकस्तत्र दुर्लभः, अर्थात कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं है, केवल अच्छे योजकों की कमी है। देश की साझा विरासत और संस्कृति के संरक्षण के लिए युवाओं के प्रशिक्षण और सहभागिता की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा की प्रारंभिक नीव मजबूत बनाने के लिए स्कूल पाठ्यक्रम का आधुनिकीकरण किया जाए, शिक्षक प्रशिक्षण में व्यवस्थित रूप से निवेश हो और बड़े पैमाने पर खुले ऑनलाइन पाठ्यक्रमों (MOOCS) के साथ आभासी कक्षाओं को स्थापित करके मानव पूंजी के निर्माण की गति में तेजी लाने के लिए नई तकनीक का प्रयोग किया जाए। महिला साक्षरता पर भी ध्यान देना आवश्यक है और उनके लिए लचीली प्रवेश और निकास नीतियां बनाई जानी चाहिए। साथ ही, व्यावसायिक शिक्षा उन्हें समकालीन व्यवसायों तक पहुंचने में मदद करेगी, जो राष्ट्र निर्माण में योगदान देने में सहायक होगी।
युवाओं में सामाजिक जिम्मेदारी और संवेदना का भाव विकसित करने हेतु हमें उन्हें सिखाना होगा, कि हम वसुधैव कुटुम्बकम का पालन करते हुए सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानते हैं और साथ ही प्रकृति के प्रत्येक घटक में चेतना का दर्शन करते हुए प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और प्राणी मात्र के कल्याण के लिए शुभकामना, शुभ संकल्प और शुभकर्म करते हैं।
हम यह सिद्ध भी कर सकते हैं, क्योंकि सार्वभौमिक मानवता और प्राणिमात्र से एकात्म का यह दर्शन हमारी देश की संस्कृति का ही नहीं, अपितु वर्तमानसमय में भी हमारी शिक्षा प्रणाली की भावधारा को प्रेरित करता है। जैसा की ज्ञात है, महात्मा गाँधी ने बुनियादी शिक्षा और नयी तालीम के माध्यम से शिक्षा के प्रासंगिक प्रतिमानों का उल्लेख किया है और गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन और उनके विचारों का सार भी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उनकी कालजयी कृति गीतांजलि में अभिव्यक्त हुआ है।
इतिहास गवाह है कि भारत की शिक्षा परंपरा में पहली बार विश्व में जगद्गुरु की अवधारणा धरातल पर प्रस्तुत हुई। इसका मूल कारण यह था कि भारत ने समकालीन ज्ञान को तो समझा ही, साथ ही अपनी जड़ों से जुड़े रहने का संकल्प भी बनाए रखा। इसलिए भारत की शिक्षा पारंपरिक होते हुए भी आधुनिक है। मूल्यों पर आधारित हमारे देश की शिक्षा योग से सूचना प्रोद्योगिकी तक विस्तृत है और यही पहचान भारत को विश्वगुरु बनाती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय और नैतिकता पर आधारित भारत की शिक्षा सर्व समावेशी और सर्व कल्याणकारी अवधारणा पर आधारित है। भारत ने विद्या को भोग का नहीं अपितु मुक्ति का साधन माना है। बृहदारण्यक उपनिषद ने परमात्मा से असतो मा सद्गमय तथा तमसो मा ज्योतिर्गमय की प्रार्थना करके शिक्षा के सम्पूर्ण लक्ष्य को साररूप में प्रस्तुत किया। भारतीयों ने इसी अवधारणा के चलते अपने ज्ञान और विचारों का प्रसार शस्त्र बल पर नहीं अपितु शास्त्र बल पर किया।
गौरतलब है कि विभिन्न विचारधाराओं पर आधारित होने के बाद भी भारत की शिक्षा परंपरा में वर्चस्व का संघर्ष कभी नहीं हुआ। मेक्सिको-अर्जेंटीना से जापान तक और तस्मानिया से ग्रीनलैंड तक हुई पुरातत्व खोजों में भारतीय संस्कृति और भारतीय शिक्षा का प्रसार कई बार प्रमाणित हुआ है।
नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालयों के अवशेष आज भी भारत की शिक्षा की यशोगाथा गा रहे हैं। यहाँ सनातन और आस्तिक दर्शनों से लेकर घोर नास्तिक और अनीश्वरवादी दर्शन भी सामान आदर से पढाए गए। देश की शिक्षा व्यवस्था प्रारंभ से ही मनुष्य के भीतर निहित गुणों को उत्कृष्टता के सर्वोच्च स्तर तक पहुंचाने के लक्ष्य से प्रेरित रही। 1947 में जहाँ नाममात्र के विश्वविद्यालय थे, वहीं अब कुल 911 हो चुके हैं और साथ ही 40,000 से अधिक महाविद्यालय हैं- जिससे कुल मिलकर 4 करोड़ से अधिक विद्यार्थियों को शिक्षा दी जा रही है। अर्थात हमारे देश में युवाओं की शिक्षा के लिए असंख्य शिक्षक समर्पित हैं, ज़रूरत है तो मात्र इस युवा शक्ति के उचित मार्गदर्शन की।
स्पष्ट है कि विश्वस्तरीय ज्ञान की प्राप्ति, अंतर्राष्ट्रीय संपर्क, बदलते आर्थिक परिदृश्य, रोजगार तथा उद्यमिता के बदलते स्वरुप और नयी शताब्दी की परिवर्तनशील आवश्यकताओं के कारण एक से अधिक भाषा का ज्ञान विश्व में सभी के लिए आवश्यक है। इन सभी के समागम से ही हम हमारे देश के युवा को सशक्त बना पाएंगे, और राष्ट्र को परम वैभव के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने में सक्षम हो सकेंगे।