आशा के स्पर्श में बसी है जीवन की आहट

प्रज्ञा पाठक
हाल ही में एक ऐसी लड़की से मेरी भेंट हुई जो किसी निजी कारण से बहुत दुखी थी। उस तनाव में अक्सर अस्वस्थ रहने लगी थी और कई बार आत्महत्या का विचार भी उसके मन में आता था। मुझे उस सुशिक्षित युवा लड़की का दुःख मानव होने के नाते अपना सा लगा और मैंने बातों बातों में उसकी काउंसलिंग करना शुरू की। मगर ऐसे कि उसे तनिक भी अहसास ना हो अन्यथा वह मुझसे विमुख हो जाती।
 
मैं उसे नित्य सकारात्मक संदेश प्रेषित करती और हर तीन-चार दिन में फोन पर बात करती। पहले उसकी समस्या को जानकर उसके दुःख का विरेचन किया, तत्पश्चात वह कुछ हल्का सा महसूस करने लगी। फिर धीरे-धीरे उसे वो राहें दिखलाईं, जो उसे अपने दुःख में केंद्रीभूत हो जाने के कारण दिखाई नहीं दे रही थीं। कुछ समय अवश्य लगा, लेकिन अब वह लड़की अपने दुःख से पूर्णतः मुक्त होकर अपने अध्ययन और अन्य दायित्वों का बखूबी निर्वाह कर रही है।
 
मेरे प्रति स्नेह और आभार से भरी उस लड़की की वाणी में अब आत्मविश्वास झलकने लगा है, जो मेरी आत्मा को सच्चा सुख देता है।
 
यहां स्वानुभव कहने का उद्देश्य यह है कि जब कभी ऐसे जीवन से हारे, निराश व्यक्ति हमें मिलें, तत्काल उन्हें संज्ञान में लेकर ऐसे प्रयास करना चाहिए जिससे वे अपनी निराशा से बाहर आ सकें। इस क्रम में संभव है कि हम किसी आत्महत्या की हद तक पहुंच चुके जीवन को बचा पाने में कामयाब हो जाएं।
 
सच में, आशा में असीम शक्ति होती है। यह दुःख में आपादशीर्ष डूबे व्यक्ति को सहारा देती है। उसे अपने कष्टों से लड़ने और लड़कर जीतने की प्रेरणा देती है। निराशा में अपने तन और मन दोनों से पराजित हो निष्क्रिय बैठ जाने वालों के लिए आशा एक ऐसी ऊर्जा का काम करती है जो विद्युत सम उनके समग्र व्यक्तित्व में संचरित होकर उन्हें पुनः सक्रिय कर देती है और कई बार ऐसे लोग जीवन में महान सफलताएं भी अर्जित करते हैं।
 
जीवन सफलता और असफलता के मध्य ही संचालित होता है। सब कुछ अच्छा और सुखद ही हो- यह आवश्यक नहीं।कई क्षण ऐसे आते हैं, जब प्रतिकूलताएं हावी हो जाती हैं। सामान्य मानव इन परिस्थितियों में दुखी और परेशान होते हैं। अधिक भावुक लोग ऐसे विपरीत समय में आत्महत्या का विचार करते हैं और कई इसे अंजाम भी दे देते हैं। हालांकि आत्महत्या किसी भी समस्या का बुद्धिमत्तापूर्ण हल कभी भी नहीं होता है। लेकिन नितांत नकारात्मकता से भरे हुए आशाहीन लोगों को यही अंतिम और एकमात्र विकल्प नज़र आता है।
 
इसलिए मेरा आप सुधीजनों से आग्रह है कि जब भी ऐसे लोगों से आपकी भेंट हो, बिना एक क्षण गंवाए उन्हें अपने विश्वास में लेकर संवाद आरंभ कर दें।

आप 'मार्गदर्शक' की मुद्रा में नहीं बल्कि 'मित्र' की भूमिका में रहकर उन्हें संबंधित दुःख से बाहर लाने का प्रयास करें क्योंकि उन्हें गुरु के ज्ञान की नहीं अपितु मित्र की संवेदना की ज़रूरत होती है।
 
आप उन्हें अपनी हार्दिकता का स्पर्श दीजिए। उन्हें महसूस कराइए कि वह उनके परिजनों सहित आप की भी आवश्यकता हैं और उनके बिना आप सभी का जीवन निष्प्राण हो जाएगा। साथ ही आप उन्हें उनके कष्ट से मुक्ति का मार्ग भी दिखाइए क्योंकि प्रत्येक समस्या का कोई ना कोई समाधान अवश्य होता है। आप उन्हें निराशा के बंजर से निकालकर आशा की उस हरियाती भूमि पर ले जाइए, जहां उनका खोया आत्मविश्वास लौट आए और मन प्रसन्न, मस्तिष्क सक्रिय होकर उर्वर सोच से संपन्न हो जाए।
 
आप स्वयं देखेंगे कि दिल से किए गए इस सच्चे सत्प्रयास से कैसे आपने एक जीवन को तो पुनः जीने की राह पर लौटा ही लिया है, साथ ही उससे जुड़ी अन्य ज़िन्दगियों को भी संवार दिया है।
 
कितना अच्छा हो, यदि हम सभी आशापुंज बनकर कार्य करें और किसी डूबते को तिनके का सहारा दें। यह कार्य परहित की भारतीय परंपरा तो साधेगा ही, स्वयं आपको भी अपनी पहचान अर्थात 'मानवीयता' को जीने का सुअवसर देगा।

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