poem on mothers day 2023 in hindi
महिमा शुक्ला
खोलूं क्या उस गलियारे को
जो छुपे रहे हैं गहरे तल में
लगे हैं ताले बिन चाबी के
मन की गांठों औ उलझन के
कुछ यादें हैं कुछ भूलें हैं.
नादानी का बचपन बीता
तेरी छाया में ही बढ़ते
रोते-हँसते जीवन बीता
जब भी कभी अटकी भटकी
न बोल सुनाये न झिड़की दी
किये इशारे सदा ऐसे तुमने
सिखा गये जीने की रीत
मौन रह कर भी यही बताया
कैसे जीना हर पल को
कठिनाई से पार हों कैसे
जीत हो या हार हो
बस अपनी करनी-कथनी हो सच्ची
कुछ भी बेहतर फिर और नहीं,
न बोझ उठा न बोझ बनो तुम
राह अपनी खुद चुनो तुम।
तब तो यह न जाना था
फिर माँ बन कर ही माँ को जाना
आज तुम नहीं हो तब सोई थीं।
आंखें अधखुली पर गीली थीं,
जिन आंखों से मैंने दुनिया समझीँ
फिर तुम्हें बताया जो मैंने देखा
तुम मौन हो आज निश्चेष्ट हो
आंसू से नहीं दूंगी विदाई
जिस पीड़ा से जन्मा मुझको
वही समा गयी हो जैसे मुझमें ,
जाओ! जहां जाना हो तुमको
समेट लिया सब कुछ आंखों में
बहुत दूर हो गई हो मुझसे
पर समा गई हो अंतर में
स्नेह तुम्हारा - फ़िक्र तुम्हारी
कुछ अलग नहीं
माँ का तो मानस होता ही ऐसा
सो,