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अजय ब्रह्मात्मज : फिल्म के विचारक

हमें फॉलो करें अजय ब्रह्मात्मज : फिल्म के विचारक
, बुधवार, 8 अक्टूबर 2014 (14:35 IST)
अभी तक माना जाता था कि फिल्मी पत्रकारिता सिर्फ गॉसिप पर टिकी पत्रकारिता होती है। ऐसे में यदि किसी ने फिल्मी पत्रकारिता को गंभीर पत्रकारिता का स्वरूप दिया है तो उसमें अजय ब्रह्मात्मज का नाम अग्रणी पत्रकारों में शुमार किया जाएगा। उन्होंने अपने लेखन, अपने ब्लॉग के जरिए फिल्म को विचार-विमर्श का विषय बनाया। लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखते हुए उसके विपुल प्रभाव को समझने की कोशिश उन्हें भीड़ से अलग करती है। यही कारण है कि उन्हें फिल्म, फिल्मी दुनिया और फिल्मी सोच का विचारक कहा जाता है।

ऐसे बनी लगान', 'समकालीन सिनेमा' और 'सिनेमा की सोच' जैसी कई चर्चित किताबों के लेखक अजय से यदि आप पहली बार मिलेंगे तो कहीं से भी नहीं लगेगा कि आप पहली बार मिल रहे हैं। आप पत्रकारिता में कितने ही नए हों, लेकिन वे आपको इतनी इज्जत देंगे जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि आपने उन्हें कह दिया कि वे आपसे घर मिलना चाहते हैं तो वे पूरी रात जागकर आपका इंतजार कर सकते हैं और लिफ्ट के जरिए नीचे उतरकर आपको आपकी गाड़ी तक सीऑफ कर सकते हैं। यदि किसी बुक स्टोर पर आप उनकी कोई किताब उलट-पलटकर देख रहे हों और वे पीछे खड़े हों और आप उन्हें अचानक देखकर यह पूछें कि 'क्या आपने ही यह किताब लिखी है?', तो वे चुपचाप सिर हिलाकर अपनी किताब ढूंढने में लग जाएंगे।

'चवन्नीचेंप' ब्लॉग की लोकप्रियता का अंदाजा उस ब्लॉग पर जाने पर ही आप जान सकते हैं। किसी ने उनके बारे में लिखा भी था कि अजय ब्रह्मात्मज को उनकी गंभीरता, स्वाभाविकता और ईमानदारी के लिए जाना जाता है। वे फिल्मकारों और निर्देशकों- निर्माताओं पर मौकों या मूड के लिहाज से सुझावों और आलोचनाओं के पत्थर या गुलाब फेंककर अपने कर्तव्य और जुड़ाव की इतिश्री नहीं करते। घर के लोगों की माफिक उनका फिल्म संसार और इस दुनिया के लोगों से जुड़ाव है। मुंबई के ओशिवारा इलाके में रहने वाले अजय ब्रह्मात्मज ने अपनी पढ़ाई जेएनयू से की लेकिन असली पढ़ाई तो फिल्म देखते-देखते की।

बिहार के वीरपुर जिले में पैदा हुए अजय ब्रह्मात्मज ऐसी जगहों पर पले-बढ़े, जहां फिल्मों को दोयम दर्जे का समझा जाता था। यही कारण था कि फिल्मों और फिल्मी दुनिया में उनकी रुचि बढ़ी। वे 1990 में मुंबई आए थे और फिर फिल्मी दुनिया को जितनी बारीकी से देखा है, परखा है, उतना शायद ही कोई हिन्दी पत्रकार हो। फिल्मों को लेकर उनकी सोच उन्हें औरों से अलग करती है। हालांकि एक वक्त था, जब साहित्यिक दुनिया में भी उनका मन रमा करता था, लेकिन बदलते वक्त के साथ उन्होंने खुद को फिल्मी दायरे में सीमित कर लिया।

(मीडिया विमर्श में विनीत उत्पल)

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