मेरे एक मित्र एक विदेशी कंपनी के 'कंट्री हेड' हैं। वे अक्सर काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं। एक दिन बातों-बातों में उन्होंने लगभग भावुक होते हुए कहा कि पैसा तो बहुत कमा रहा हूँ लेकिन परिवार को बहुत 'मिस' करता हूँ। मुझे उनकी यह बात बहुत प्रीतिकार लगी। मुझे वे सभी लोग बहुत अच्छे और सच्चे लगते हैं, जो 'परिवार' नामक संस्था का सम्मान करते हैं। यदि भारतीय संदर्भ में देखें तो परिवार का प्रसंग आते ही मन में जो भाव उभरता है, उसे कुछ-कुछ पवित्र भाव कह सकते हैं। वह समाज-व्यवस्था की सबसे छोटी किंतु सबसे अहम इकाई है। उसका महत्व और उसकी आवश्यकता निर्विवाद है।
भारतीय जीवन में परिवार का वही महत्व है, जो धर्मों-संप्रदायों में पूजागृहों का होता है। आप परिवार के बिना भारतीय जीवन और समाज-व्यवस्था की कल्पना ही नहीं कर सकते। वही मूल है। कहना चाहें तो कह सकते हैं कि परिवार भारतीय समाज का ऑक्सीजन है। यही कारण है कि सिर्फ हिन्दी नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं में परिवार केंद्रित रचनाओं की भरमार है। किसी भारतीय भाषा का शायद ही कोई बड़ा लेखक ऐसा होगा, जिसने परिवार केंद्रित कुछ रचनाएँ न लिखी हों। हिन्दी में प्रेमचंद से लेकर नीलाक्षी सिंह तक इस सच को देखा जा सकता है। अकेले प्रेमचंद ने परिवार की अलग-अलग समस्याओं पर कई अविस्मरणीय कहानियाँ लिखी हैं। 'बेटों वाली विधवा' उनकी एक ऐसी ही कहानी है।
हम जानते हैं, आज परिवार अपनी निर्मिति और विस्तार पर वही नहीं है, जो प्रेमचंद के समय में था। अब गाँवों में भी संयुक्त परिवार कम ही दिखते हैं। 'अलग्योझा' एक अनवरत प्रक्रिया है। एक स्थायी सच है। बड़े परिवार टूटते हैं, छोटे निर्मित हो जाते हैं। यहाँ विखंडन सृजन का सहयात्री है, लेकिन इस सृजन में फाँक भी है। बेहद त्रासद फाँक। एकल परिवारों के युग में बूढ़े माँ-बाप की जगह कहाँ है, यह प्रश्न पिछले पचास वर्षों से जीवन और साहित्य के केन्द्र में है। जिसकी परिक्रमा करते हुए हम कमाने और धाक जमाने लायक हुए उसी देवी और उसी देवता के लिए हमारे 'नए मंदिर' में कोई 'स्पेस' नहीं।
आजकल 'ओल्ड एज होम्स' की संख्या बढ़ती जा रही है। जिन्होंने पलकों पर पाला, बच्चों ने उन्हें ही (घर से) निकाला। मैं जब भी किसी 'ओल्ड एज होम' के सामने से गुजरता हूं, मुझे युवा होने पर शर्म आती है। वे भी युवा ही होंगे जिन्होंने अपनी 'प्राइवेसी' के लिए माँ-बाप को बेघर कर दिया है। यह आज के युवा जीवन की विडंबना है। यह उस जीवन-दर्शन का अंधेरा पक्ष है जिसमें आज के युवा अपने लिए सारा आकाश चाहते हैं लेकिन माँ-बाप को 'शरीर भर जगह' नहीं दे पाते। कभी अंधेरा देखकर या किसी से डरकर जिनकी गोद में छिपकर विजयी भाव पाते थे, उन्हें उस उम्र में अंधेरा दे रहे हैं, जब व्यक्ति की अपनी ही आँखों में अंधेरा गहराने लगता है। समय के इस दौर में बेटे बुढ़ापे की आँख से हो गए हैं।