धीरे-धीरे इक्कीसवीं सदी के तेरह वर्ष बीत गए। चौदहवाँ वर्ष आधा बीत चुका है। ईसा पूर्व की बातें न करें तो भी मानव संस्कृति के दो हजार साल कम नहीं हैं। इन दो हजार सालों में मनुष्य ने बहुत विकास किया है, लेकिन स्त्री-स्वाधीनता को लेकर अब भी बहस जारी है।
पितृसत्ता से संचालित लोगों के दिल-दिमाग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि स्त्री अपना जीवन स्वयं भी संचालित कर सकती है। सैकड़ों साल के लंबे संघर्ष के बावजूद स्त्रियों के फैसले उनके पुरुष लेते हैं। हमारे समाज में पुरुषों को अनेक प्रकार की छूट मिली हुई है, लेकिन स्त्री अपनी पसंद के पुरुष से प्रेम भी नहीं कर सकती। समाज, जाति, धर्म और आर्थिक स्तर जैसे मुद्दे बीच में डाल दिए जाते हैं।
हिन्दी के सुपरिचित कवि बद्रीनारायण की एक कविता 'प्रेम-पत्र' में इस बात का जिक्र आता है कि बंदिशें प्रेम-पत्र पर ही लगाई जाएँगी। यह कैसी विडंबना है कि सबसे कोमल भावों पर चोट की जाती है और तुर्रा यह कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं। इस संबंध में मीडिया की भूमिका भी प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती। मीडिया 'प्रेम' और 'आनर किलिंग' को लेकर उस तरह समाज को उद्वेलित नहीं कर पाया है, जैसी उससे उम्मीद है। कुछ निजी समाचार चैनल तो प्रेम संबंधी खबरों को सनसनी की तरह प्रस्तुत करते हैं। मनोरंजन प्रधान चैनल भी प्रेम को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की अपेक्षा सतही चीजों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं।
आज सुनते हुए लगता है जैसे महानतम फिल्म 'मुगले आजम' का हर कंठ में समाया हुआ गीत 'हमें काश! तुमसे मोहब्बत न होती/कहानी हमारी हकीकत न होती' में प्रेम की इसी पीड़ा को स्वर दिया है। यह भी विडम्बना ही है कि इस गीत को लिखे हुए चार दशकों से अधिक का समय बीत गया, आजाद भारत सड़सठ वर्ष का हो गया, लेकिन इस महान देश की अधिकांश बेटियां आज भी अपने हिस्से की बात नहीं कह पाती हैं।
कालजयी कथाकार प्रेमचंद ने पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कहा था कि हमें अपने बेटों की तरह ही बेटियों पर भी भरोसा करना चाहिए। प्रेमचंद जानते थे कि वह समाज या देश उन्नति ही नहीं कर सकता, जो सिर्फ पुरुषों के विकास की बात सोचता हो। आखिर आधी आबादी के बिना आप विकास का कौन-सा मॉडल तैयार करेंगे? हमारे परिवारों में बेटा-बेटी का फर्क कमोबेश पहले जैसा ही बना हुआ है। यदि बेटा कुछ करके आए तो कोई समस्या नहीं होती या जल्द ही सुलझ जाती है, लेकिन यदि बेटी जीवन में कोई स्वतंत्र निर्णय ले ले तो 'आनर किलिंग' तक की घटनाएँ हो जाती हैं। यह अकारण नहीं है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित उर्दू की लेखिका कुर्तल-एन-हैदर की एक रचना का नाम ही है- 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो।' शीर्षक में ही अथाह पीड़ा दिख जाती है। पाठक हिल जाते हैं, लेकिन यह भी सच है कि जब तक समाज की चूलें न हिलें तब तक परिवर्तन नहीं होगा। इसी रचना के शीर्षक को बदल करके एक हिन्दी धारावाहिक का नाम 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' कर दिया गया है। जाहिर है, इस शीर्षक में एक प्रतिरोध और स्त्रीत्व पर गर्व का भाव है। इस सीरियल में भी स्त्री-अधिकारों पर होते प्रहारों को दिखाया गया है। इसके कई दृश्य सामंती और पितृ सत्तात्मक शोषक वृत्ति के खिलाफ घृणा पैदा करने में बेहद सफल हुए हैं। यह सब देखते हुए यकीन करना मुश्किल होता है कि हम एक सीमा तक विकसित हो चुके समाज का हिस्सा हैं।
वैसे पिछले कुछ सालों में स्त्री-अधिकारों के प्रति जागरूकता आई है। केन्द्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों ने भी इस ओर ध्यान दिया है। स्त्री-विमर्श ने भी इस दिशा में स्थायी महत्व का कार्य किया है। कहना न होगा कि इसी विमर्श के नाते युवा पुरुषों का ऐसा वर्ग तैयार हुआ है जो स्त्री को उसकी शर्तों पर जीवनसाथी बना रहा है। यह प्रक्रिया अपने आरंभिक चरण में है, लेकिन उम्मीद की एक किरण भी भविष्य के लिए जीवद्रव्य की तरह होती है। आशा करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी के आने वाले वर्ष इस महादेश की आधी आबादी के जीवन में स्थायी प्रकाश लेकर आएँगे और तब कोई युवती 'ऑनर किलिंग' का शिकार न होगी।
प्रेम से भरे ई-मेल और एसएमएस प्रतिबंधित नहीं किए जाएँगे। लड़कियों के पिताओं के चेहरों का तेज और बढ़ जाएगा। जब कोई युवती मृत्यु की राह पर बढ़ती हुई, यह न गाएगी- हमें काश! तुमसे मोहब्बत न होती। या इस बात पर पछताती हुई न मिलेगी कि उसके परिवार ने उसकी प्रतिभा की कद्र न की और उसे करियर बनाने के अवसर न मिले। स्त्रियाँ पुरुषों का सम्मान करती हैं, उनके जीवन को गतिशील बनाती हैं तो पुरुषों की भी जिम्मेदारी है कि वे स्त्रियों को बराबर का सम्मान दें और उनके जीवन को गतिशील और सपनों से भरपूर बनाने में सहयोग करें।