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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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ट्‍विटर को इतना सीरियसली न लें, इससे दीगर भी एक मुल्क है...

-ब्रजमोहन सिंह

हमें फॉलो करें ट्‍विटर को इतना सीरियसली न लें, इससे दीगर भी एक मुल्क है...
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पिछले दिनों एक ख़बर आई और आकर चली गई। ख़बर यह थी कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्‍विटर पर फैन फॉलोविंग व्हाइट हाउस से ज़्यादा हो गई। भारतीय अख़बारों ने इसे सिंगल या डबल कॉलम में निबटा दिया। टीवी पर भी मुझे यह ख़बर दिखाई नहीं दी।

भारत जैसे देश के लिए जहां अब भी रोटी, कपड़ा और मकान एक बड़ी समस्या है। इस ख़बर को लेकर कहीं कोई सेलिब्रेशन नहीं हुआ। इसके बरक्स, इसी खबर को बीबीसी ने बहुत ही गंभीरता से अपने इंडिया पेज पर साझा किया। कई विदेशी अख़बारों ने इसे प्रमुखता से छापा। अब सवाल उठता है, क्या हम भी इस ख़बर को उसी नज़रिए से देखें, जिस नज़रिए से यह खबर को अमेरिका या ब्रिटेन में देखा और पढ़ा जाता है।

उस वक़्त जब देश के बहुत बड़े पश्चिमी और उत्तरी हिस्से में कम बारिश होने का खतरा मंडरा रहा है। इस खबर का हमारी, आपकी और सबकी ज़िन्दगी पर इसका असर पड़ना तय है। इस ख़बर से सीधा-सीधा असर देश के सकल घरेलू उत्पाद और विकास दर से भी जुड़ा हुआ है। याद रखिएगा, इस ख़बर का असर, आप जिस भी प्राइवेट संस्थान में काम कर रहे हैं, उसके ग्रोथ, और आपकी जेब पर भी पड़ता है। अगर ऐसा है तो आपके लिए टि्वटर की इस खबर के कोई मायने नहीं हैं।

इस देश में पिछले कुछ हफ़्ते से हृदयविदारक खबरें आती रही हैं, लाशें पेड़ों से लटकी मिलती हैं। देश में बिजली को लेकर हाहाकार मचता है। घरों में बिजली नहीं है, लैपटॉप बांटे जा रहे होते हैं। देशभर में 60-70 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हैं। हम हिंदुस्तान को अमेरिका और चीन के समकक्ष देखना चाहते हैं, पर नेताओं के नित नए बयानों से देश शर्मसार होता रहता है।

मैं खुद ट्‍विटर और फेसबुक पर मौजूद हूं। मैं इसका आलोचक कतई नहीं हूं। मुझे देश, दुनिया अपने परिवार और आसपास की खबरें इससे मिलती हैं, लेकिन मेरे पास फेसबुक/ट्‍विटर से ज़रूरी भी बहुत से काम हैं। हमारी दिक्कत यह है कि हम ट्‍विटर को बहुत गंभीरता से लेने लगे हैं।

मोदी की जीत के पीछे सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ बताया जाता है। अपने पक्ष में जिस तरह से मोदी ने जनमत तैयार किया, वह बहुत से विश्वविद्यालयों के लिए शोध का विषय बनेगा, लेकिन यह कहानी चुनाव से पहले और चुनाव जीतने तक ही सही रहेगी। एक बार जब सरकार बन गई फिर सोच और प्राथमिकता बदलने की भी ज़रूरत है, इस बात को समझाना पड़ेगा।

देश को मुद्दों की तरफ देखना होगा। सरकार बदल तो गई, लेकिन महंगाई का दानव उसी तरह से मुंह खोलकर खड़ा है। रेल किराया, गैस की कीमत, सब्जियों के भाव, पेट्रोल और डीजल, सब कुछ बढ़ा। कोई भी सरकार इस बढ़त को बहुत लंबे समय तक जायज़ नहीं ठहरा सकती। कालेधन पर जांच की ख़बर के अलावा, इस सरकार के पास बताने के लिए कुछ है?

सोशल मीडिया की सबसे बड़ी कमी यही है कि अगर आपके पास अच्छी ख़बर नहीं है, तो आप शेयर क्या करेंगे? अच्छी खबर तभी बनेगी, जब वाकई बहुत कुछ अच्छा हो रहा होगा। और जब अच्छी खबर नहीं होगी, तो जनता को फीलगुड कैसे होगा। अच्छे दिन कैसे आएंगे? और अच्छे दिन नहीं आए, तो बुरी खबरें हैडलाइन बनेंगी। आप किस-किस को रोकेंगे?

भारत की जनता इमोशनल है, शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस सिंड्रोम से ग्रस्त है। कल वह किसी और के साथ थी, आज आपके साथ है। जनता तो बेवफा है, हम सब जानते हैं। जनता गिरगिट की तरह है, रंग बदल लेती है। जनता जागी हुई है। जनता आसमान को मुट्ठी में बंद करना चाहती है। यह जनता क्विक फिक्स चाहती है। जनता पता नहीं क्या-क्या चाहती है। यह अगर सियासतदां जान लें तो सरकार बदले ही क्यों।

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