हम जिस समय में जी रहे हैं, वह मीडिया का समय है। इसे 'मीडिया समय' भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। आज मीडिया की पहुँच मनुष्य के अंतरंग क्षणों तक है लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देखने में यही आया है कि मीडिया की भूमिका ध्वंसकारी रही है। आज मीडिया के पास जो शक्ति है, यदि वह उसका उपयोग सर्जनात्मक दिशा में करे तो 'मनुष्यता' को बहुत लाभ पहुँचेगा।
उसके प्रयासों से निश्चय ही विश्व शांति और समरसता की स्थापना में मदद मिलेगी। यहाँ हम याद कर सकते हैं कि वियतनाम युद्ध के समय खींचे गए एक चित्र ने अमेरिका के भीतर अमेरिकी नीतियों का विरोध करने वाले एक वर्ग को जन्म दिया था और यह तत्कालीन मीडिया ने संभव किया था। अपनी तमाम शक्ति के बावजूद अमेरिका वह युद्ध हार गया था और पूरी दुनिया ने भीतरी शांति महसूस की थी।
आज मीडिया पर पूंजी का नियंत्रण है और पूंजीवाद अपने ढंग से 'विश्व शांति और समरसता' का ढकोसला कर रहा है, लेकिन याद रखन चाहिए कि महात्मा गांधी जिस विश्व शांति और समरसता की बात करते थे, वह हर प्रकार की शक्ति संरचना का विलोम था। गांधी जी यह कभी नहीं चाह सकते थे कि मीडिया स्वयं एक शक्ति संरचना में बदल जाए। यदि गांधी जी जीवित होते तो मीडिया का वर्तमान स्वरूप उन्हें व्यथित करता। वे ऐसी मीडिया की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जिसके पास किसानों, दलितों, स्त्रियों और वंचितों के लिए लगभग 'स्पेस' ही न हो। पिछले वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं और स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराधों को लेकर मीडिया में सनसनी भले ही देखी गई हो, गंभीरता नहीं देखी गई। जबकि मीडिया वो शै है कि इन मुद्दों पर सरकार हिला सकती है। अमेरिका जिस तरह छोटे देशों को निगलने-कुचलने में लगा रहता है, मीडिया भिड़ जाए तो उसे पटरी पर ला सकती है। और जाहिर है, यदि ऐसा हुआ तो समरसता बढ़ेगी, विश्व शांति का माहौल बनेगा।
इन दिनों समाचार-पत्रों, टेलीविजन चैनलों, रेडियो चैनलों, गूगल, याहू, ट्विटर और फेसबुक जैसे माध्यमों ने दुनिया की परिधि को भौगोलिक रूप से तो छोटा नहीं किया, लेकिन उसे आम आदमी की पहुँच में ला दिया है। किसी का 'फेसबुक' पर किया गया एक कमेंट पल भर में एक मित्र से दूसरे मित्र तक होता हुआ पूरी दुनिया में फैल जाता है। कुछ हाल ही में देशों में पिछले दिनों तानाशाही के विरुद्ध अवाम की लड़ाई में इन नए मीडिया माध्यमों ने जो भूमिका निभाई, कुछ वर्ष पहले तक उसकी कल्पना भी संभव नहीं थी। लेकिन इन माध्यमों का दुरुपयोग भी हो रहा है और इस प्रकार वह मानवीय गरिमा को क्षति पहुँचा रहा है।
आज मीडिया का जयगान जरूरी है, लेकिन आलोचनात्मक विवेक के साथ। कहीं ऐसा न हो कि आम आदमी अपनी भावुकता और मनुष्यता के साथ जिन अभियानों का समर्थन करे, दरअसल वे विश्व शांति और समरसता की आड़ में, मीडिया की मदद से पूरी दुनिया को अपने नियंत्रण में ले लेने की एक साजिश हों। गांधी जी अपने समय में इंग्लैंड की साम्राज्यवादी साजिशों को समझते थे, इसलिए साम्राज्यवाद के समर्थन में खड़ी तत्कालीन मीडिया के समानांतर उन्होंने वैकल्पिक मीडिया का पक्ष लिया था। नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने स्वयं कई पत्रों को संपादन किया। आज यदि सही अर्थों में वैश्विक शांति और समरसता के लिए संघर्ष करना है तो शक्ति संरचना में बदल चुके मीडिया घरानों के समानान्तर वैकल्पिक मीडिया को विकसित करना होगा। यह संभव ही नहीं है कि अमेरिकी नीतियों पर 'बलि-बलि जाते' मीडिया घराने खुली आँखों से उस ओर देखें या अपने कैमरे का मुँह उधर मोड़ें जिधर मनुष्यता कराह रही है, जहाँ बजबजा रहा दुःख साम्राज्यवाद का प्रसाद है। आज मीडिया का बहुलांश अमेरिका समर्थक है और अपने मूल आचरण में अमेरिका शांति का विरोधी। वह शांति की अपील करता है और उग्रवाद को बढ़ावा देता है।
जब उग्रवाद का बम उसी पर फूट पड़ता है तो बौखलाकर 'ओऽम शांतिः ओऽम शांतिः ओऽम शांतिः' कहने लगता है। लेकिन वर्षों से चीख रहे भारत की आवाज उसे सुनाई नहीं देती। भारत का दुःख उसे दिखाई नहीं देता। अमेरिकी मीडिया भी पूरी होशियारी से इस पक्ष को देखती-दिखाती है।
मीडिया की शक्ति और उसके चरित्र पर बातें और भी हैं, लेकिन हमें उम्मीद का दामन थामना चाहिए। किसी भी कालखंड में यह संभव नहीं है कि मीडिया का पूरा संसार ही साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का समर्थक हो जाए। हम कैसे भूल सकते हैं कि गहन अंधकार में भी कहीं-कहीं, कभी-कभी 'सफेद' बिजली की तरह चमकता है। मीडिया में भी 'सफेद' हैं और वे ही विश्व शांति और समरसता की स्थापना में मददगार होंगे। निश्चय ही, आज की तारीख में यह उम्मीद सबसे अधिक यदि किसी से की जा सकती है तो वह मीडिया से ही। उसकी असमाप्त सीमाओं के बावजूद।