बापू मर नहीं सकते...

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आशा त्रिपाठी
 
बापू मर नहीं सकते। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के विचारों में बापू यानी महात्मा गांधी का संदेश गूंज रहा है। गांधी के सुगंधित एहसासों से दुनिया गमक रही है। उन एहसासों को जीवित रखना  हमारी जिम्मेदारी है। संकेत यही है कि बापू की मौत नहीं हो सकती। बस, जरूरत सिर्फ इसी बात की है कि हम यह प्रयत्न करते रहें कि गांधीवाद जन-जन के विचारों के जीवित रहें। उनके विचारों को आत्मसात किया जाता रहे। महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई पुस्तक 'माई अर्ली लाइफ' का नया संस्करण कुछ वर्ष पहले ऑक्सफोर्ड विवि प्रेस ने प्रकाशित की है। 
 
इस पुस्तक को गांधी ने 1932 में लिखा था। पुस्तक के सबसे पहले संस्करण का सम्पादन गांधी के सहयोगी महादेव देसाई ने किया था। ताजा संस्करण की टीकाकार गांधीवादी विशेषज्ञ ललिता जकारिया हैं। पुस्तक में 1869 से 1914 के बीच के गांधी के जीवन काल का जिक्र है। खास बात यह है कि पुस्तक के इस संस्करण को आज के लड़के और लड़कियों के लिए रोचक बनाने की कोशिश की गई है। पुस्तक आज के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें उन मूल्यों का जिक्र है, जो गांधी बच्चों के लिए अहम मानते थे। यह बच्चों को एक लक्ष्य के साथ जीना सिखाती है। संकल्प लेने का महत्व बताती है। 
 
पुस्तक में गांधी ने खुद खाना बनाने पर जोर दिया है ताकि बच्चे बड़े होकर आत्मनिर्भर हो सकें। उन्होंने धूम्रपान नहीं करने और शाकाहारी बनने की सलाह दी है। पुस्तक में गांधी ने बताया है कि वह जब हाईस्कूल में थे तभी उनकी शादी कस्तूरबा से हो गई थी। इसी दौरान उनके एक दोस्त ने बताया कि बड़े लोग मांस खाते हैं। अंग्रेज हम पर इसलिए शासन करते हैं, क्योंकि वे मांस खाते हैं। इससे प्रभावित होकर गांधी ने मांस खाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हुए। वे कई दिनों तक परेशान होते रहे। उन्हें सपने में रोते बकरे दिखते थे। 
 
गांधी दर्शन जीवन के लिए शक्ति एवं प्रेरणा का निरंतर बहने वाला एक ऐसा स्रेत है, जो शताब्दियों तक प्रकाश स्तंभ के रूप में बना रहेगा। बल्कि वैश्विक गांव एवं बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के इस दौर में गांधीवाद की प्रासंगिकता और बढ़ी है। गांधी का जन्म भारत में, उच्च शिक्षा इंग्लैंड में तथा राजनैतिक संघर्ष की दीक्षा दक्षिण अफ्रीका में हुई और अपने समस्त अनुभवों का प्रयोग भारत को आजाद कराने में किया। वैश्वीकरण की उपज होने के कारण गांधी स्वयं इसके नफे-नुकसान से परिचित थे। 
 
वैश्वीकरण को प्राचीन घटना मानते हुए वे आश्वस्त थे कि विभिन्न संस्कृतियों के संश्लेषण से भारतीय संस्कृति को कोई खतरा नहीं है। वे पहले ही भांप चुके थे कि वैश्विक समाज के निर्माण के साथ ही संप्रभु राष्ट्रों को न सिर्फ राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से बल्कि औद्योगिकीकरण के साथ ही वर्ग संघर्ष एवं पर्यावरणीय समस्या से भी रूबरू होना पड़ेगा, जो समय के साथ सत्य सिद्ध हुआ। साम्यवादी रूस के पतन के साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पूंजीवादी विचारधारा का प्रभुत्व हो गया परंतु वाल स्ट्रीट संकट ने एक बार फिर गांधीवाद को प्रासंगिक बना दिया है कि समाज को अपनी अधिकतम आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर एवं न्यूनतम हेतु परस्पर निर्भर होना चाहिए।

गांधीवादी तकनीक सत्याग्रह एवं अहिंसा का सफल प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला द्वारा रंगभेद की समाप्ति हेतु तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा अश्वेतों के अधिकार के लिए किया गया, जिसकी परिणति अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा का चुना जाना है।
 
गांधीवाद अहिंसा और सत्याग्रह पर टिका है जो चार उपसिद्धांतों सत्य, प्रेम, अनुशासन एवं न्याय पर आधारित है, जिनकी उपादेयता एवं प्रासंगिकता, वैश्वीकरण के वर्तमान हिंसक दौर में और बढ़ जाती है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने गांधी जी की जन्म तिथि 2 अक्तूबर को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में स्वीकार कर मान्यता प्रदान की है। गांधीजी का यह कथन आज भी समीचीन है कि इस संसार में हमारी जरूरत के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध है, परंतु हमारे लालच के लिए नहीं। 
 
दूसरे शब्दों में कहें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि गांधी का जीवन ही गांधीवाद था। जो सोचा, मनन किया, वह किया। भारी-भरकम दर्शन, विचारधारा तथा वाद से वे हमेशा दूर रहे। उनकी अंतरात्मा ही उनकी पथ-प्रदर्शक थी और कर्म ही प्रयोगशाला। काका साहेब कालेलकर ने एकबार कहा था कि संसार की ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान गांधी के पास न हो, कोई ऐसा संकट नहीं जिसका हल उनके विचारों से निकाला न जा सके। ध्वंस के कगार पर बैठे विश्व और आपाधापी भरे सामाजिक जीवन के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त सत्य और अहिंसा के सिद्धांत संजीवनी हैं। गांधी अक्सर कहा करते थे कि लोग अपने अंदर झांकें और स्वयं को सुधार लें तो समाज, देश और अंत में विश्व स्वतः सुधर जाएगा। कुछ वर्ष पहले विश्व प्रसिद्ध ग्राफिक नॉवेल राइटर जेसन क्विन की महात्मा गांधी पर एक पुस्तक अंग्रेजी में प्रकाशित हुई। 
 
राजमोहन गांधी की चर्चित पुस्तक ‘मोहनदास : ए ट्रू स्टोरी ऑफ ए मैन, हिज पीपल एंड एन एम्पायर’ से प्रेरित इस पुस्तक का हिन्दी रूपांतर लोकप्रिय कवि प्रो. अशोक चक्रधर ने किया। ‘गांधी : मेरा जीवन ही मेरा संदेश’ शीर्षक से रूपांतरित यह ग्राफिक नॉवेल ऐसी पुस्तक के रूप में सामने आया है, जो महात्मा गांधी के जीवन और उनके दर्शन पर केंद्रित अब तक लिखी गई तमाम पुस्तकों में सर्वश्रेष्ठ कृति है। आज यदि पूरी दुनिया गांधीवाद की तरफ आशाभरी निगाह से देख रही है तो यह यूं ही नहीं है। कैम्प फायर द्वारा प्रकाशित समीक्ष्य पुस्तक में प्रो.अशोक चक्रधर कई रूपों में दिखते हैं। प्रो.अशोक चक्रधर की भाषायी कुशलता और संवादों की जीवंतता पाठकों को शुरू से अंत तक बांधे रखती है।
 
इस ग्राफिक नॉवेल की शुरुआत गांधीजी की हत्या के ठीक पहले तब से शुरू होती है, जब महात्मा गांधी अपने सबसे छोटे बेटे देवदास के परिवार के साथ बातें कर रहे हैं। देवदास बापू से कहता है कि जिस व्यक्ति ने पिछले सप्ताह आपको मारने की कोशिश की थी, वह अकेला नहीं था। देवदास की पत्नी बापू से अनुरोध करती है कि कृपया पुलिस को प्रार्थना सभा के दौरान सुरक्षा का बंदोबस्त करने की अनुमति दें। गांधीजी दोनों के अनुरोध को यह कहकर ठुकरा देते हैं कि प्रार्थना सभा में हथियारबंद पुलिस वालों के लिए कोई जगह नहीं है। रात लगभग 10 बजे दोनों के जाने के बाद बापू विचार करते हैं कि अच्छा होता कि वे मेरी इतनी ज्यादा चिंता न करते। मृत्यु को तो मित्र समझना चाहिए। जीवन की तरह मृत्यु भी मनुष्य के विकास के लिए जरूरी है। 
 
चरखा कातते हुए वे पुनः सोचते हैं- 'मेरी ज़िन्दगी अच्छी ही रही है। भरपूर जीवन जिया।’यहीं से फ्लैशबैक में गांधीजी स्वयं अपनी जीवन-यात्रा का स्मरण करते हैं। सुंदर चित्रों के माध्यम से उपन्यास आगे बढ़ता है। संवादों में इतनी रोचकता है कि पाठक कथानक से परिचित होने के बावजूद पूरी पुस्तक पढ़े बिना नहीं रह पाता। 
 
हिन्दी रूपांतरण के दौरान प्रो. अशोक चक्रधर ने अपने फिल्मकार, लेखक, समीक्षक और कवि-चित्रकार होने के अनुभव को संवादों में पिरोकर पाठकों तक पहुंचाने का सफलतम प्रयास किया है। जटिल मनोभावों को सरल शब्दों में रूपायित करने में ऐसा लगता है कि प्रो. चक्रधर को महारत हासिल है। संवादों में कहीं-कहीं उनका कवि रूप भी दिखता है। गांधी को जितना प्रचार रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ से पूरे विश्व में मिला, समीक्ष्य पुस्तक उसी अनुपात में गांधी के जीवन और विचारों को विश्व में प्रसारित करेगा, ऐसा माना जा सकता है। 1949 में गांधी के बारे में जॉर्ज ऑरवैल ने लिखा था कि सौंदर्यबोध के लिहाज़ से कोई गांधी के प्रति वैमनस्य रख सकता है जैसा कि मैं महसूस कर रहा हूँ, कोई उनके महात्मा होने के दावे को भी खारिज कर सकता है।

कोई साधुता को आदर्श के तौर पर ही खारिज कर सकता है और इसलिए ये मान सकता है कि गांधी का मूल भाव मानवविरोधी और प्रतिक्रियावादी था। लेकिन एक राजनेता के तौर पर देखने पर और मौजूदा समय के दूसरे तमाम राजनेताओं से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने पीछे कितना सुगंधित एहसास छोड़कर गए हैं। गांधी के बारे में आज भी यही सत्य है।
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