Ramayan : जामवंत और रावण का वार्तालाप कोसों दूर बैठे लक्ष्मण ने कैसे सुन लिया?

अनिरुद्ध जोशी
गुरुवार, 16 मई 2024 (19:13 IST)
jambavan vs ravana
jambavan vs ravana: तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की रामायण 'इरामावतारम्' में एक कथा का उल्लेख मिलता है। 'इरामावतारम्' रामायण की कथा अनुसार भगवान श्रीराम ने तमिलनाडु के एक विशेष स्थान पहुंचकर युद्ध की तैयारी की और रावण से युद्ध करने के पूर्व वहां पर भगवान शिव के 'शिवलिंग' की स्थापना करने का विचार किया। रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना करने हेतु किसी योग्य आचार्य या पुरोहित की आवश्यकता था। ऐसे में विद्वानों ने श्रीराम को रावण को बुलाने के लिए कहा, क्योंकि रावण विद्वान पंडित और पुरोहित था और वह शिवभक्त भी था।
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अंत में श्रीराम ने जामवंतजी को रावण को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा। जामवंतजी भी कुंभकर्ण की तरह आकार में बहुत बड़े थे। वे जब लंका पहुंचे तो लंका के प्रहरी भी हाथ जोड़कर उनको रावण के महल की ओर जाने वाला मार्ग दिखा रहे थे। महल के द्वार पर स्वयं रावण उनके अभिनंदन के लिए पहुंचा।
 
तब जामवंत जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मैं इस अभिनंदन का पात्र नहीं हूं। मैं वनवासी श्री राम का दूत बनकर आया हूं। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है। यह सुनकर रावण ने कहा, 'आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।'
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जामवन्त ने आसन ग्रहण करने के बाद पुनः कहा, 'हे रावण! वनवासी प्रभु श्री राम ने सागर सेतु निर्माण के उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने का विचार प्रकट किया है। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्या पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूं।'
 
रावण ने जामवंत की यह बात सुनकर हंसते हुए पूछा, 'क्या राम द्वारा शिवलिंग स्थापना लंका विजय की कामना से किया जा रहा है?
 
जामवंत ने कहा, 'आपका अनुमान सही है। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है। जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे?..कुछ देर रुकने के बाद जामवंत जी ने कहा, लेकिन हां। यह जांच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी श्री राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी हैं भी अथवा नहीं।
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जामवंतजी के इस तरह बात पर रावण थोड़ा क्रुद्ध हो गया और उसने कहा, 'जामवंत जी। आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं। यदि हम आपको यहां बंदी बना लें और आपको यहां से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे?
 
रावण के ये वचन सुनकर जामवंत खुलकर हंसे और कहा, 'मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता।' 
 
कुछ देर रुकने के बाद जामवंत जी बोले, हे रावण! ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां उपस्थित हूं, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह हम दोनों की यह वार्ता देख और सुन रहे हैं। जब मैं वहां से चलने लगा था तभी से धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं। उन्होंने आचमन करके अपने तूणीर से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्तजी! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा। इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुंचने की व्यवस्था करें।'
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