नजरिया: नीति निर्माताओं की इच्छाशक्ति से ही मिल सकती है आत्महत्या रोकथाम नीति
विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस आज
आज 10 सितंबर को आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जा रहा है। इस दिन का उद्देश्य आत्महत्या के प्रति पूरे विश्व को जागरूक करना है ताकि मृत्यु के 100 प्रतिशत रोके जा सकने वाले कारण पर नियंत्रण पाया जा सके। हालांकि आत्महत्या का कोई एक कारण नहीं होता है, यह बेहद जटिल घटना है जिसके पीछे बहुत से कारक होते हैं। जब कोई व्यक्ति स्वयं को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से कोई कदम उठाता है तो उसे आत्महत्या का प्रयास (सुसाइड अटेम्प्ट) कहते हैं और यदि उसका परिणाम मृत्यु होता है तो इसे आत्महत्या की संज्ञा दी जाती है।
एक शोध के अनुसार भारत में एक आत्महत्या की घटना के साथ ऐसे 200 लोग होते हैं जो इसके बारे में सोच रहे होते हैं और 15 लोग इसका प्रयास कर चुके होते हैं। कई देशों में उत्पादक आयु वर्ग की मृत्यु का ये दूसरा और कई देशों में तीसरा सबसे बड़ा कारण है।
वर्ष 2015 का एक शोध बताता है कि देश में लगभग 18 वर्ष से ऊपर आयु वर्ग के 30 मिलियन लोगों ने अपना जीवन समाप्त करने के बारे में सोचा, जबकि 2.5 मिलियन ने आत्महत्या का प्रयास किया। इन आंकड़ों से हम समझ सकते हैं कि कुछ प्रयासों और नीतियों से कितनी सारी मौतों को रोका जा सकता है।
आत्महत्या के कई कारण हो सकते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो लगभग सबके मन में जीवन के प्रति नैराश्य या असंतोष का भाव पाया जाता है । निम्नांकित बिंदु इन घटनाओं को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
हाई रिस्क ग्रुप (स्कूल,कॉलेज,प्रतियोगी परीक्षार्थी,काम की तलाश में दूसरे शहर गया युवा,किसान) का समय समय पर मानसिक स्वास्थ्य परीक्षण किया जाना चाहिए, ताकि मानसिक रोगों जैसे डिप्रेशन की पकड़ पहले से ही की जा सके और उचित इलाज़ से आत्महत्या के खतरे को समय रहते समाप्त किया जा सके।
परिवार नामक इकाई को मज़बूत किये जाने के बारे समाज को जिम्मेदारी उठानी ही होगी जिससे सपोर्ट सिस्टम मज़बूत हों। लोग संवेदनशील बने ताकि अप्रिय घटना होने पर और खराब मानसिक स्वास्थ्य में संबल प्रदान कर सकें। कोई भी धर्म आत्महत्या को सपोर्ट नहीं करता। समाजशास्त्री और धर्मगुरु इसकी रोकथाम में महती भूमिका निभा सकते हैं।
स्कूली पाठ्यक्रम में शुरू से मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी अध्याय जिसमें मानसिक स्वास्थ्य की अवधारणा, जीवन प्रबंधन,साइकोलॉजिकल फर्स्ट ऐड को शामिल किया जाना चाहिए ताकि हमारी नयी पीढ़ी बचपन से ही मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बन सकें और जीवन में आने वाली कठिनाईयों का सामना बखूबी कर सकें और मानसिक रोगों के प्रति जागरूकता के साथ कलंक का भाव भी न रहे.शिक्षकों को भी मानसिक रोगों के प्रति जानकारी होना आवश्यक है।
मीडिया द्वारा ऐसे तनाव प्रबंधन और जीवन प्रबंधन सम्बन्धी विषयों पर आलेख प्रकाशित किये जाने चाहिए।
आत्महत्या संबंधी खबरों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए।
घरों में खतरनाक हथियार ,कीटनाशक या ऐसे संसाधन रखने में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है, अगर विशेष जरुरत न हो तो इससे बचना चाहिए।
नशे की रोकथाम संबंधी कार्यक्रम, अधिक से अधिक काउन्सलिंग सेंटर,मानसिक रोग विशेषज्ञ की उपलब्धता को बढ़ाने हेतु नीति निर्माताओं को ध्यान देना आवश्यक है।
दूरस्थ स्थानों में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाने हेतु टेली साइकाइट्री शुरू करना भी महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
मानसिक रोगों के प्रति जागरूकता लाने हेतु व्यापक प्रयासों की आवश्यकता है। संक्रामक रोगों के प्रति जागरूकता लाने संबंधी मॉडल का अनुसरण करते हुए सेलिब्रिटी का भी सहयोग लिया जाना चाहिये।
इन सभी प्रयासों और समग्र रूप से मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता में लाने की सोच से ही आगे की दिशा निर्धारित हो पायेगी। मानसिक स्वास्थ्य किसी भी देश की उत्पादकता को सीधे प्रभावित करता है जरुरत है कि देश में आत्महत्या के कारणों को नजरअंदाज न करके इस पर एक सार्थक चर्चा हो और नीति निर्माता आत्महत्या रोकथाम नीति बनाने की ओर आगे बढ़े। आत्महत्या के बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए देश के मनोचिकित्सक काफी लंबे समय से प्रयासरत हैं और समय-समय पर सरकार को कई महत्वपूर्ण सुझाव भी देते आए है।
(लेखक मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट है और आत्महत्या के विरुद्ध 'से यस टू लाइफ' अभियान चला रहे हैं)