भारत में व्हाट्सऐप की झूठी खबरों पर अमेरिका की एमआईटी का अध्ययन

DW
सोमवार, 13 जुलाई 2020 (08:13 IST)
रिपोर्ट चारु कार्तिकेय
 
भारत में झूठी खबरें फैलाने के लिए व्हाट्सऐप के इस्तेमाल पर अमेरिका के एमआईटी का एक नया शोध सामने आया है। हॉर्वर्ड केनेडी स्कूल द्वारा छापे गए इस शोध के नतीजों ने इस समस्या पर नई रोशनी डाली है और नए तथ्य उजागर किए हैं।
 
एमआईटी की किरण गरिमेला और डीन एकल्स भारत में व्हाट्सऐप पर 5,000 से भी ज्यादा राजनीतिक चैट ग्रुपों में शामिल हुए और अक्टूबर 2018 से जून 2019 के बीच 9 महीनों तक 2,50,000 यूजरों द्वारा भेजे गए 50,00,000 से भी ज्यादा संदेशों का अध्ययन किया।
 
इन संदेशों में लगभग 41 प्रतिशत डाटा टेक्स्ट के रूप में हैं और 52 प्रतिशत तस्वीरों और वीडियो के रूप में। इनमें 35 प्रतिशत तस्वीरें हैं और 17 प्रतिशत वीडियो। इस शोध में तस्वीरों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जिनकी कुल संख्या करीब 16 लाख है। इन तस्वीरों के अध्ययन से शोधकर्ता 3 मुख्य नतीजों पर पहुंचे।
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तीन मुख्य नतीजे
 
पहला, इनमें कम से कम 13 प्रतिशत तस्वीरों वाले संदेशों में झूठी खबरें हैं। दूसरा, इनमें से करीब 34 प्रतिशत पुरानी तस्वीरें हैं जिनके संदर्भ को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, 30 प्रतिशत किसी व्यक्ति के हवाले से दी हुई झूठी बातें और झूठे आंकड़ों के मीम हैं और 10 प्रतिशत फोटोशॉप की हुई तस्वीरें हैं। इस अध्ययन के अनुसार झूठी खबरें फैलाने के लिए तस्वीरों वाले संदेशों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है।
 
शोध का तीसरा बड़ा नतीजा यह है कि झूठी खबरों वाली इन तस्वीरों के प्रसार को रोकने के लिए मौजूदा टेक्नोलॉजी काफी नहीं है। इसका एक कारण व्हाट्सऐप का एंड टू एंड एनक्रिप्टेड होना भी है जिसकी वजह से इस तरह के संदेश भेजने वाले शरारती तत्वों को छिपे रहने में मदद मिलती है। लाखों तस्वीरों और संदेशों की एक-एक कर जांच भी नहीं की जा सकती। शोधकर्ताओं ने पाया कि सॉफ्टवेयर के जरिए भी इस तरह की जांच के नतीजे सीमित ही हैं।
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सैंपलिंग की चुनौती 
 
शोधकर्ताओं का कहना है कि व्हाट्सऐप जैसे मंचों के जरिए झूठी खबरों को इस तरह फैलने से रोकने में अभी कई चुनौतियां हैं और यह काम बहुत मुश्किल है। उनका कहना है कि कम से कम संदर्भ तोड़-मरोड़कर जो पुरानी तस्वीरें भेजी जाती हैं, अगर उनका एक संग्रह बना लिया जाए तो इस तरह के संदेशों को पहचानने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं ने यह सुझाव भी दिया है कि यूजर झूठी खबरें क्यों भेजते हैं, इस सवाल पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी होने चाहिए ताकि यूजर को शिक्षित किया जा सके।
 
शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि यूजर झूठी खबरें क्यों भेजते हैं, इस सवाल पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी होने चाहिए। शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन के एक महत्वपूर्ण बिंदु के बारे में आगाह भी किया है। उन्होंने कहा है कि चूंकि व्हाट्सऐप पर ग्रूपों को ढूंढा नहीं जा सकता इसलिए वे पक्के तौर पर यह नहीं कह सकते कि उन्होंने ग्रुपों के जिन सैंपलों का अध्ययन किया, वे असली तस्वीर बयान करते हैं। उनके सैंपल में उन्होंने पाया कि इस तरह के 24 प्रतिशत ग्रुप बीजेपी के या उसके समर्थकों के हैं जबकि सिर्फ 5 प्रतिशत ग्रुप कांग्रेस के हैं।
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शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका कारण कुछ भी हो सकता है। संभव है कि इसका कारण कांग्रेस के व्हाट्सऐप को लेकर किसी सुनियोजित नीति का न होना हो, लेकिन चूंकि ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता इसलिए शोध के नतीजों को सिर्फ शोध के डाटा के आधार पर देखा जाना चाहिए और व्हाट्सऐप के सभी यूजरों से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए।

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