आरक्षण नहीं, व्यवस्था पर सवाल उठाइए

Webdunia
गुरुवार, 3 मई 2018 (10:17 IST)
आरक्षण की व्यवस्था को लेकर इसके विरोधियों और समर्थकों में लगातार बहस हो रही है। लेकिन शिक्षा और नौकरियों के अवसरों के अलावा सामाजिक ताने बाने को प्रभावित करने वाली इस बहस की दिशा पर शिवप्रसाद जोशी सवाल उठाते हैं।
 
 
संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) मेन की परीक्षा में इस बार दस लाख 43 हजार से ज्यादा छात्र बैठे थे। दो लाख 31 हजार छात्र सफल रहे यानी वे आईआईटी की एडवान्स्ड परीक्षा में बैठने के लिए क्वालीफाई कर गए हैं। इनमें से 50 हजार से कुछ ज्यादा लड़कियां हैं। करीब साढ़े 11 हजार छात्र तो आईआईटी में जाएंगे बाकी देश के अन्य सरकारी और निजी इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिले की होड़ में शामिल होंगे।
 
 
जेईई की एडवान्स्ड परीक्षा के लिए क्वालीफाई करने वाले एक लाख 11 हजार छात्र सामान्य श्रेणी, 65 हजार ओबीसी, करीब साढ़े 34 हजार एससी, 17 हजार एसटी, और करीब 2700 विकलांग श्रेणी से हैं। सामान्य श्रेणी का अधिकतम कटऑफ 350 और न्यूनतम कटऑफ 74 था वहीं ओबीसी का न्यूनतम 45, एससी एसटी और विकलांग श्रेणियों का न्यूनतम कटऑफ़ क्रमशः 29, 24 और -35 था। इन श्रेणियों में अधिकतम अंक 73 थे।
 
 
कट ऑफ अंकों में विशाल अंतर को अलग अलग नजरियों से देखा जा रहा है। एक नजरिया आरक्षण के लाभार्थियों को घुसपैठी के तौर पर देखने का भी है। समाज में सामान्य बनाम आरक्षित श्रेणियों के बीच टकराहट और कलुषता के बीच बहस उठने लगी है कि आरक्षण से विपन्न वर्गों के छात्रों का कोई फायदा हो न हो, सामान्य वर्ग के गरीब छात्रों का नुकसान हो रहा है, इसीलिए कुछ वर्ष पहले आरक्षित वर्गों में क्रीमी लेयर को चिंहित करने की मांगें भी उठी थीं जिस पर सरकारें खामोश ही हैं, उल्टा राज्यों में तो सुप्रीम कोर्ट की 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण न देने की सीलिंग से आगे जाकर भी आरक्षण की व्यवस्था है। जैसे तमिलनाडु, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात आदि राज्यों में। लेकिन आरक्षण को अपने मौकों पर डाका डालने वाली व्यवस्था बताना एक तरह से इस पूरे मामले का सामान्यीकरण या सरलीकरण करने जैसा ही है।
 
 
सबसे पहले तो वो संख्या देखिए जो जेईई मेन परीक्षा में बैठने वाले कुल छात्रों की है। फिर पास होने वाले छात्रों की संख्या देखिए। ये सूची ही पहला संकेत देती है कि सामान्य वर्ग के छात्रों की संख्या आरक्षित श्रेणियों से कहीं अधिक है। उनके अवसरों में कटौती की बात आंकड़ों से उलझाया गया भ्रम मात्र है। समझने की बात ये है कि अवसर सबके लिए समान रूप से घट रहे हैं। सामान्य वर्ग के लिए अगर दाखिले के अवसर कम हो रहे हैं तो दलितों के लिए तो वे और तेजी से सिकुड़ रहे हैं। उन्हें इस कथित आरक्षण का कोई व्यापक लाभ नहीं मिल रहा है क्योंकि दलितों की एक बड़ी आबादी देश की आजादी के 70-71 साल बाद भी समाज और वर्चस्व के निर्मित अंधेरों में जीने को अभिशप्त हैं। उन्हें आरक्षण का नहीं पता, न लाभ का, न अपने मानवाधिकारों का।
 
 
ज्यादा दूर मत जाइये एसटीएसटी एक्ट को ही देखिए जिस पर हाल में विवाद हुआ था। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि दलितों पर अत्याचार के खिलाफ कड़ा कानून होने के बावजूद उनके खिलाफ अपराधों की दर में कोई कमी नहीं आई है। इसे आप पलटकर कह सकते हैं कि समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के कथित अभियान के तहत आरक्षण की जिस व्यवस्था का दम भरा जाता है, उसने भी उनका बेड़ा पार नही लगाया है। वे हाशिये पर ही हैं। दाखिलों से लेकर नौकरियों में आरक्षण के तहत नौकरशाही से लेकर तमाम सार्वजनिक और निजी उपक्रमों में निचली दलित जातियों और अल्पसंख्यकों की कुल आबादी के सापेक्ष नगण्य नुमायंदगी से हालात का अंदाजा लग जाता है। 
 
 
कहा जा सकता है कि जब आरक्षण से कोई फायदा नहीं हो रहा है तो हटा क्यों नहीं देते। तो इसके जवाब में हम एक बार फिर एससी एसटी कानून वाली मिसाल पर लौटेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में इस कानून को लेकर ऐसा आदेश दिया जो इसे लचीला करने जैसा था और जिसे लेकर दलित आक्रोशित हैं। दमन और शोषण के सदियों से कायम अंतहीन सिलसिले में अगर उन्हें अपनी लड़ाई के कमतर ही सही कुछ औजार हासिल हैं तो एक विवेकपूर्ण और जागरूक नागरिकता क्या ये चाहेगी कि उनसे ये औजार भी छिन जाए?  वे समाज में अपनी उपेक्षित जगहों पर लौट जाएं?
अगर आरक्षण की एक संविधान प्रदत व्यवस्था दबे कुचले सह नागरिकों को पीढ़ियों की तबाही से निकालकर किसी आने वाले समय में बराबरी का नागरिक और सामाजिक सम्मान मुहैया कराने की क्षमता रखती है तो उसे क्यों हटाया जाए। क्यों न उसे और मजबूत व्यापक और पारदर्शी बनाया जाए, क्यों न उसे इस स्तर पर प्रभावकारी बनाया जाए कि उससे जुड़ी भ्रांतियां और उसकी अंतर्निहित कमजोरियां दूर हों और वो सामाजिक समरसता को संबोधित हो न कि विषमता और कटुता और राजनीतिक स्वार्थ का टूल बनकर रह जाए। 
 
 
हम वापस शैक्षणिक हालात पर लौटते हैं। एससी एसटी आरक्षण के जरिए अपमानित करने, ग्लानिबोध में डालने और चिढ़ाने की कोशिश की जा रही है। ये उसी तरह से है कि हम किसी की गरीबी, विवशता और तंगहाली का मजाक उड़ाएं। मध्य प्रदेश में पिछले दिनों देखा गया कि पुलिस भर्ती में अभ्यर्थियों के सीने पर एसटी एससी की मुहर ही लगा दी गई कि कागज न देखने पड़ें, लड़के को देखकर ही पता चल जाए कि ये आरक्षित वर्ग का है। क्या ये खिल्ली उड़ाने जैसा नहीं है। एक शर्मनाक स्तर की संवेदनहीनता।
 
 
ये कोई छिपी बात नहीं है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रतिभाशाली हो या कमजोर हो- दलित छात्रों को किस किस्म की प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है। क्या ये उनका कुसूर है कि वे दलित जाति में पैदा हुए। क्या दलित होना पाप है। अक्सर ये सुना जाता है कि ठीक है वे गरीब हैं और पीढ़ियों से सताए हुए हैं और उन्हें ऊपर उठाना जरूरी है तो उनकी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दिया जाए, उन्हें बेहतर माहौल दिया जाए उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाया जाए। ठीक है- आदर्श स्थिति तो यही है लेकिन ऐसा आप किससे चाह रहे हैं। सरकारों से, सत्ता राजनीति से, अधिकारियों और प्रशासनों और व्यवस्थापकों से या सवर्णों से, वर्चस्ववादियों, जातिवादियों और बहुसंख्यकवादियों से?
 
 
क्या हम जाति का अपना खोल उतारकर किसी दलित को गले लगाने को तैयार हैं, क्या हम उन्हें अपने घर की देहरी से अंदर आने देने को तैयार हैं, क्या हम उनके हाथ का पानी पीने को तैयार हैं। इसके बाद ही तो उनकी शिक्षा की बेहतरी के सवालों को हल करने की बात आएगी, उनका स्तर बढ़ाने की, उनकी सामाजिक हालत में सुधार करने की। हमारी सवर्ण मानसिकता अपनी बेड़ियां तोड़कर जातिविहीनता की ओर उन्मुख होती है तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। तो शिक्षा और अधिकार पर सवाल उठाने से पहले गरिमा और आत्मसम्मान और आर्थिक खुशहाली की हिफाजत के सवाल आते हैं।
 
 
आरक्षण के नाम पर राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सेकते हैं- आरक्षितों और अनारक्षितों के बीच टकराव बना रहता है- लेकिन बुनियादी मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। नवउदारवादी और कॉरपोरेट केंद्रित सत्ता राजनीति यही तो चाहती है- सरकारें एक एक कर अपने बुनियादी दायित्वों से पीछा छुड़ा रही हैं। स्वास्थ्य हो या शिक्षा। सरकारी स्कूलों की दिनोंदिन गिरती हालत से लेकर उच्च शैक्षणिक संस्थानों की हालत की रिपोर्टे हमारे सामने हैं।
 
 
हमारे संस्थान दुनिया में कहीं भी अव्वल नहीं। क्या इसलिए कि वे आरक्षित वर्गों के छात्रों और पेशेवरों से भरे हुए हैं, अगर ऐसा है तो एक एक कर आंकड़े देखिए कि कहां कितने दलित या ओबीसी पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं। दरअसल हमारे संस्थानों का ढांचा जर्जर कर दिया गया है, उनमें मेहनत और कल्पनादृष्टि का अभाव है। वे राजनीति के शिकार हो चुके हैं और उनके पास लगातार संसाधनों की कमी होती जा रही है। यही हाल नीचे के स्तरों पर भी है। स्कूली शिक्षा से लेकर कॉलेजों और कोचिंग संस्थानों तक अध्यापन में शैक्षणिक विकास की रणनीति या तो दम तोड़ चुकी है या वो निजी क्षेत्र की मुनाफाखोर बन चुकी है।
 
 
तो दलित वर्गों के शैक्षणिक आर्थिक कल्याण का एक सिरा, इन संस्थानों के कल्याण से भी जुड़ा है। रोजगार के अवसर सार्वजनिक सेवाओं में कम हो रहे हैं, निजी सेक्टर में बढ़ रहे हैं। जो जितना संसाधनयुक्त और समृद्ध होगा- शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी सेवाएं उसे उतनी सहजता और सफलता से उपलब्ध होंगी। सरकारें कॉरपोरेटी मिजाज में खुद को ढाल चुकी हैं या ढाल रही हैं- आईआईटी जैसे संस्थानों की कार्यप्रणाली, शैक्षणिक प्रोग्रामों और नीति नियमों में भी हम आने वाले वक्तों में उलटफेर होता देखें तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
 
 
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के कॉरपोरेटीकरण में भला कितने लोग या कितने वर्ग होंगे जो एडजस्ट कर पाएंगे। वंचितों का दायरा अब निचली जातियों तक ही सीमित नहीं रह गया है- ये हमें समझना ही होगा कि नई अर्थ राजनीति ने अपने लिए नई मुख्यधारा का निर्माण कर लिया है। तमाम सुख सुविधाओं के अकेले आरक्षित वही होंगे। इसलिए कई मोर्चे पर एक साथ चुनौतियां हैं- पिछड़े तबकों की जागरूकता, उनका शैक्षणिक आर्थिक विकास और नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ मानवाधिकारों की साझा लड़ाई।
 
रिपोर्ट : शिवप्रसाद जोशी 

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