भारत दुनिया भर में सबसे तेज आर्थिक विकास वाले देशों में शामिल है, इसलिए दुनिया की वहां निवेश में दिलचस्पी भी है। लेकिन एक चक्रव्यूह है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तोड़ना होगा।
किसी भी बिजनेस स्टूडेंट से पूछें, वह विदेशी निवेश के लिए जिन शर्तों की गिनती करेगा, वह सब भारत में मौजूद है, लेकिन फिर भी नतीजा वह नहीं निकल रहा है, जिसकी लोग अपेक्षा कर रहे हैं, निवेश करने वाले भी और निवेश से फायदा उठाने वाले भी। विदेशी निवेश के तीन पक्ष हैं। एक, निवेश करने वाली कंपनी, जिसे नया बाजार मिलता है, नये किफायती मजदूर मिलते हैं, टैक्स का फायदा मिलता है और मुनाफा बढ़ता है। दूसरा है वह इलाका जहां निवेश हो रहा है। वहां के कामगारों को काम मिलता है। नये रोजगार पैदा होते हैं, जीवनस्तर बेहतर होता है। तीसरा पक्ष निवेश में भाग ले रहे देश हैं। एक के यहां नया रोजगार पैदा होने से समृद्धि आती है तो दूसरे के यहां आप्रवासियों का दबाव घटता है, विदेश व्यापार की वजह से नये रोजगार पैदा होते हैं और समृद्धि बनाये रखने में मदद मिलती है।
लेकिन विदेशी निवेश इस बीच उद्यमों के लिये विदेश नीति की तरह हो गया है। इसके लिए उद्यमों में अपने विभाग हैं या वे बाहरी कंसल्टेंटों की मदद लेते हैं। और फैसला लेने में मुनाफे के अलावा कुछ दूसरी बातें भी अहम हो जाती हैं। योजना को मूर्तरूप देने की गारंटी और सुरक्षा का माहौल। भारत में निवेश के मामले में अकसर लॉजिस्टिक की समस्याओं, शिथिल नौकरशाही और कानूनी सुरक्षा के अभाव की भी बात की जाती है। भारत सरकार ने पिछले सालों में कारोबार को प्रोत्साहन देने और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के ढेर सारे कदम उठाये हैं लेकिन इसी अवधि में सड़कों पर उपद्रव बढ़ते गये हैं। चाहे बलात्कार के मामले हों, लड़कियों को तंग करने के या सांप्रादायिक। अब सोचिये यदि खुद की और परिवार की जिंदगी का डर हो तो कौन उस देश में काम करने जाना चाहेगा। सड़कों की हिंसा का जर्मनी का अपना अनुभव है जहां पूर्वी हिस्से में उग्र दक्षिणपंथी हिंसा का असर उस इलाके की छवि और वहां होने वाले निवेश के साथ साथ रोजगार पर भी हुआ है।
निवेश करने का मतलब दो इलाकों के लोगों और दो संस्कृतियों के बीच गहन आदान प्रदान भी होता है। एक दूसरे को समझने की जरूरत भी होती है, एक दूसरे के अनुरूप ढालने की जरूरत होती है। एक बड़ी बाधा रोजगार के अनुकूल शिक्षा न होने से जुड़ी हुई है। इसमें दोनों देश सहयोग करें तो हालात बेहतर हो सकते हैं। भारत से ज्यादा छात्र जर्मनी आ रहे हैं लेकिन जर्मनी से भारत जाने वाले छात्रों की संख्या उस अनुपात में नहीं बढ़ी है। भारत से जुड़े कामकाज में लोगों की दिलचस्पी कम हुई है। कई बार तो लोग भारत जाकर काम करने को तैयार नहीं होते। इस स्थिति को बदलना होगा।
जर्मनी की कामयाबी के पीछे राजनीतिक सहिष्णुता भी है। मौलिक प्रश्नों पर राजनीतिक दलों, उद्यमियों और मजदूर संगठनों के बीच सहमति और विवादास्पद मुद्दों पर समझौते की तैयारी। यह समाज के सामने आने वाली चुनौतियों से निबटने का रामबाण नुस्खा है। लेकिन भारत अभी इसके लिए तैयार नहीं दिखता। यह वह चक्रव्यूह है जिसमें भारत बार बार उलझ रहा है और पिछड़ रहा है। इस चक्रव्यूह को तोड़ने की जिम्मेदारी अब मोदी की है। जर्मनी से इस मामले में कुछ सीखा जा सकता है।