बदहाल जेलों में पिसते मुस्लिम और दलित कैदी

DW
सोमवार, 7 सितम्बर 2020 (12:32 IST)
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 
भारत की जेलों में बंद लोगों में मुसलमानों, आदिवासियों और दलितों की तादाद उनकी आबादी के अनुपात में कहीं ज्यादा है। सरकार के ये नए आंकड़े न्याय प्रणाली की समस्याएं ही नहीं, गहरी सामाजिक विसंगतियों को भी उजागर करते हैं।
 
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने जेलों पर अपना ताजा आंकड़ा पिछले दिनों जारी किया। इसके मुताबिक जेलों में बड़ी संख्या में मुस्लिम, आदिवासी और दलित वर्ग के लोग बंद रखे गए हैं। मीडिया में प्रकाशित 2019 के आंकड़ों के मुताबिक विचाराधीन कैदियों में सबसे अधिक संख्या मुस्लिमों की है। देशभर की जेलों में दोषसिद्ध कैदियों में सबसे ज्यादा संख्या दलितों की है, 21.7 प्रतिशत। अनुसूचित जाति के विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत है 21 है जबकि 2011 की जनगणना में उनका हिस्सा 16.6 प्रतिशत का है।
 
जनजातियों (आदिवासियों) में भी यही स्थिति हैं। दोषी करार दिए गए कैदियों में वे 13.6 प्रतिशत हैं और विचाराधीन कैदियों में साढ़े 10 प्रतिशत जबकि देश की कुल आबादी में वे लगभग साढ़े 8 प्रतिशत हैं। मुसलमानों की संख्या देश की आबादी में 14.2 प्रतिशत है, लेकिन जेल के भीतर दोषसिद्ध कैदियों में साढ़े 16 प्रतिशत से कुछ अधिक उनकी संख्या है और विचाराधीन कैदियों में 18.7 प्रतिशत।
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न्याय प्रणाली के विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे भारत की आपराधिक न्याय पद्धति की बहुत सी कमजोरियों का पता चलता है और ये भी कि गरीब व्यक्ति के लिए इंसाफ की लड़ाई कितनी कठिन है। जिन्हें अच्छे और महंगे वकील मिल जाते हैं उनकी जमानत आसानी से हो जाती है। बहुत मामूली से अपराधों के लिए भी गरीब लोग जेल में सड़ने को विवश होते हैं।
 
विचाराधीन कैदियों की बड़ी तादाद
 
2015 के मुकाबले विचाराधीन कैदियों वाली श्रेणी में मुस्लिम अनुपात 2019 में गिरा है लेकिन दोषारोपित कैदियों के मामले में बढ़ा है, 15.8 प्रतिशत से 16.6 प्रतिशत। एससी-एसटी कैदियों की संख्या या अनुपात में भी बड़ी गिरावट नहीं है। सबसे ज्यादा दलित विचाराधीन कैदी उत्तरप्रदेश की जेलों में बंद है, करीब 18 हजार। इसके बाद बिहार और पंजाब का नंबर आता है।
 
जनजातीय और आदिवासी समुदाय के सबसे ज्यादा विचाराधीन कैदी मध्यप्रदेश में हैं, करीब 6 हजार। इसके बाद यूपी और छत्तीसगढ़ की जेलें आती हैं। एक बार फिर यूपी की जेलों में ही सबसे ज्यादा मुस्लिम विचाराधीन कैदी पाए गए और उसके बाद बिहार और मध्यप्रदेश का नंबर है। कन्विक्टेड मुस्लिम कैदियों की सबसे अधिक संख्या (6098) यूपी में है, इसके बाद पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र की जेलों का नंबर आता है। सबसे ज्यादा कन्विक्टेड दलित कैदी (6143) भी यूपी में हैं।
 
भारतीय जेलों की स्थिति ये है कि कुल कैदियों में से साढ़े 68 प्रतिशत विचाराधीन हैं यानी उनके मामले लंबित हैं और अदालतों और कचहरियों और जेलों के बीच फाइलों में कहीं अटके पड़े हैं। सबसे ज्यादा ऑक्यूपेंसी दर दिल्ली की जेलों में हैं, जहां 100 लोगों की जगह में 175 लोग बंद हैं। इसके बाद यूपी और उत्तराखंड का नंबर आता है।
 
महिला जेलों की स्थिति भी कुछ कम चिंताजनक नहीं। भीड़ भले ही अपेक्षाकृत कम है लेकिन 3 राज्यों- पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और बिहार में महिला कैदियों का ऑक्यूपेंसी रेट 100 प्रतिशत से अधिक का है। आजादी के 7 दशक बाद भी जेलों और कैदियों की दुर्दशा पर किसी ठोस और निर्णायक कार्रवाई का अभाव बना हुआ है।
 
कानूनी सहायता देने की जरूरत
 
जेलों पर दबाव कम करने और कुछ चिन्हित वर्गों के लाचार कैदियों को उनमें ठूंसने की प्रवृत्ति से निपटने का सबसे पहला रास्ता तो यही है कि गरीब और वंचित तबकों के कैदियों को फौरन कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाए। उन्हें समय पर वकील मिल जाए, जो डेडलाइन के साथ उनके मामले की पैरवी करे, उन्हें पर्याप्त फंडिंग की जरूरत भी है।
 
अदालतों में ऐसे मामलों के लिए विशेष व्यवस्था किए जाने की जरूरत है ताकि उनकी जमानत में अनावश्यक विलंब न हो। जजों और अदालती स्टाफ की उपलब्धता भी जरूरी है। कानूनी शिक्षा से जुड़े संस्थानों व विश्वविद्यालयों को भी लंबित मामलों को निपटाने से लेकर कैदियों के बीच अपने कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता का अभियान चलाने में जोड़ा जा सकता है।
 
जेल प्रशासन और पुलिस प्रशासन में भी सुधारों की आवश्यकता है। जेलकर्मियों और पुलिस को कैदियों के साथ मानवीय सुलूक की ट्रेनिंग ही नहीं नैतिक सबक भी याद दिलाते रहने की जरूरत है। जेल का अर्थ ये नहीं है कि वहां कैदी को उसके बुनियादी अधिकारों से महरूम रखा जाए। स्वास्थ्य, हाइजीन, पोषण आदि का ख्याल रखे जाने की जरूरत है।
 
कोरोना काल में कई राज्यों की जेलें भी महामारी के हॉटस्पॉट बनी हैं। जेलों में भ्रष्टाचार, गैरकानूनी गतिविधियां, कमजोर और गरीब कैदियों का शोषण, भेदभाव और उनसे सांठगांठ और दबंग अपराधियों के लिए सुरक्षित ठिकाने की तरह इस्तेमाल किए जाने के आरोप भी लगते रहे हैं।
 
जेल सुधारों की सिफारिश
 
पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट की चयनित उच्चस्तरीय जेल सुधार कमेटी ने 300 पेज की रिपोर्ट में विस्तार से तमाम मुद्दों और जरूरतों पर ध्यान खींचा है। उसकी सिफारिशें कितनी सूक्ष्म और व्यापक हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनमें आधुनिक साफ-सुथरी रसोई, व्यवस्थित कैंटीन, जरूरी खाद्य सामानों की उपलब्धता से लेकर जेल में अपना पहला हफ्ता काटते हुए दिन में एक बार कैदियों को मुफ्त फोन कॉल की अनुमति और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए मुकदमों की सुनवाई करने जैसी महत्वपूर्ण सिफारिशें तक शामिल हैं। यह रिपोर्ट अदालत को सौंपी जा चुकी है और खबरों के मुताबिक एमीकस क्यूरी को अध्ययन के लिए भेजी गई है।
 
सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर माना है कि जेलों पर बोझ है, संख्या से अधिक कैदी जेलों में ठुंसे हुए हैं और एक तरह से कैदी ही नहीं, उसके गार्ड का भी मानवाधिकार हनन होता है। कमेटी के मुताबिक हर 30 कैदियों पर कम से कम 1 वकील उपलब्ध होना ही चाहिए। तेजी से मामलों की सुनवाई हो तो कैदियों को भी राहत मिलेगी और जेलों पर भी अनावश्यक दबाव नहीं पड़ेगा, साथ ही जेलों में खाली पद भी तत्काल प्रभाव से भरे जाने चाहिए।
 
माना जाता है कि जेल विभाग में सालाना तौर पर 30 से 40 प्रतिशत पद खाली रह जाते हैं। जेलों की चरमराई व्यवस्था के बीच जेलों में कैदियों की पिटाई और उनकी मौतों के मामले भी मानवाधिकार अधिकारों के लिहाज से बड़े संकट हैं। एक बहुत व्यापक, नैतिक और पारदर्शी अभियान चलाए बिना और जवाबदेही तय किए बिना तो जेलों को आदर्श सुधारगृह में तब्दील कर पाना मुमकिन नहीं।

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