31 अक्टूबर से ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र की जलवायु शिखर सम्मेलन हो रहा है। इसमें विश्व नेताओं पर वैश्विक तापमान को स्थिर करने और मौसम की बढ़ती अतिशयताओं के लिहाज से तैयारी के लिए आर्थिक साझेदारी का दबाव बनाया जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में होने वाली बैठक पिछले साल कोरोना महामारी की वजह से नहीं हो पाई थी। वैसे इस सालाना बैठक में तमाम देशों के राजनयिक, जलवायु में आ रहे खतरनाक बदलावों को कम करने के बारे में समझौतों पर चर्चा करते हैं। 2015 में पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का गैर-बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन समझौते पर हस्तक्षर के बावजूद पूरी दुनिया में पेरिस समझौते के लक्ष्यों के विपरीत, पूरी रफ्तार से फॉसिल ईंधन फूंके जा रहे हैं और पेड़ों को काटा जा रहा है।
अब जबकि संपन्न देशों और गरीब देशों में जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम समान रूप से परिलक्षित हैं तो वे पेरिस के वायदों के बाद पहली बार उस सम्मेलन के लिए लिए जमा रहे हैं जो जानकारों के मुताबिक सबसे अधिक मानीखेज हो सकता है। जलवायु परिवर्तन ने घातक मौसमी अतिशयताओं और बड़े पैमाने पर जनप्रतिरोधों के बीच राजनीतिक एजेंडे को और तीव्र कर दिया है। प्रदूषण करने वाले कई देशों के नेताओं ने इस शताब्दी के मध्य तक अपनी अर्थव्यवस्थाओं को कार्बनमुक्त कर देने का वादा किया है।
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्लू) में वरिष्ठ विश्लेषक शिखा भसीन कहती हैं, "पिछले दो दशकों के दरम्यान जलवायु की चुनौतियों का सामना करते हुए आज हम जलवायु आपातकाल में रहने को विवश हो चुके हैं।” उनके मुताबिक "इसीलिए आगामी कॉप26 यानी जलवायु सम्मेलन बहुत अहम है।”
एजेंडा क्या है?
पेरिस समझौते के तहत विश्व नेताओं को ये चुनना था कि वे अपने अपने देशों में कितनी तेजी से उत्सर्जनों में कटौती करेंगे। वे हर पांच साल में ऐसा करने के लिए अपनी कार्ययोजना को अपडेट करने पर भी राजी हुए थे।
लेकिन ग्लासगो में होने वाले जलवायु सम्मेलन से ठीक पहले- चीन, भारत और सउदी अरब जैसे बड़े उत्सर्जक देश नयी योजनाओं का खाका जमा कराने में विफल रहे। अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं का संयोजन करने वाली संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संस्था की सितंबर की रिपोर्ट के मुताबिक जो योजनाएं अपडेट होकर आई हैं वे दुनिया में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों का करीब आधा ही हैं।
इटली और ब्रिटेन मिलकर सम्मेलन की मेजबानी कर रहे हैं। ब्रिटेन ने नई योजनाओं को जमा कराने के लिए देशों पर दबाव डाला है और ठोस समझौतों के लिए वो जोर भी लगा रहा है जिससे लक्ष्यों तक पहुंचने में मदद मिल सके। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने "कोयले, कार, नकदी और पेड़ों” के बारे में साहसी प्रतिबद्धता दिखाने का आह्वान भी किया है।
ब्रिटेन एक ऐसी संधि के लिए भी जोर लगा रहा है जो "कोयले को इतिहास के हवाले” कर देगी। ईंधन चालित कारों की बिक्री बंद करने के लिए उसने 2040 की डेडलाइन का प्रस्ताव भी रखा है। वह निर्वनीकरण यानी जंगलों की कटान रोकने के लिए भी और पैसा झोंकने को तैयार है।
कीमत कौन चुकाएगा?
एजेंडे पर सबसे ऊपर सवाल ये होगा कि पर्यावरण को प्रदूषित करने के सबसे अधिक जिम्मेदार अमीर देश कितना पैसा गरीब देशों को मुहैया कराएंगे जिन पर जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार पड़ी है।
2009 में सबसे संपन्न देश, 2020 तक जलवायु वित्त के नाम पर हर साल 100 अरब डॉलर देने पर राजी हो गए थे। लेकिन ओईसीडी के ताजा अनुमानों के मुताबिक, 2019 में ये देश उस लक्ष्य से पिछड़ गए और सिर्फ 79।6 अरब डॉलर ही जमा करा पाए। 20 अरब डॉलर जमा ही नहीं हो पाया। उन दस वर्षों में धरती का औसत तापमान इतना ज्यादा बढ़ गया कि पिछला दशक सबसे गरम दशक के रूप में रिकॉर्ड में दर्ज हुआ।
विश्लेषकों का कहना है कि भुगतान ना कर पाने की विफलता मायने रखती है। दो वजह हैं। पहली तो ये कि भले ही जलवायु परिवर्तन की लागत या नवीनीकृत ऊर्जा में जाने की लागत को देखते हुए ये रकम नाकाफी हो लेकिन पैसे की जरूरत तो है।
लेकिन जलवायु पर यूरोप के एक थिंकटैंक ई3जी में विशेषज्ञ जेनिफर टोलमान के मुताबिक ये कूटनीतिक मुद्दा भी है। "अंतरराष्ट्रीय वार्ताएं भरोसे की बुनियाद पर टिकी होती हैं। 100 अरब डॉलर का पूरा भुगतान न हो पाने का मतबल ये है कि वो बुनियाद एक हद तक दरक रही है।”
और कौनसी चीजें मायने रखती हैं?
जलवायु परिवर्तन के लिहाज से सबसे असहाय और संवेदनशील देशों ने उसके प्रभावों के लिहाज से अनुकूलित होने या उसके लिए तैयार रहने के लिए और अधिक ध्यान देने की अपील की है। इसमें फंडिंग भी शामिल है।
इसके अलावा, अमल में लाने से पहले पेरिस समझौते की तकनीकी बारीकियों को भी ठीक से समझने की जरूरत है। इसमें वैश्विक कार्बन बाजार के इर्दगिर्द बनाए गए नियम भी शामिल हैं- इस बाजार के जरिए देश सीमा पार उत्सर्जनों का व्यापार करते हैं और प्रदूषण घटाने वाली परियोजनाओं में निवेश कर उनकी भरपाई करते हैं। इस कार्बन बाजार में ये भी शामिल हैं कि देशों को अपने उत्सर्जनों में कटौती की औपचारिक सूचना भी देते रहनी चाहिए।
31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक दो सप्ताह की अवधि में चलने वाली मुख्य वार्ताओं में विश्व नेता, वैज्ञानिक, कारोबारी, और सिविल सोसायटी समूह एक-दूसरे के नजदीक आएंगे। गरीब देशों के प्रतिनिधियों ने आगाह किया है कि यात्रा प्रतिबंधों, टीकों की कमी और ठहराव के खर्चों के चलते उनका इस बैठक में आ पाना मुश्किल होगा। ऐसा हुआ तो बड़े प्रदूषकों यानी अमीर देशों को अपने किए के लिए जिम्मेदार ठहराने में और कठिनाई आएगी।
स्पेन की राजधानी मैड्रिड में 2019 में हुई पिछली जलवायु बैठक में वार्ताएं दो दिन और खिंच गई थीं। हताश वार्ताकार बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर काबू पाने के लिए जूझते रहे और कार्बन बाजार पर कोई सहमति ही नहीं बना पाए।
देशों को जिम्मेदार ठहराने के मामले में अब तक की जलवायु बैठकें नाकाम ही रही हैं। लेकिन सीईईडब्लू की विश्लेषक शिखा भसीन कहती हैं कि कॉप26 के पास एक मौका है कुछ भरोसा बना पाने का। वह कहती हैं, "हमारे पास यही सब है तो हमें इसे ही काम करने लायक बनाने का तरीका ढूंढना होगा।” रिपोर्ट अजीत निरंजन