जी 7 सम्मेलन में भारत को बुलाए जाने के मायने?

DW
शनिवार, 6 जून 2020 (17:57 IST)
अमेरिका ने जी-7 शिखर सम्मेलन के लिए भारत को भी आमंत्रित किया है। यह आमंत्रण सम्मान के साथ एक दायित्व भी है। दुनिया को नेतृत्व देने के लिए नैतिक क्षमता के प्रदर्शन का दायित्व ताकि लोग उस पर न्याय के लिए भरोसा कर सकें। महत्वपूर्ण देशों के सम्मेलनों में बुलाया जाना हमेशा एक तरह का सम्मान होता है। लेकिन सम्मान के अलावा बैठकों में बुलाए जाने की वजह भी होती है।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस साल जी-7 की बैठक के लिए बुलाया है। इसकी वजह ट्रंप-मोदी दोस्ती से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का बढ़ता महत्व है। ये महत्व उसका आकार, उसकी आबादी और बढ़ती क्षमता मिलकर बनाते हैं। खासकर कोरोना महामारी के युग में वायरस को रोकने में भारत की दोहरी जिम्मेदारी है। एक तो अपने लोगों को बचाकर दुनिया को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी और दूसरे इलाज के उपायों से अन्य देशों की मदद। भारत दवाओं के विकास से लेकर उनके परीक्षण तक में योगदान दे सकता है और दे रहा है। भारत के अनुभव कोरोना जैसी महामारी का सामना करने के लिए जरूरी हैं। इसलिए जी-7 जैसे सम्मेलन में उसे नजरअंदाज करना किसी के लिए भी मुश्किल होता।

भारत इस बीच विश्व की महत्वपूर्ण आर्थिक सत्ता है। जीडीपी के आधार पर दुनिया की 5वीं आर्थिक शक्ति, परचेजिंग पॉवर पैरिटी के आधार पर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति, भले ही प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से उसका स्थान विश्व में 139वां ही क्यों न हो। जी-7 के देशों के पास दुनिया की 58 फीसदी संपत्ति है और ग्लोबल जीडीपी में उनका हिस्सा 46 प्रतिशत है।

चीन के साथ इस समय अमेरिका की लगी है तो स्वाभाविक है कि भारत, ऑस्ट्रेलिया, रूस और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को जी-7 की बैठकों में बुलाया जाए और बैठक के मुद्दों पर उनकी सलाह ली जाए। लेकिन जिस तरह से ये निमंत्रण गया है, इरादों पर संदेह होता है। राष्ट्रपति ट्रंप कोरोना के कारण मार्च में स्थगित सम्मेलन पहले जून के अंत में कराना चाहते थे। लेकिन जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के मना करने के कारण उनकी योजना खटाई में पड़ गई। फिर उन्होंने सितंबर में सम्मेलन कराने की घोषणा की और साथ में आमंत्रित किए जाने वाले बाहरी देशों के नामों की भी घोषणा कर दी। इनमें भारत भी था।

बनता-बिगड़ता सहयोग
जी-7 के बाहर के देशों को वार्षिक शिखर सम्मेलन में शामिल करने की कोशिश पहले भी हो चुकी है। 1997 में रूस के शामिल होने के साथ जी-7 जी-8 बन गया था। दुनिया में राजनीतिक भाईचारे का माहौल था, सुरक्षा परिषद में सुधार की बहस चल रही थी। सन् 2000 में दक्षिण अफ्रीका को बुलाने के साथ जी-8 जमा 5 बनने की शुरुआत हुई। 2003 में शिखर सम्मेलन में भारत, चीन, ब्राजील और मेक्सिको को भी बुलाया गया।

चीन पहले से ही सुरक्षा परिषद में था। दक्षिण अफ्रीका, भारत, ब्राजील और मेक्सिको अपने-अपने महाद्वीपों से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनने के प्रबल दावेदार थे। उन्हें जोड़ने की कोशिश शुरू हुई और हर साल एजेंडे के हिसाब से छोटे विकासशील देशों को भी बुलाया गया। लेकिन ये परीक्षण 2012 तक ही चला। उभरते देशों के आने के साथ जी-7 के फैसले उतने आसान नहीं रहे, आपसी हितों की खींचतान शुरू हो गई। रूस को जी-8 से बाहर निकाले जाने के साथ ही इन परीक्षणों का भी अंत हो गया।

जी-7 एक तरह से मूल्यों का संगठन रहा है। लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूल्य। इसमें शामिल सारे देश अमेरिका के सहयोगी हैं। एक तरह से देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध में एक-दूसरे से लड़ने वाले देश, लेकिन युद्ध के बाद एक-दूसरे से सहयोग करने वाले देश। सबके सब लोकतांत्रिक देश। एक मंच पर साथ आने वाले इन देशों के आर्थिक हित एक जैसे तो थे ही, लोकतंत्र, मानवाधिकार और बोलने की आजादी जैसे मुद्दों पर भी एक जैसी राय थी।

जी-8 का विस्तार इस उम्मीद पर आधारित था कि रूस लोकतांत्रिक हो रहा है। लेकिन क्रीमिया को हड़पे जाने के साथ ये उम्मीद पूरी तरह टूट गई। उसके पहले ही यह साफ हो गया था कि सम्मेलन में साथ लाए गए 5 देश वैश्विक जिम्मेदारी निभाने के बदले अपने-अपने हितों पर ज्यादा ध्यान दे रहे थे। 1 दशक की एप्रेंटिसशिप में वे वैश्विक भूमिका के लिए तैयार नहीं हो पाए और इस परीक्षण के विफल होने के साथ सुरक्षा परिषद के सुधार की सुगबुगाहट भी खत्म हो गई। इस बीच भारत के अलावा किसी भी विकासशील देश को सुरक्षा परिषद की सदस्यता का गंभीर उम्मीदवार नहीं माना जा रहा।

भारत की जिम्मेदारियां
सुरक्षा परिषद को विश्व सरकार माना जाता है तो जी-7 दुनिया को एक तरह का आर्थिक नेतृत्व देता है। इस जमात का सदस्य बनने का मतलब है कि दुनिया की मुश्किलों पर राय बनाई जाए, उसके समाधान के उपाय खोजे जाएं और उनमें योगदान दिया जाए। ये करने के लिए घरेलू आर्थिक और राजनीतिक ताकत भी जरूरी है। ये ताकत भारत जैसे देश राजनीतिक और आर्थिक समरसता के जरिए पा सकते हैं।

प्रति व्यक्ति आय बढ़ाकर भारत आर्थिक तौर पर तो ताकतवर हो जाएगा लेकिन नैतिक रूप से ताकतवर बनने के लिए देश में सामाजिक विषमता को दूर करना जरूरी है। राजनीतिक ध्रुवीकरण को खत्म करने और मीडिया को ताकतवर बनाने की भी जरूरत है। औद्योगिक देशों के अनुभवों का लाभ उठाकर और ट्रेड यूनियनों को मजबूत कर मजदूरों का शोषण रोका जा सकता है और औद्योगीकरण से पैदा हो रही पर्यावरण संबंधी समस्याओं को कम किया जा सकता है।

भारत ने पिछले सालों में विकास का एक लंबा रास्ता तय किया है। पर्यावरण की रक्षा के क्षेत्र में वह वैश्विक स्तर पर नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है। उसे एक और मौका मिला है जी-7 के साथ आने का। इस बार चीन और रूस इस जमात में नहीं हैं। चीन के अलावा कुछ दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी भारत का मनमुटाव है। उन विवादों में उलझे रहने के बदले भारत के पास विश्व मंच पर चमकने का अभूतपूर्व मौका है। लेकिन उसे इसका सक्रिय तौर पर इस्तेमाल करना होगा। शुरुआत घर से करनी होगी।
रिपोर्ट : महेश झा
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