-राहुल मिश्र
भारत लंबे समय से रक्षा सौदों का इस्तेमाल कूटनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी कर रहा है। एक ओर पश्चिमी देशों के साथ संबंध बढ़ाने के लिए अरबों की खरीद तो छोटे देशों का समर्थन पाने के लिए उन्हें हथियारों की पेशकश।
कुछ दिनों पहले यह खबर सुर्खियों में आई कि भारतीय रक्षा एजेंसियां खासतौर पर डीआरडीओ (डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन) देश को हथियारों के निर्यातक देशों की श्रेणी में ऊपर लाने की कोशिश में हैं। और इसी के तहत यह घोषणा भी हुई कि भारत जल्द ही दुनिया के कई देशों को ब्राह्मोस मिसाइल निर्यात करेगा। इस लिस्ट में 3 नाम- वियतनाम, फिलिपींस, और इंडोनेशिया दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के हैं। अन्य देशों में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका के नाम प्रमुख हैं। जब भी यह कोशिश सफल होती है, इसे भारत की एक्ट ईस्ट नीति के लिए बड़ी सफलता माना जाएगा।
सूत्रों की मानें तो रूस के साथ मिलकर बनाई ब्रह्मोस सुपरसोनिक मिसाइलों को फिलिपींस को बेचने की सहमति रूस ने दे दी है और भारतीय कैबिनेट की सुरक्षा संबंधी कमेटी भी इस पर अपनी मुहर लगाने की प्रक्रिया में है। ध्वनि की रफ्तार से 3 गुना तेज, माक 3 की गति से चलने वाली और 290 किलोमीटर की रेंज वाली ब्रह्मोस मिसाइलें भारत-रूस सैन्य सहयोग के अच्छे दिनों का नमूना है। दोनों देशों के बीच इसे मिलकर बनाने पर 1998 में सहमति हुई थी। ब्रह्मपुत्र और मस्क्वा नदियों के नामों से मिलकर बने ब्रह्मोस को रूसी याखोंत मिसाइलों का परिमार्जित और बेहतर रूप माना जाता है। जमीन, आकाश और समुद्र स्थित किसी लांच उपकरण से छोड़े जा सकने वाले ब्रह्मोस की खूबी यह है कि यह अपनी तरह का अकेला क्रूज मिसाइल है। इसके तीनों वर्जन भारत की तीनों सेनाओं के उपयोग के लायक हैं।
मिसाइल बेचने की कोशिश
अगर ब्रह्मोस को व्यावसायिक स्तर पर बनाने और बेचने पर अमल हो तो भारत दुनिया का बड़ा हथियार विक्रेता देश बन सकता है। ब्रह्मोस के साथ ही आकाश मिसाइलों को भी बेचने पर विचार हो रहा है। आकाश मिसाइलें 25 किलोमीटर की सीमा में आने वाले दुश्मन के किसी विमान या ड्रोन को नष्ट कर सकती हैं। सीमा के आसपास के क्षेत्र में इसकी खासी उपयोगिता है। सूत्रों के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशियाई देश वियतनाम, इंडोनेशिया, और फिलिपींस के अलावा बहरीन, केन्या, सउदी अरब, मिस्र, अल्जीरिया और संयुक्त अरब अमीरात भी इस को खरीदने के इच्छुक हैं। रक्षा हथियारों और साजोसामान की खरीद में भारत सउदी अरब के बाद दुनिया का सबसे बड़ा देश है। स्टॉकहोम के अंतरराष्ट्रीय शांति शोध संस्थान सिपरी के अनुसार पिछले कुछ दशकों में भारत की रक्षा जरूरतें तेजी से बढ़ी हैं। भारत ने अपने आयात स्रोतों में भी विविधता लाई है।
रूस और अमेरिका के अलावा भारत इसराइल और फ्रांस से भी काफी हथियार आयात करता है। पाकिस्तान और चीन के साथ आए दिन होने वाली खटपट के बीच देश की जमीनी, हवाई, और समुद्री सीमाओं की निगरानी को लेकर देश की विभिन्न एजेंसियों में जरूरतों के साथ-साथ तालमेल भी बढ़ा है। इन सब के अलावा आतंकवाद की समस्या ने भी देश की रक्षा जरूरतों को बढ़ाया है। दूसरी ओर भारत अपनी बढ़ती आर्थिक ताकत का इस्तेमाल अपने सैन्य उपकरणों के आधुनिकीकरण में कर रहा है। पिछले सालों में भारत ने अमेरिका और इसराइल समेत पश्चिमी दुनिया के देशों से रिश्ते बढ़ाने में भी अरबों की रक्षा खरीद का भी इस्तेमाल किया है। फ्रांस और इसराइल जैसे जिन देशों ने उसे हथियार बेचे हैं उनके साथ राजनयिक संबंध भी बहुत अच्छे हैं। लेकिन सालों तक अरबों की खरीद को जारी रखने के लिए संसाधन भी बढ़ाने होंगे।
इसमें भारत का अपना रक्षा उद्योग काम का साबित हो सकता है। इसलिए रक्षा क्षेत्र को गैर सरकारी हाथों में देने की योजना पर भी काम चल रहा है। सेना पर खर्च करने वाले देशों की लिस्ट में भारत अमेरिका, चीन, रूस, और सउदी अरब के बाद 5वें नंबर पर आता है। 2020 में भारत का रक्षा बजट 4,710 अरब रुपए था जिसे 2021 में बढ़ाकर 4,780 अरब रुपए कर दिया गया है जिसमें 1,350 अरब का खर्च सैन्य साजो सामान की खरीद और रखरखाव के लिए है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए, जिसकी जनता की विकास और संसाधन संबंधी जरूरतें ज्यादा हैं, यह बड़ा कदम है। सीमित बजट और अमेरिका या चीन जैसे देशों के मुकाबले छोटी अर्थव्यवस्था होने के नाते आने वाले सालों में अर्थव्यवस्था के कुछ सेक्टरों में देश को मन मारकर भी चलना होगा।
प्राथमिकताएं बदलने की जरूरत
रक्षा बजट में हुई इस बढ़ोतरी पर भी चीनी मीडिया चुटकी लेने से बाज नहीं आया। ग्लोबल टाइम्स की भारतीय रक्षा बजट को लेकर छपी टिप्पणी का अगर हिन्दी में भावार्थ निकालें तो यह कुछ-कुछ ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत जैसा ही होगा। गौरतलब है कि चीन का 2020 का रक्षा बजट 12,500 अरब रुपए से ज्यादा का था जो भारत के बजट से तीन गुने ज्यादा है। साफ है कि भारत को अपने रक्षा खर्चे और घरेलू उत्पादन दोनों पर ध्यान रखना होगा। इसके लिए जरूरी है कि देश की रक्षा उत्पादन प्रणाली और पद्धति को बदला जाय। रक्षा क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने के साथ साथ क्रिटिकल सेक्टर पर भी ध्यान देना होगा। पिछले कुछ सालों में कोशिशें तो तमाम हुई हैं और इस कवायद में भारत आज रक्षा उपकरण और हथियार बेचने वाले देशों की कतार में 23वें पायदान पर भी आ खड़ा हुआ है। लेकिन करोड़ों डॉलर खपाने के बाद भी अब तक कुछ खास हासिल नहीं हुआ है।
अभी तक भारत के सबसे बड़े ग्राहक मॉरीशस, श्री लंका, और म्यांमार जैसे देश ही हैं जिनकी रक्षा जरूरतें बहुत कम हैं। हां, वियतनाम के साथ रक्षा सहयोग निश्चित तौर पर बड़ा है, लेकिन बड़े हथियारों के मामले में अभी भी भारत बहुत पीछे है। रक्षा विशेषज्ञ अक्सर मजाक में कहते हैं कि जब तक डीआरडीओ नौकाओं के पंप और हैंड सैनिटाइजर बनाने जैसे काम करता रहेगा भारत दूसरे देशों के आगे हाथ ही फैलाए रहेगा। आत्मनिर्भर भारत मुहिम का सबसे बड़ा उदाहरण यही होगा कि भारत अपनी जरूरतों का रक्षा उत्पादन खुद से करने की क्षमता विकसित करे। रहा सवाल विश्व राजनीति के अहम किरदारों के समर्थन का, उसे तो रक्षा क्षेत्र में बड़ा उत्पादक बन कर भी हासिल किया जा सकता है।
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)