बिहार चुनाव में कितने अहम हैं इस बार बाहुबली

Webdunia
सोमवार, 5 अक्टूबर 2020 (08:12 IST)
रिपोर्ट मनीष कुमार, पटना
 
बिहार चुनाव की चर्चा हो और बाहुबलियों का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। उनकी अहमियत का पता इससे लगता है कि वे हर राजनीतिक दल को प्रिय हैं। इन्हीं पार्टियों के सहारे वे सत्ता का सुख भोगते हैं और इलाके में सरकार चलाते हैं।
 
पुराने समय में राज्य में आतंक का माहौल पैदा करने वाले बहुत से बाहुबली आजकल या तो जेल में अपने गुनाहों की सजा काट रहे हैं या फिर अदालत द्वारा माफी के बाद राजनीतिक जमीन की तलाश में जुटे हैं। चुनावी आईने से देखा जाए तो बिहार के तकरीबन हर विधानसभा क्षेत्र में कोई न कोई स्थानीय दबंग प्रभावी है और सभी पार्टियां इनका सहयोग लेने को आतुर दिखती हैं। बिहार की राजनीति में 80 के दशक के पहले राजनेता चुनाव में इनका सहयोग लेते थे। सबसे पहले ऐसी घटना बेगूसराय में सामने आई थी, जब वहां कामदेव सिंह द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी के लिए बूथ लूटे जाने की घटना हुई थी।
 
धीरे-धीरे इन दबंगों का राजनीति में दखल बढ़ने लगा। राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागृत हुई और मददगार बनने के बदले ये सीधे चुनाव मैदान में कूद पड़े। बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले लोग बताते हैं कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को राजनीति में इंट्री दिलाने का श्रेय कांग्रेस को जाता है, जब पार्टी ने विधानसभा चुनाव में दिलीप सिंह को टिकट दिया था। जरायम की दुनिया से ये सीधे सत्ता के गलियारे में पहुंच गए। जिन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिए था, वे माननीय बन गए। बिहार से दिल्ली तक सत्ता के गलियारे में इनकी धमक महसूस की गई। लोगों ने इन्हें बाहुबली की संज्ञा दे दी। यह वह दौर था, जब ऐसे लोगों को राजनीतिक संरक्षण की जरूरत थी और राजनेताओं को चुनाव जीतने और अपना रसूख बरकरार रखने के लिए इनकी आवश्यकता थी।
 
बिहार में ऐसे बाहुबलियों की लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने समय-समय पर खासी सुर्खियां बटोरीं। कोई विधानसभा का सदस्य बन गया तो कोई सांसद बनने में कामयाब रहा। बाहुबलियों की सूची में सर्वाधिक चर्चित नाम है सीवान के मोहम्मद शहाबुद्दीन का। भाकपा-माले के खिलाफ गरीबों का रॉबिनहुड बनकर उभरे शहाबुद्दीन पर पहला मुकदमा 21 साल की उम्र में दर्ज हुआ।
 
1990 में जब उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत हासिल की तो लालू प्रसाद की नजर उन पर पड़ी और मुस्लिम-यादव के अपने राजनीतिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए राजद में शामिल करा लिया। शहाबुद्दीन की धमक इतनी थी कि लगातार बढ़ते आपराधिक कृत्यों के बावजूद लालू-राबड़ी के शासनकाल में उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश तक नहीं की गई। 2001 में जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिश की तो इतनी गोलीबारी हुई कि 2 पुलिसकर्मियों समेत 10 लोगों की जान चली गई। फिर भी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका।
 
साहेब के नाम से मशहूर मोहम्मद शहाबुद्दीन आज सिवान के 2 भाइयों को तेजाब से नहलाकर मार डालने वाले तेजाब हत्याकांड व चश्मदीद की हत्या में संलिप्तता के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में सजा काट रहे हैं। लालू प्रसाद के चहेते रहे शहाबुद्दीन का रसूख आज भी बरकरार है। तभी तो राजद उनकी पत्नी हिना शहाब को चुनावों में टिकट देने से गुरेज नहीं करता।
 
मोहम्मद शहाबुद्दीन 2 बार विधानसभा तो 4 बार लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज करा चुके हैं। इसी इलाके में एक और बाहुबली अजय सिंह का अभ्युदय हुआ जिनकी पत्नी कविता सिंह वर्तमान में सीवान लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं। अजय ने सिवान में मोहम्मद शहाबुद्दीन के प्रभुत्व को एक हद तक खासी चुनौती दी। कविता सिंह ने हिना शहाब को पराजित कर ही लोकसभा का चुनाव जीता। कहा जाता है कि विधानसभा चुनाव में जदयू का टिकट पाने के लिए अजय ने पितृपक्ष में ही कविता से विवाह किया और नीतीश कुमार का आशीर्वाद पाने पहुंच गए।
राजनीतिक करियर की राह
 
मशरख (सारण) विधानसभा क्षेत्र से 1985 में जीत दर्ज करने वाले सीमेंट कारोबारी रहे प्रभुनाथ सिंह भी ऐसे ही बाहुबली हैं जिन्हें कभी नीतीश कुमार तो कभी लालू प्रसाद यादव का साथ मिलता रहा है। 1990 में जनता दल के टिकट पर चुने गए किंतु 1995 में जब वे अपने ही शागिर्द अशोक सिंह से चुनाव हार गए तो उसे बम से उड़वा दिया। अशोक की हत्या में प्रभुनाथ सिंह और उनके भाई दीनानाथ सिंह को आरोपित किया गया। 1998 में समता पार्टी के टिकट पर वे महाराजगंज सीट से लोकसभा पहुंचे।
 
2004 में उन्होंने जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 2012 में प्रभुनाथ राजद में शामिल हो गए और 2013 में इसी सीट से लोकसभा का उपचुनाव जीता जो राजद के उमाशंकर सिंह के निधन के कारण रिक्त हुआ था। इनका रसूख देखिए, ये खुद तो माननीय बने ही अपने रिश्तेदारों को भी लोकतंत्र के मंदिर तक पहुंचा दिया। भाई केदारनाथ सिंह बनियापुर (सारण), बेटे रणधीर सिंह छपरा (सारण), समधी विनय सिंह सोनपुर (सारण), तो बहनोई गौतम सिंह मांझी (सारण) से विधायक रह चुके हैं। विधायक अशोक सिंह की हत्या के आरोप में भाइयों समेत दोषी पाए जाने पर वे अभी आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं।
 
इस सूची में एक और नाम आता है मोकामा के विधायक अनंत सिंह का। भाई दिलीप सिंह की हत्या के बाद राजनीति में आए अनंत सिंह 2005 में पहली बार विधायक बने। तरह-तरह के चश्मों व घोड़े की सवारी के शौकीन अनंत सिंह को कभी नीतीश कुमार का करीबी माना जाता था। 2015 में जदयू से रिश्ते तल्ख होने के बाद इलाके में छोटे सरकार के नाम से मशहूर अनंत सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। एके-47 बरामदगी के मामले में वे फिलहाल पटना की बेउर जेल में बंद हैं। अनंत पर रंगदारी, हत्या व अपहरण के 30 से अधिक मामले दर्ज हैं।
 
कुछ जेल में तो कुछ रिहा
 
1990 के दशक में कोसी के इलाके में 2 नाम उभरे, आनंद मोहन और पप्पू यादव। आनंद मोहन 1990 में पहली बार सहरसा से विधायक बने। उन दिनों लालू यादव के काफी करीबी रहे पप्पू यादव से इनकी खासी अदावत रही। ये 2 बार सांसद बनने में भी कामयाब रहे। बाद में इनकी पत्नी लवली आनंद भी सांसद बनीं। गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया की हत्या में दोषी ठहराए जाने पर वे अभी उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। इनकी पत्नी लवली आनंद राजनीति में सक्रिय हैं और हाल में ही अपने बेटे चेतना आनंद के साथ राजद की सदस्यता ली है। कभी लालू के खासमखास रहे राजेश रंजन यादव उर्फ पप्पू यादव मधेपुरा जिले की सिंहेश्वर विधानसभा क्षेत्र से 1990 में पहली बार विधायक बने। कई बार वे सांसद भी बने। लोकसभा में अच्छा काम करने वाले सांसदों में उनका नाम भी लिया जाता है।
 
कहा जाता है कि पप्पू ने लालू का उत्तराधिकारी बनने की मंशा पाल रखी थी। लेकिन वे कामयाब न हो सके और 2015 में पप्पू को राजद से बाहर कर दिया गया। तब उन्होंने जन अधिकार पार्टी (जाप) की स्थापना की। करीब 15 से ज्यादा मामलों में आरोपित पप्पू यादव को पूर्णिया के मार्क्सवादी विधायक अजीत सरकार की हत्या में दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। पप्पू यादव अभी राजनीतिक व सामाजिक जीवन में पूरी तरह सक्रिय हैं और इस बार के विधानसभा चुनाव में नीतीश सरकार को शिकस्त देने की कोशिश में जुटे हैं।
 
ऐसा नहीं है कि बाहुबलियों की सूची इन्हीं नामों के साथ खत्म हो जाती है। इनके अलावा सांसद रहे सूरजभान सिंह (बेगूसराय) व रामा सिंह (वैशाली), विधायक रहे सुनील पांडेय (भोजपुर), राजन तिवारी (चंपारण), मुन्ना शुक्ला (वैशाली), सुरेंद्र यादव (जहानाबाद) एवं बीमा भारती के पति अवधेश मंडल (पूर्णिया), पूनम यादव के पति रणवीर यादव (खगड़िया), गुड्डी देवी के पति राजेश चौधरी (सीतामढ़ी) व गोपालगंज के कुचायकोट से निवर्तमान जदयू विधायक अमरेंद्र पांडेय भी उन बाहुबलियों में शुमार हैं जिनकी दबंगई आज भी अपने-अपने इलाके में कायम है। ये वही रामा सिंह हैं जिनकी राजद में इंट्री को लेकर अंतिम दिनों में रघुवंश प्रसाद सिंह से लालू प्रसाद का विवाद हो गया था। रामा सिंह ने ही 2014 में पिछले लोकसभा चुनाव में रघुवंश बाबू को पराजित किया था।
 
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उम्मीद
 
2017 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद जो किसी न किसी मामले में आरोपित ठहरा दिए गए थे, उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया। ऐसे बाहुबलियों ने अपनी पत्नियों के सहारे सत्ता के गलियारे में पहुंचने की कोशिश की और कुछ कामयाब भी रहे। पत्रकार अमित रंजन कहते हैं, ऐसा नहीं है कि पहले इन्हें रोकने की कोशिश नहीं की गई। भागवत झा आजाद जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं पर नकेल कसने की कोशिश की, किंतु अपराधी-राजनेता गठजोड़ के आगे वे कामयाब न हो सके और उन्हें अपनी कुर्सी गंवाकर इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।
 
नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर एक राजनेता कहते हैं कि इस हमाम में सभी नंगे हैं। सभी दलों ने खून से सने हाथों से राजनीतिक रोटियां सेंकी है। हां, सुकून की बात है कि कोर्ट व चुनाव आयोग द्वारा उठाए गए सुधार के कदमों से ऐसे तत्वों की राह अब आसान नहीं रह गई है। राजनीति का अपराधीकरण बिहार में स्थापित कटु सत्य है। किंतु यह भी सच है कि चुनाव सुधारों ने परिदृश्य बदला है, हालांकि अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
 
पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के जमाने में समाजवादी नेता कपिलदेव सिंह ने भरे सदन में जब बड़े साफगोई से स्वीकार किया था कि बाहुबलियों से मेरे संबंध हैं, तो उसी समय चेत जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से उस समय इस आहट को अनदेखा कर दिया गया। इस बार विधानसभा चुनाव के लिए निर्वाचन आयोग ने और सख्त प्रावधान किए हैं। अब ये जिम्मेदारी मतदाताओं की होगी कि जब ऐसे तत्व अपनी कारस्तानी का विज्ञापन प्रकाशित करवाएंगे तो वे जाति-धर्म के घेरे से ऊपर उठ कर निर्णय लें और बाहुबलियों को वोट न दें।

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