ज्ञानवापी परिसर स्थित व्यास तहखाने में कोर्ट ने पूजा-पाठ की अनुमति दे दी और कुछ ही घंटों में प्रशासन की मदद से पूजा शुरू भी हो गई। कोर्ट के फैसलों और प्रशासन की तेजी के बीच 1991 के धर्मस्थल कानून की चर्चा भी हो रही है। 31 जनवरी को वाराणसी की एक अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर स्थित व्यास तहखाने में हिन्दू पक्ष को पूजा करने का अधिकार दे दिया। जिला जज डॉक्टर अजय कुमार विश्वेश ने जिला प्रशासन को आदेश दिया कि सात दिन के भीतर तहखाने में पूजा शुरू कराने का इंतजाम करे।
इस बीच, मुसलमान पक्ष ने आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि वहां यथास्थिति बनी रहे। उधर जिला प्रशासन ने अदालत के निर्देश का पालन करते हुए तत्काल पूजा की व्यवस्था करा दी और रात में ही पिछले कई दशक से बंद तहखाने में साफ-सफाई करके, मूर्तियां लाकर रख दी गईं और पूजा-पाठ शुरू हो गई। भगवान गणेश, हनुमानजी, शिवलिंग आदि मूर्तियां कोषागार में रखी हुई थीं जिन्हें सर्वेक्षण के दौरान यहां रखा गया था।
हिन्दू पक्ष पिछले कुछ समय से ज्ञानवापी परिसर में मौजूद एक तहखाने में पूजा का अधिकार मांग रहा था। यह तहखाना मस्जिद परिसर के भीतर ही है।
प्रशासन ने जैसे ही तहखाने में पूजा की व्यवस्था शुरू कराने की कवायद की, मुसलमान पक्ष भी सक्रिय हो गया। ज्ञानवापी मस्जिद का संचालन करने वाली संस्था अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद ने रात में ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और व्यास तहखाने में पूजा-पाठ को रोकने की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सुबह करीब 3 बजे मुस्लिम पक्ष की याचिका पर सुनवाई की और उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में जाने का निर्देश दिया गया।
क्या है व्यास तहखाना?
साल 1991 में सोमनाथ व्यास ने ज्ञानवापी मस्जिद की जमीन पर अपना मालिकाना हक जताते हुए एक केस दर्ज कराया था। सोमनाथ व्यास का दावा था कि वह ज्ञानवापी परिसर के तहखाने में मौजूद मंदिर के पंडित थे और अदालत में उन्होंने भगवान विश्वेश्वर का सखा बन कर यह केस दर्ज कराया था। उनका दावा था कि मस्जिद की जगह पहले मौजूद आदि विश्वेश्वर के जिस मंदिर को ध्वस्त किया गया था, उसका कुछ हिस्सा अभी भी मौजूद है और वो यही जगह है जिसे अब व्यास जी का तहखाना के नाम से जाना जाता है।
केस दर्ज कराते समय उन्होंने यह दावा भी किया था कि इस तहखाने में मौजूद मंदिर में हिन्दू समुदाय के लोग पूजा-पाठ करते हैं। इस जगह पर अपने कब्जे के तर्क के साथ उन्होंने पूरे ज्ञानवापी परिसर में अपने मालिकाना हक का दावा किया था। मार्च 2000 में पंडित सोमनाथ व्यास का निधन हो गया और उसके बाद वकील विजय शंकर रस्तोगी स्वयंभू भगवान आदि विश्वेश्वर के सखा बन कर मुकदमा लड़ते आ रहे हैं।
मुसलमान पक्ष की दलील
लेकिन मुसलमान पक्ष इस दावे को सिरे से नकार देता है। उसका कहना है कि इस जगह पर न तो व्यास परिवार ने और न ही किसी हिन्दू ने कभी भी पूजा नहीं की है। साल 1993 में यहां पूजा-पाठ बंद कराने की बात को भी मुसलमान पक्ष सही नहीं मानता और न ही वहां किसी मूर्ति के होने की बात को सही मानता है।
दरअसल, हिन्दू पक्ष का दावा है कि ज्ञानवापी परिसर के नीचे 100 फीट ऊंचा आदि विश्वेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग है, जहां करीब 2,000 साल पहले काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण हुआ था। हिन्दू पक्ष का यह भी दावा है कि साल 1664 में औरंगजेब ने इस मंदिर को तुड़वा दिया था और उसी जगह पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण हुआ था।
अदालत में याचिकाकर्ताओं ने यही मांग की थी कि ज्ञानवापी परिसर का वैज्ञानिक सर्वेक्षण कर यह पता लगाया जाए कि जमीन के अंदर का भाग मंदिर का अवशेष है या नहीं। इन्हीं दावों के परीक्षण के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) से सर्वे कराया गया था।
एएसआई ने अपनी सर्वे रिपोर्ट में यह बात कही कि मंदिर के अवशेषों से ही मस्जिद का निर्माण हुआ और आज भी वहां मंदिर के तमाम अवशेष मौजूद हैं। सर्वे के दौरान ही 16 मई 2022 को ज्ञानवापी स्थित वजूखाने में आदि विश्वेश्वर का शिवलिंग मिलने का दावा किया गया। उसी दिन हिन्दू पक्ष की मांग पर अदालत के आदेश से वजूखाने को सील कर दिया गया।
पहले सर्वे कराने, फिर वजूखाने को सील करने और अब तहखाने में पूजा-पाठ की अनुमति के फैसलों को लेकर मुसलमान पक्ष में काफी नाराजगी है। मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतजामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कुछ अखबारों की रिपोर्टों में किए जा रहे इन दावों का खंडन करते हैं कि तहखाने में ब्रिटिश काल से ही हिन्दू पूजा करते आ रहे हैं जिसे 1993 में मुलायम सिंह यादव सरकार ने रोक दिया था। उनके मुताबिक, इस दावे का कोई सबूत नहीं है।
1991 के पूजा स्थल कानून का हवाला देते हुए मुसलमान पक्ष का कहना है कि ज्ञानवापी मस्जिद को भी कानून के जरिए उसी रास्ते पर ले जाने की कोशिश की जा रही है, जैसे बाबरी मस्जिद को विवादित बनाकर पहले गिरा दिया गया और फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भव्य मंदिर का निर्माण हुआ।
अंजुमन इंतजामिया मसाजिद ने पूजा की अनुमति देने संबंधी वाराणसी की अदालत के फैसले के खिलाफ दाखिल अपील में दलील दी है कि यह वाद पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के तहत पोषणीय नहीं है। यानी, उसके आधार पर इस मामले को अदालत में नहीं ले जाया जा सकता। एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस फैसले पर सवाल उठाए हैं और कहा है कि यह 1991 के पूजा स्थल कानून का खुले तौर पर उल्लंघन है।
क्या है पूजा स्थल कानून?
'प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट' यानी पूजा स्थल कानून साल 1991 में बना था। उस वक्त केंद्र में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। इस कानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले भारत में जिस भी धर्म का जो पूजा स्थल था, उसे किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदला नहीं जा सकता। अगर कोई ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसे 3 साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है।
यह कानून 1990 के दशक में तब लाया गया, जब देश भर में राम मंदिर आंदोलन जोर पकड़ रहा था। अयोध्या के अलावा वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही मस्जिद पर भी हिन्दू पक्ष अपना दावा जता रहे थे। चूंकि अयोध्या का राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पहले से ही कोर्ट में था इसलिए 1991 के कानून में इसे छूट दे दी गई और बाकी जगहों पर सांप्रदायिक सद्भाव खराब न हो, इसलिए यह कानून बना दिया गया। इस कानून में 15 अगस्त 1947 की डेट कटऑफ के तौर पर तय कर दी गई।
हालांकि 1991 में जब इस विधेयक को संसद में लाया गया, उस वक्त भी बीजेपी ने इसका पुरजोर विरोध किया था। तब अरुण जेटली, उमा भारती जैसे नेताओं ने इसे संसदीय समिति के पास भेजने की मांग की थी। हालांकि उनके विरोध के बावजूद कानून पास हो गया था। कई लोग इसलिए भी इस कानून का विरोध करते हैं कि 1947 से ठीक पहले तमाम पूजा स्थल तोड़े गए, उन्हें दूसरे धर्म के पूजा स्थल में तब्दील कर दिया गया, ऐसे में 15 अगस्त 1947 का कट ऑफ तार्किक नहीं है।
यही नहीं, कुछ लोग तो इस कानून को खत्म करने की भी बात कर रहे हैं। बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट में वकील अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की हुई है जिसमें पूजा स्थल कानून को चुनौती दी गई है। इसके अलावा बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी समेत कुछ दूसरे लोगों ने इस कानून के खिलाफ याचिका दायर कर रखी है।
हालांकि, अयोध्या विवाद पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने खुद टिप्पणी की थी कि पुराने विवादों को उघाड़ने और नए संघर्षों को जन्म देने के लिए इतिहास की परतों को खोलना ठीक नहीं है। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ खुद पांच जजों की उस बेंच का हिस्सा थे, लेकिन ज्ञानवापी मामले में निचली अदालतों की सक्रियता और 1991 के पूजा स्थल कानून के तहत उसकी पोषणीयता को लेकर उनकी कथित बेरुखी पर भी सवाल उठ रहे हैं।
तहखाने में पूजा की अनुमति के मामले को भी जब उनके सामने लाया गया तो उन्होंने मुस्लिम पक्ष को हाईकोर्ट जाने को कहा और फिर हाईकोर्ट ने जिला अदालत के फैसले को बरकरार रखा। यानी पूजा की अनुमति को वापस लेने से इंकार कर दिया।