गौहाटी हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से असम में पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील जैव विविधता वाले दो इलाकों को बचाने के प्रति अपना रवैया साफ करने को कहा है। दीहिंग पाटकाई नेशनल पार्क और डिब्रू साइखोवा नेशनल पार्क नामक यह दोनों इलाके ऊपरी असम में स्थित हैं। बीते साल मई में आयल इंडिया के बाघजान आयल फील्ड में लगी भयावह आग के बाद इन दोनों पार्कों के वजूद पर खतरा पैदा हो गया है। इससे चिंतित आम नागरिकों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने अदालत में याचिकाएं दायर की हैं। हाईकोर्ट उन पर सुनवाई कर रहा है।
इन पार्कों का वजूद वहां पाई जाने वाली वनस्पतियों और जीवों की विविध प्रजातियों से जुड़ा है। बीते साल लगी आग के बाद एक दर्जन से ज्यादा वकीलों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं और प्रकृति प्रेमी संगठनों ने गौहाटी हाईकोर्ट में अलग-अलग याचिकाएं दायर की हैं। आयल इंडिया लिमिटेड और कोल इंडिया लिमिटेड की ओर से व्यावसायिक खनन, तेल व गैस की तलाश, जीवाश्म ईंधन और कोयले के उत्पादन के लिए लगातार खनन की वजह से इन पार्कों के वजूद पर खतरा लगातार बढ़ रहा है। खासकर बीते साल एक तेल कुएं में लगी आग ने आम लोगों और पर्वारणविदों की चिंता कई गुना बढ़ा दी है।
हाईकोर्ट ने बीते सप्ताह डिब्रू साईखोवा नेशनल पार्क के भीतर 7 जगहों पर हाईड्रोकार्बन की ड्रिलिंग व तलाश से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि अगर सरकार छह सप्ताह के भीतर इस मामले में अपना हलफनामा दायर नहीं करती, तो पर्यावरण व पेट्रोलियम मंत्रालयों के सचिवों के साथ केंद्रीय पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव को अदालत में हाजिर होना होगा। बीते साल दिसंबर में इसी अदालत ने पार्क के भीतर ऑयल इंडिया की ओर से 7 जगहों पर हाइड्रोकार्बन की ड्रिलिंग पर रोक लगा दी थी।
बीते साल जून में ऑयल इंडिया के खिलाफ दायर एक याचिका में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से पार्क के भीतर ड्रिलिंग की अनुमति को चुनौती दी गई थी। इससे पहले भी हाईकोर्ट ने केंद्र से यह बताने को कहा था कि उसने बायोलाजिकल डाइवर्सिटी एक्ट 2002 की धारा 36 के तहत सालेकी प्रपोज्ड रिजर्व फॉरेस्ट के लिए क्या कदम उठाए हैं। वह जंगल भी दीहिंग-पाटकाई रेन फॉरेस्ट का हिस्सा है। कोल इंडिया लिमिटेड की ओर से वहां ओपन कास्ट माइनिंग की जाती है। उक्त अधिनियम की धारा 36 में ऐसे इलाकों की जैविक विविधता के संरक्षण और बचाव के लिए केंद्र की ओर से राष्ट्रीय योजना या रणनीति बनाने का प्रावधान है। इसके साथ ही ऐसे इलाकों की लगातार निगरानी की बात भी कही गई है।
हाईकोर्ट ने असम वन विभाग को 4 सप्ताह के भीतर गौहाटी हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ब्रजेंद्र प्रसाद काटकी की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय जांच आयोग बनाने का भी निर्देश दिया है। इससे पहले दीहिंग पाटकाई में कोयले के कथित अवैध खनन के मामले में हंगामे के बाद राज्य सरकार ने एक-सदस्यीय आयोग का गठन किया था। अभी उसकी अंतिम रिपोर्ट नहीं मिली है। इस मामले की अगली सुनवाई 15 मार्च को होगी।
इस मामले के एक याचिकाकर्ता व पेशे से पर्वतारोही अमर ज्योति डेका कहते हैं कि दीहिंग पाटकाई क्षेत्र में कोल इंडिया की ओर से होने वाला अवैध खनन संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। डेका का कहना है कि प्रकृति से प्रेम की वजह से ही उन्होंने उक्त याचिका दायर की है। अवैध खनन के मामले में ऐसी 5 अलग-अलग याचिकाओं पर हाईकोर्ट में एक साथ सुनवाई हो रही है।
तिनसुकिया जिले के बाघजान में सार्वजिनक क्षेत्र की कंपनी ऑयल इंडिया लिमिटेड के तेल के एक कुएं में बीते साल लगी आग ने पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है। उनका कहना है कि इस आग से फैलने वाले प्रदूषण का पर्यावरण, आम लोगों के जीवन और इस ग्रामीण इलाके की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर होगा और इस नुकसान की भरपाई पैसों से नहीं की जा सकेगी। प्रभावित इलाके में कई रिजर्व फारेस्ट, वन्यजीव अभयारण्य, जलाशय और जंगल हैं।
यह पूरा इलाका जैविक-विवधता से भरपूर है। जिस कुएं में आग लगी थी वहां से डिब्रू-साईखोवा बायोस्फेयर रिजर्व और नेशनल पार्क की दूरी एक किलोमीटर से भी कम है। लगभग साढ़े छह सौ वर्ग किलोमीटर में फैले इस नेशनल पार्क और उससे सटे मागुरी मोटापुंग बील क्षेत्र की गिनती पर्यावरण के लिहाज से अतिसंवेदनशील इलाकों में की जाती है। यह दुनिया के 35 सबसे संवेदशनशील बायोस्फेयर रिजर्व में शामिल है।
कुएं से निकलने वाली प्रोपेन, मीथेन, प्रोपिलीन और दूसरी गैसें आस-पास पर्यावरण में 5 किलोमीटर के दायरे में फैल गई थीं और उससे निकलने वाली राख ने खेतों और जंगल को भारी नुकसान पहुंचाया है। इस इलाके में बहने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के पानी ने भी खेतों तक इन जहरीले रसायनों को पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे आम लोगों व उनकी आजीविका को तो नुकसान पहुंचा ही है, लेकिन इलाके की जैविक विविधता और पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा है, उसकी भरपाई संभव नहीं है। इलाके के कई छोटे चाय बागान पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं। पर्यावरणविद डॉ. सुगत हाजरा कहते हैं कि उस घटना से इलाके की जैविक-विविधता और पर्यावरण को पहुंचने वाले नुकसान की निकट भविष्य में भरपाई संभव नहीं होगी।