इंसान जिस तरह से खाना पैदा करता और खाता है उसने धरती के लिए "विनाशकारी" संकट पैदा कर दिया है। अगर इस संकट से करोड़ों लोगों की जान बचानी है तो मौजूदा भोजन व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने होंगे।
लैंसेट में छपे एक महत्वपूर्ण रिसर्च के नतीजे यही बताते हैं। तीन दर्जन से ज्यादा रिसर्चरों के एक दल ने रिसर्च के बाद जो नतीजे दिये हैं। उसके मुताबिक दुनिया भर के भोजन में भारी बदलाव करना होगा। चीनी और रेड मीट की खपत आधी करने के साथ ही कई सब्जियों, फल और ड्राइफ्रूट की खपत को दोगुना करना होगा। लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और ईएटी लैंसेट कमीशन का नेतृत्व करने वाले टीम लैंग इस रिपोर्ट के सह लेखक हैं। उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "हम विनाशकारी स्थिति में हैं।" वर्तमान में एक अरब से ज्यादा लोग भूखे हैं और दो अरब से ज्यादा लोग खराब खाना खा रहे हैं। इसकी वजह से मोटापा, दिल की बीमारी और डायबिटीज जैसी महामारी पैदा हो रही हैं।
दुनिया के स्वास्थ्य पर नजर रखने वाली एक संस्था की ताजा ग्लोबल डिजीज बर्डेन (वैश्विक बीमारियों का बोझ) रिपोर्ट बताती है कि अस्वास्थ्यकर भोजन के कारण हर साल 1.1 करोड़ लोग असमय मौत के शिकार हो रहे हैं। इसके साथ ही दुनिया का मौजूदा भोजन तंत्र ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक और जैव विविधता को खत्म करने का सबसे बड़ा कारक है। इतना ही नहीं तटवर्ती इलाकों और अंतर्देशीय जलमार्गों में घातक शैवालों के पैदा होने का कारण भी यही भोजन तंत्र है। दुनिया भर में होने वाली खेती ने पृथ्वी की करीब आधी जमीन को बदल कर रख दिया है। इसके साथ ही यह धरती पर मौजूद ताजा पानी का 70 फीसदी हिस्सा इस्तेमाल करती है।
लैंसेट की रिपोर्ट के सह लेखक योहान रॉकस्ट्रोम, पोट्सडाम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट रिसर्च के निदेशक हैं। उनका कहना है, "2050 तक 10 अरब से ज्यादा लोगों को धरती की सीमाओं में भोजन कराने के लिए हमें एक स्वस्थ आहार अपनाने, भोजन की बर्बादी को घटाने के साथ ही पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों को कम करने की तकनीक में निवेश करना होगा।" रॉकस्ट्रोम का यह भी कहना है, "यह किया जा सकता है लेकिन यह वैश्विक कृषि क्रांति के बिना नहीं हो सकता।"
रिसर्चर जिस बड़े बदलाव की बात कह रहे हैं, रिपोर्ट में उसकी आधारशिला हर इंसान के लिए प्रतिदिन 2500 कैलोरी बताई गई है। टीम लैंग ने बताया, "हम यह नहीं कह रहे हैं कि सबको एक तरह से खाना चाहिए लेकिन मोटे तौर पर खासकर अमीर देशों में इसका मतलब है कि मीट और दुग्ध उत्पादों में कमी और पौधों से मिलने वाले भोजन में बड़ा इजाफा।" रिसर्चरों ने जो आहार बताया है उसके मुताबिक प्रतिदिन भोजन में रेडमीट की मात्रा महज 7 ग्राम होनी चाहिए और ज्यादा से ज्यादा 14 ग्राम। मौजूदा आहार की बात करें तो एक सामान्य हैमबर्गर पैटी में 125 से 150 ग्राम मीट होता है। ज्यादातर अमीर देशों और चीन या ब्राजील जैसे उभरते देशों में नए आहार का मतलब है 5 से 10 गुना तक कटौती।
धरती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला भोजन बीफ है। मवेशी ना सिर्फ धरती को गर्म करने वाली मीथेन गैस की मात्रा बढ़ाते हैं बल्कि उनकी वजह से कार्बन सोखने वाले जंगलों को भी सफाया हो रहा है। खासतौर से ब्राजील में हर साल बड़ी मात्रा में जंगलों की कटाई मवेशियों के लिए की जा रही है। अगर आप तुलना कर देखें तो एक किलो मांस जितने संसाधनों के जरिए पैदा होता है उतने में पांच किलो अनाज पैदा हो सकता है। इतना ही नहीं प्लेट में आने वाले मांस का 30 फीसदी हिस्सा सीधे कूड़े में चला जाता है।
आहार में सिर्फ मांस में ही कटौती की बात नहीं की गई है। दूध या दूध से बनने वाली चीजों के लिए भी सीमा प्रतिदिन महज एक कप दूध है। इसके अलावा अंडा केवल एक या दो प्रति हफ्ते। इस आहार में मटर और दाल जैसी फलियों, सब्जियों, फल और ड्रायफ्रूट की मात्रा दोगुना करने की बात कही गई है। अनाज को पोषक तत्वों के लिहाज से कम स्वास्थ्यकर माना जाता है। लैंसेट पत्रिका के मुख्य संपादक रिचर्ड हॉर्टन का कहना है, "मानव इतिहास के 2 लाख साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि हम प्रकृति और धरती के साथ हमारा तालमेल एकदम बिगड़ गया है। हम धरती के संसाधनों को संतुलित रखते हुए संपूर्ण आबादी को स्वास्थ आहार नहीं खिला सकते।"
इस रिपोर्ट का कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं। खासतौर पर मवेशी और डेयरी उद्योग से जुड़े लोग, इसके साथ ही कुछ जानकारों ने भी विरोध जताया है। यूरोपीयन डेयरी एसोसिएशन के महासचिव एलेक्जेंडर एन्टन का रिपोर्ट के बारे में कहना है, "ज्यादा से ज्यादा ध्यान आकर्षित करने के लिए यह चरम पर चली गई है लेकिन आहार के लिए गंभीर सिफारिश करते वक्त हमें ज्यादा जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।" एन्टन ने ध्यान दिलाया कि दूध से बनी चीजें पोषक तत्वों और विटामिन से भरपूर होती हैं।
हालांकि रिसर्चरों का कहना है कि उन्हें इस तरह के आलोचनाओं की पहले से ही आशंका थी। उनका यह भी कहना है कि खाने का सामान पैदा करने वाली कंपनियों को इन सच्चाइयों की ओर देखना चाहिए। अगर हम नहीं बदले तो बचेंगे नहीं।