हिमालयन वियाग्रा कही जाने वाली इस जड़ी-बूटी का 70,000 करोड़ रुपए का सालाना बाजार है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कारोबारियों को इसकी कीमत 40 से 50 लाख रुपए प्रतिकिलो तक मिल जाती है।
उत्तराखंड के धारचूला से करीब 40 किलोमीटर दूर है छिपला केदार का इलाका। यहां कोई 2,000 मीटर की ऊंचाई पर बसे एक दर्जन गांवों के 700 से अधिक लोग हर साल ऊंचे पहाड़ी बुग्यालों पर एक बूटी की तलाश में जाते हैं। यह है यारसा गुम्बा (तिब्बत में यारसा गुन्बू) नाम की हिमालयी बूटी जिसे स्थानीय भाषा में कीड़ाजड़ी भी कहा जाता है।
धारचूला ब्लॉक के सूआ गांव निवासी पवन सिंह बताते हैं कि इन बुग्यालों में हमारे गांवों के ही नहीं बल्कि दूर दराज के तमाम गांवों से लोग कीड़ाजड़ी निकालने आते हैं। साल में एक बार (इसे इकट्ठा कर बेचने से) होने वाली कमाई ही हमारे पूरे समय का गुजारा होती है।
दुनिया के कई देशों में हिमालयन वियाग्रा के नाम से मशहूर कीड़ाजड़ी को सेक्सवर्धक होने के साथ-साथ ट्यूमर, टीबी, कैंसर और हेपेटाइटिस जैसी जानलेवा बीमारियों का इलाज माना जाता है।
हालांकि इस बूटी को लेकर किए जा रहे सभी दावों की जांच नहीं हुई है और उन पर वैज्ञानिक शोध चल ही रहा है। फिर भी इस बूटी ने दुनियाभर में करीब 1,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर यानी कोई 70,000 करोड़ रुपए का सालाना बाजार खड़ा कर लिया है।
क्या है कीड़ाजड़ी?
कीड़ाजड़ी (यारसा गुम्बा) में एक फफूंद एक कीड़े पर हमला करता है और परजीवी की तरह उसका शोषण करता है। फफूंद और कीड़े का यही संयोग एक अद्भुत बूटी तैयार करता है जिसे उत्तराखंड के गांवों में यारसा गुम्बा या कीड़ाजड़ी के नाम से जाना जाता है।
भारत के पश्चिमी और मध्य हिमालयी क्षेत्र के अलावा यारसा गुम्बा तिब्बत, नेपाल और भूटान के इलाके में पाया जाता है। भारत में इसके खरीदार नहीं हैं लेकिन दुनिया के दूसरे देशों खासतौर से चीन, सिंगापुर, ताईवान, इंडोनेशिया और अमेरिका जैसे देशों में इसकी काफी मांग है। पिछले करीब 2 दशकों में इसकी बढ़ती मांग की वजह से कीड़ाजड़ी की कीमत सातवें आसमान पर पहुंच गई है।
साल 2003 तक करीब 20,000 रुपए प्रति किलो में मिलने वाली कीड़ाजड़ी की कीमत आज 7 से 10 लाख रुपए प्रति किलो पहुंच गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कारोबारियों को इसकी कीमत 40 से 50 लाख रुपए प्रति किलो तक मिल जाती है।
वजूद पर संकट
कीड़ाजड़ी हिमालयी लोगों के लिए रोजगार का एक महत्वपूर्ण जरिया है। हालांकि रिजर्व फॉरेस्ट से किसी तरह वन उत्पाद को निकालने पर मनाही है लेकिन वन पंचायतों के अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले इलाकों से कीड़ाजड़ी निकाली जाती है। जंगल से निकाली गई इस बूटी के बदले ग्रामीणों को सरकार को रॉयल्टी अदा करनी पड़ती है।
कीड़ाजड़ी निकालने का कारोबार ऐसा है कि कागजों पर इसका रिकॉर्ड बहुत सीमित है और ज्यादातर 'माल' गैरकानूनी तरीके से तस्करी के जरिए देश के बाहर भेज दिया जाता है। पिछले कुछ वक्त में इस बूटी के अतिदोहन की वजह से अब हिमालयी क्षेत्र में यह गायब होती जा रही है। इसे निकालने के कारोबार में लगे ग्रामीण बताते हैं कि इसकी उपलब्धता में पिछले 10 सालों में 20% से 25% की कमी आई है।
कुमाऊं विश्वविद्यालय में जंतु विभाग के प्रोफेसर और पिछले 2 दशकों से यारसा गुम्बा पर रिसर्च कर रहे डॉक्टर सीएस नेगी कहते हैं कि बाजार में कीड़ाजड़ी की अधिक कीमत पाने के लिए उसे जल्द निकालने की होड़ बनी रहती है। जितना जल्दी इसे निकाला जाए, इसकी कीमत उतनी अधिक मिलती है। लेकिन इसी जल्दबाजी के कारण कीड़ाजड़ी के अस्तित्व का संकट भी मंडरा रहा है।
डॉ. नेगी समझाते हैं कि जब तक कीड़ाजड़ी अपनी परिपक्व अवस्था में नहीं पहुंचती, तब तक बीज का निर्माण नहीं होता और यदि बीज ही हवा में नहीं बिखरेगा तो लार्वा पर फफूंद के हमले का नया चक्र शुरू ही नहीं होगा। साफ है कि फिर अगले साल आपको कीड़ाजड़ी नहीं मिलेगी। यही संकट अभी बढ़ रहा है।
पहाड़ी बुग्यालों में उन वनस्पतियों के खत्म होने का संकट भी गहरा रहा है, जो लार्वा को पल्लवित करते हैं। अकसर औषधीय पौधों की खोज में जाने वाले लोग इन बुग्यालों से उन प्रजातियों को भी चुन लाते हैं जिनकी जड़ों पर कीड़ाजड़ी का लार्वा फलता-फूलता है। जहां अत्यधिक दोहन किया गया, उन कुछ पहाड़ी बुग्लायों में यह बूटी अब नहीं मिल रही।
सामुदायिक पहल पर जोर
बीते दिसंबर माह में उत्तराखंड में वन विभाग की रिसर्च विंग ने धारचूला और मुनस्यारी ब्लॉक में उन ग्रामीणों के साथ बैठक की, जो कीड़ाजड़ी का दोहन करते हैं। इसका मकसद कीड़ाजड़ी के अनियंत्रित दोहन को रोकना और लोगों को उसके बारे में जागरूक करना था।
डॉ. सीएस नेगी ने इस जागरूकता अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका कहना है कि भारत के पड़ोसी नेपाल और भूटान ने यारसा गुम्बा को लेकर महत्वपूर्ण पहल की है।
नेपाल ने कीड़ाजड़ी के उपज क्षेत्र को बचाने के लिए तय किया कि लोग पहाड़ी बुग्यालों में टेंट बनाकर न रहें। आज वहां कीड़ाजड़ी निकालने के सीजन में बुग्यालों से 2 या 3 किलोमीटर पहले ही टेंट लगाकर रहते हैं। भारत में अब भी सीजन के दौरान बुग्यालों पर लगे सैकड़ों टेंट देखे जा सकते हैं। इससे इकोलॉजी और हैबिटाट को काफी नुकसान होता है।
भारतीय वन सेवा अधिकारी और मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी कहते हैं कि हमने लोगों को इस बारे में जागरूक किया है। अगर वे उन अल्पाइन मीडीज (बुग्यालों) में रात नहीं बिताते तो वहां पर्यावरण को कम नुकसान होता है।
हर रोज कीड़ाजड़ी निकालने का समय भी 2 से 3 घंटे कम हो जाता है। भोजन और दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए ईंधन इन संवेदनशील इलाकों से नहीं लिया जाता। लोगों के बुग्यालों पर जमावड़ा न करने से यह सकारात्मक पहलू खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं।
भारत में उत्तराखंड अकेला राज्य है, जहां वन-पंचायतों का चलन है। चतुर्वेदी कहते हैं कि कीड़ाजड़ी को चुनने के काम में वन पंचायत एक मॉनिटर का प्रभावी रोल अदा कर सकती है। महत्वपूर्ण है कि नेपाल और तिब्बत में किसी सरकारी नियम से नहीं, बल्कि सामुदायिक स्तर पर जागरूकता से ही लोगों ने यह पहल की है। कीड़ाजड़ी निकालने के लिए साल में 40 से 50 दिन निर्धारित हैं और ग्रामीण स्वयं ग्राम समितियों को आश्वस्त करते हैं कि कोई साल में बाकी दिनों बुग्यालों में नहीं जाएगा।
खुली नीलामी का रास्ता
भूटान ने कीड़ाजड़ी के कारोबार को नियंत्रित करने के साथ इसे कानूनी मान्यता दी है जिससे वहां तस्करी रोकने और बुग्यालों की उर्वर जमीन को बचाने में मदद मिली है। इसके साथ ही खुली नीलामी के जरिए किसानों को अच्छी कीमत दिलाकर बिचौलियों को हटाया गया है।
यह रास्ता भारत में कीड़ाजड़ी निकालने वाले पहाड़ी परिवारों के लिए भी काफी मददगार हो सकता है। भारत में भी हिमालयी इलाकों में रहने वाले लोग चाहते हैं कि उनकी कमाई में बिचौलियों का दखल न हो।
डॉ. नेगी कहते हैं कि सरकार की देखरेख में धारचूला और मुनस्यारी जैसी जगहों में नीलामी कराई जा सकती है। सभी ग्रामीण कहते हैं कि बिचौलिए उन पर दबदबा बनाए रखना चाहते हैं और उनकी कमाई के बड़े हिस्से पर उनका अधिकार हो जाता है। ऐसे में इन ग्रामीणों को सीधे खरीदारों से जोड़ना सरकार की जिम्मेदारी है। इससे स्थानीय लोगों को फायदा होगा और सरकार के लिए आसानी होगी। (प्रतीकात्मक चित्र)