चीन अपनी सैन्य ताकत बढ़ा रहा है जबकि रूस अपनी विदेश नीति को आक्रामक तरीके से लागू कर रहा है। आईआईएसएस के विशेषज्ञ बास्टियान गिगरीश कहते हैं कि दुनिया में तेजी से बदलाव आ रहा है।
बास्टियान गिगरीश इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटजिक स्टडीज (आईआईएसएस) में रक्षा और सैन्य विश्लेषण विभाग के निदेशक हैं। वह उस टीम का नेतृत्व भी करते हैं जो सालाना मिलिट्री बैलेंस रिपोर्ट प्रकाशित करती है। डीडब्ल्यू के साथ खास बातचीत में उन्होंने दुनिया भर में बदलते रणनैतिक समीकरणों की चर्चा की है। पेश हैं इसी इंटरव्यू के खास अंश:
आपने आईआईएसएस 2018 मिलिट्री बैलेंस रिपोर्ट में लिखा है कि चीन अपनी वायु सेना में भारी पैमाने पर निवेश कर रहा है। क्या अब चीन वायु सैन्य ताकत के मामले में अमेरिका के बराबर आ गया है?
चीन अभी अमेरिका के बराबर नहीं आया है लेकिन वह इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। हमारे अनुमान के मुताबिक कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां चीन आगे नहीं बढ़ रहा है बल्कि बेहतर कर रहा है। मिसाल के तौर पर हम समझते हैं कि चीन इस साल अपने अस्त्रागार में लंबी दूरी की हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइल को शामिल कर सकता है।
इसके अलावा उसके अत्याधुनिक जे-20 लड़ाकू विमान भी 2020 तक फ्रंटलाइन सर्विस का हिस्सा बन जाएंगे। ये वे अत्याधुनिक क्षमताएं हैं जो आकाश में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देती हैं। मुझे लगता है कि वे दिन गए जब आकाश में अमेरिका और पश्चिमी सेनाओं के प्रभुत्व को चुनौती देने वाला कोई नहीं था।
आपकी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीन अपनी नौसेना में भी भारी निवेश कर रहा है। इसका क्या मकसद है?
चीन ने पिछले चार साल में जो पोत बनाए हैं उनकी भार उठाने की क्षमता फ्रांस की नौसेना से भी ज्यादा है और इस मामले में वे लगभग ब्रिटिश रॉयल नेवी के बराबर आ गए हैं। इससे साफ है कि चीन समंदर में अपनी क्षमताओं का विस्तार कर रहा है। साथ ही चीन ने जिबूती में अपना पहला विदेशी बेस खोला है। इसके जरिए चीन को लंबे समय तक सागर में अपने पोतों की तैनाती में मदद मिलेगी और चीन की ताकत में इजाफा होगा।
रूस के हालात थोड़े अलग हैं। बात जब सैन्य बलों को आधुनिक बनाने की आती है तो क्या रूस के सामने कुछ मुश्किलें हैं?
रूस ने आर्थिक मुश्किलों का सामना किया है, जिसके चलते वहां सेना को अत्याधुनिक बनाने की महत्वाकांक्षी योजना को सीमित किया गया है। हमारा अनुमान है कि वहां सेना के आधुनिकीकरण का काम थोड़ा धीमा हुआ है। लेकिन रूस अपने सशस्त्र बलों को सीरिया और पूर्वी यूक्रेन जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों में इस्तेमाल करता रहा है। इसलिए रूस के पास नए उपकरणों और नई तकनीक को इस्तेमाल करने का ज्यादा अनुभव है। वहीं चीन के पास अभी तक ऐसा कोई अनुभव नहीं है।
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका यूरोपीय देशों से सेना में ज्यादा निवेश करने को कह रहा है। और इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोपीय सेनाओं ने 2017 में अपना सैन्य खर्च बढ़ाया है। क्या आपको लगता है कि ऐसा अमेरिकी दबाव के कारण हो रहा है?
दरअसल यूरोप में लोग मानने लगे हैं कि दुनिया एक खतरनाक जगह है और यहां खतरे को लेकर धारणा भी बदली है। मुझे लगता है कि जिस तरह रूस अपनी विदेश नीति को आक्रामक तरीके से लागू कर रहा है, उसके कारण यूरोपीय देशों ने सेना पर खर्च बढ़ाया है। यूक्रेन का संकट भी इसकी वजह है। इसमें अमेरिकी दबाव का योगदान भी रहा है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि सिर्फ ट्रंप के दबाव के कारण ही यूरोपीय देशों ने सैन्य खर्चा बढ़ाया है। इसकी शुरुआत ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले ही होने लगी थी।
रूस, चीन और अमेरिका अपने परमाणु अस्त्रागार को आधुनिक बना रहे हैं। क्या हम फिर से 1980 के दशक की तरफ लौट रहे हैं?
मुझे नहीं लगता कि यह कहना सही होगा। लेकिन मैं समझता हूं कि हम जो देख रहे हैं वहां अपना दबदबा कायम करने के लिए कोई बड़ा संघर्ष होने की संभावना अब से 20 साल पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यह संघर्ष होगा ही, लेकिन इसकी बहुत संभावना है। इसी के तहत हम देख रहे हैं कि चीन और रूस अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं और वे व्यवस्थित तरीके से एक संघर्ष के लिए तैयार हो रहे हैं। परमाणु हथियार आखिरकार संकट को रोकने में भूमिका निभाएंगे। तीनों ताकतें यानि चीन, रूस और अमेरिका अपने परमाणु हथियारों को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में हैं।
बास्टियान गिगरीश के साथ यह इंटरव्यू पेटर हिले ने किया।